(पिछली क़िस्त – दिल्ली से तुंगनाथ वाया नागनाथ – 2)
कहे अनुसार सुबह ठीक छह बजे परशु गिलास भर कर चाय दे गया. मैं छत पर गया तो देखा, चारों ओर पहाड़ों पर सुनहरी धूप खिल रही थी. पीछे बहुत बड़े मैदान में कुछ लोग सुबह की सैर कर रहे थे. चारों ओर पहाड़ों को देखना सुखद अनुभव था. शेखर ने कहा था, सोमवार को तुंगनाथ शिखर पर चलेंगे. मैं ऊंची चोटियों को देख कर अनुमान लगाता रहा कि तुंगनाथ शिखर शायद उधर होगा.
नहा-धोकर ठीक 9 बजे ‘सीमांत के सवाल’ विषय पर आयोजित गोष्ठी के श्रोताओं में जाकर बैठ गया. चंडी प्रसाद भट्ट जी की अध्यक्षता में गंभीर गोष्ठी हुई और वक्ताओं के वक्तव्यों ने सीमांत के गहरे सरोकारों की ओर ध्यान केंद्रित किया. पता लगा, सुबह पुलिस लाइंस मैदान में सैकड़ों बच्चों ने विशेषज्ञों से बातचीत की.
दोपहर के भोजन के बाद शेखर, गोविंद ‘राजू’और मैं बात करते-करते गोपेश्वर बाजार के दूसरे कोने तक गए. नवीन को रात से ही बुखार था. बाजार के उस कोने पर सांस्कृतिक जुलूस के लिए लोग जमा हो चुके थे. तुरही और ढोल-दमामे तैयार थे. संग्रामी देवी एक छोटे बच्चे को साथ लेकर तेजी से उसी तरफ बढ़ रही थीं. भीड़ में चंडीप्रसाद भट्ट जी और कई अन्य चेहरे भी दिखाई दे रहे थे. तभी तुरही और ढोल-दमामे गूंजेः
धू…..तु तु तु तू …धू
धू….तु तु तु तू….धू
ढम….ढमाम….ढमाम
ढ..ढम..ढम ढम! ढ..ढम…ढम ढम!
पांरपरिक वाद्यवृंदों की आवाज के साथ सांस्कृतिक जुलूस आगे बढ़ने लगा. लोग जुटते गए, कारवां बनता गया. मुखौटे पहने चार-पांच युवक आगे आकर नृत्य करने लगे और कुछ अन्य युवक उत्साह के साथ लोकगीत गाने लगे. हमने भी उनके सुर में सुर मिलाया. महिलाएं, बच्चे, युवक और बुजुर्ग सभी साथ चल पड़े और मुख्य मार्ग से होते हुए पी.जी. कालेज के सभागार में पहुंच गए.
नौ मई को दोपहर बाद सम्मान समारोह का आयोजन किया गया. समारोह में अपने-अपने क्षेत्र में समर्पित रूप से जीवन भर कार्य करने वाली पहाड़ की 10 जानी-अनजानी विभूतियों को पारंपरिक टोपी और शाल पहना कर सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया गया. ये विभूतियां थींः श्रीमती संग्रामी देवी, श्रीमती जयन्ती देवी, श्रीमती लक्ष्मीदेवी जितवान, श्री राधाकृष्ण वैष्णव, श्री शिवराज सिंह रावत ‘निःसंग’, श्री मुरारी लाल, श्री गोकुलानन्द किमोठी, श्री चन्द्रबल्लभ पुरोहित, श्री पुष्कर सिंह कंडारी और श्री हरिश्चंद्र चंदोला. अस्वस्थ होने के कारण श्रीमती जयंती देवी तथा श्री राधाकृष्ण वैष्णव समारोह में उपस्थित न हो सके. पहाड़ के साथियों¬ ने उन्हें¬ बाद में¬ उनके घर पर जाकर सम्मानित किया.
उस दिन सांझ बसंती देवी की लोकशैली में गाई गई नंदा स्तुति के बोलों, साथी कलाकारों की फाग, रामचरण घियाल के हुड़के की थाप और नरेंद्र नेगी की थाली की खनखनाट पर धीरे-धीरे पहाड़ों से नीचे उतरी. सांझ ढले कवि सम्मेलन शुरु हुआ और उसके बाद गढ़वाली नाटक ‘वसुंधरा’ ने प्रकृति के संरक्षण का संदेश दिया. देर रात भोजन किया और वापसी की चर्चाएं शुरु हो गईं. हमारे दो साथियों-चंदन और डाॅ. आर्य ने भी नौकरी के जरूरी काम से लौटने का निश्चय कर लिया. शेखर से बात हुई. तय हुआ कि सुबह 6 बजे के आसपास चलेंगे तुंगनाथ के लिए.
मैं रात के अंधेरे में अपनी खोह में लौट आया. परशु को सुबह जाने की बात बताई, हिसाब चुकता किया और रात सपने में साथियों के साथ तुंगनाथ की चढ़ाई चढ़ता रहा. गहरी नींद नहीं आई. साढ़े चार बजे उठ कर नहाने-धोने का उपक्रम शुरु कर दिया और पौने छह बजे पीठ पर पिट्ठू कस कर विश्राम गृह में साथियों से मिलने चल दिया.
साढ़े छह बजे हम तुंगनाथ के लिए चल पड़े. हमारे दल में थेः शेखर, जे.एस. मेहता, समीर बनर्जी, मैं, प्रकाश, कमल, रामू बहुगुणा, नवीन जोशी, गोविंद राजू, हरीश पंत, महेश पांडे. कमल जोशी, गीता गैरोला, रीना, रावत जी और राजेश जोशी परिवार दूसरे दल में थे. हमने उनका इंतजार किया मगर जवाब आया कि वे पीछे-पीछे आ रहे हैं. हम गोपेश्वर से पश्चिम की ओर चले जा रहे थे. पहाड़ ऊपर ऊंचाई तक फैला हुआ था जिस पर घने पेड़ थे. तमाम पेड़ों के बीच यहां भी ढलान पर नीली गुलमोहर का खिला हुआ पेड़ देख कर हैरानी हुई. ग्वाड़-देवलधार गांव पार कर रहे थे कि सड़क किनारे छोटे-बड़े स्कूली बच्चों को बस्ता लटकाए स्कूल जाते देखा. उनके चेहरे पर हंसी थी. बड़े बच्चे छोटे-छोटे बच्चों के हाथ थामे हुए थे. उन्हें देख कर हम भी अपने बचपन में लौटे. कभी हम भी इसी तरह तख्ती-दवात या बस्ता लटकाए स्कूल जाते थे.
रामू बहुगुणा ने बटन दबा कर खिड़की का शीशा नीचे सरकाया और बगल से निकलते हुए बच्चों से गढ़वाली में प्यार से पूछा, “ बेटा स्कूल जा रहे हो?”
बच्चों ने चहकते हुए कहा,”हां स्कूल जा रहे हैं.”
“खूब पढ़ना बेटा, खूब मेहनत करना. कुछ बन के दिखाना, हां,” रामू बोले. दिल की गहराई से निकली उनकी आवाज भीगी हुई थी.
“जी हां ,” बच्चों की आवाज आई.
“शाबाश बेटा! ”रामू पीछे मुड़ कर उन्हें देख रहे थे. कुछ देर बाद शीशा बंद करके बोले, “देखा, यहां किसी बच्चे के चेहरे पर तनाव या परेशानी नहीं है. कितने खुश होकर स्कूल जा रहे हैं.”
“हां, अपने-आप जा रहे हैं. मां-बाप हाथ पकड़ कर पहुंचाने नहीं आए हैं. इससे इन बच्चों में आत्मविश्वास आ गया है. अपने से छोटे बच्चों को खुद संभाल रहे हैं, ”यह प्रकाश की आवाज थी.
“स्कूल दिखाई नहीं दे रहा है. जाने कितनी दूर है. हो सकता है, गोपेश्वर तक ही जा रहे हों. लेकिन, कोई फिक्र नहीं, ”कमल ने कहा और हम कुछ देर चुप रह कर अपने-अपने बचपन में जाकर लौट आए.
क्यार्की गांव में तिम्ला (फाइकस राॅक्सबर्गाइ), अंखोड़ (जुगलेंस रेजिया) , डेंकण और टूनी आदि के हरे-भरे पेड़ दिखाई दिए. इस गांव में भी नीली गुलमोहर के पेड़ों पर बहार आई हुई थी. रास्ते में ही एक गांव में शेखर ने किसी से मिलना और हमें उनसे मिलाना था, लेकिन वे किसी काम से गोपेश्वर गए हुए थे. उनके मकान के आसपास सुंदर खेत थे, साग-सब्जियां लगी हुई थीं, फलों के पेड़ थे और बीच-बीच में हरे-भरे पेड़ भी थे. उन्होंने अपने लिए एक छोटी-सी दुनिया रच ली थी और सुकून के साथ वहां रह रहे थे.
चारों ओर देखते हुए हम गाड़ी में बैठे और गाड़ी चल पड़ी.
“क्या रखा है यार दिल्ली जैसे भीड़-भाड़ भरे शहरों में जहां दिन-रात कभी चैन नहीं मिलता. ऐसी ही किसी जगह पर घर हो और आदमी शांति से रहे, ” पीछे शायद रामू ने कहा.
मुझे कहीं पढ़ा हुआ तस्कीन अजमेरी का शेर बेसाख्ता याद हो आयाः
याद आ जाती है जब अपने नशेमन की मुझे,
देखा करता हूं क़फ़स से मैं गुलिश्तां की तरफ.
यानी, जब मुझे अपने घर की याद आती है तो पिंजरे से फूलों की बगिया की तरफ देखा करता हूं!
कुछ देर की चुप्पी के बाद फिर आवाज आई, “ शेखरदा ने बिल्कुल सही निर्णय लिया है.” यह प्रकाश की आवाज है.
“क्या?” रामू ने पूछा है.
“अपने घर गंगोलीहाट लौट जाने का निर्णय. इट्स अ वाइज डेसिजन. मकान ठीक-ठाक करा रहे हैं वहां.”
“यह तो वे सचमुच अच्छा कर रहे हैं. ”
“लेकिन, सब कुछ से दूर एकांत में भी तो आदमी बोर हो जाता है.”
“नहीं, वह सब से जुड़ा रहे. पढ़े-लिखे और अपने घर व बगिया में काम करे.”
काफी देर खामोशी रही. शायद हम सभी पहाड़ की गोद में किसी ऐसे छोटे से, प्यारे से घर की कल्पना कर रहे थे जहां शांति से रह सकें.
तभी मंडल गांव का मील का पत्थर दिखाई दिया. एक गधेरे के ऊपर से पुल पार कर घने जंगल के रास्ते पर आगे बढ़ने लगे. जंगल घना और घना होता जा रहा था. उसमें कोई आबादी नहीं थी. गाड़ी की खुली खिड़की से कभी-कभी घने जंगल की भीगी-भीगी खुशबू भीतर आ जाती थी. चलते चले जा रहे थे कि आगे की गाड़ी रुकी. शेखर और साथी बाहर निकले. शेखर ने पास आकर कहा, “आप लोग भी आइए. यहां थोड़ा जंगल और पेड़ों की बात करते हैं. यादगारी के लिए ग्रुप फोटो भी ले लेते हैं.”
हम लोग भी उतरे. ग्रुप फोटो लिया. वनविद् मेहता जी आसपास के जाने-अनजाने पेड़-पौधों का परिचय कराने लगे, “ये बांज, वह बुरांश, वह सामने देखिए अंयार और वह कांचुला. एसर भी कहते हैं इसे.“ तभी, रामू उत्साह से बोले, “ये देखो-हिंसालु” हम सभी ने चौंक कर पूछा-क्या हिंसालू? कहां है? ”कुछ साथी हिंसालू के त्वाप (फल) टीपने में जुट गए. छोटा-सा ही पौधा था, फिर भी कुछ त्वाप मिल ही गए. वे बहुत छोटे और लाल-लाल रंग के थे. काला हिंसालू था, रुबस की ही कोई जाति थी. एक-एक या आधा-आधा फल सभी को मिल गया. हरेक के चेहरे पर इस बात का संतोष झलकने लगा कि चलो लंबे अरसे बाद हिंसालू तो खाया.
“काफल तो अब तक नहीं मिला, चलो हिंसालू मिल गया, ” मैंने कहा.
नवीन ने मेरी ओर आश्चर्य से देख कर कहा, “क्या काफल नहीं मिले? हमें तो रानीखेत से गैरसैंण तक खूब काफल मिले. इस बार खूब फले हैं.”
हम हैरान! “हमें तो ऋषिकेश से चंबा, श्रीनगर, कर्णप्रयाग और नागनाथ तक में भी देखने को नहीं मिले.”
“टोलिया जी की कार में तक छापरी भर काफल रखे थे. आप लोगों को कहीं क्यों नहीं मिले? ” किसी ने कहा.
बाद में फोन पर चंदन ने बताया, “हम टोलिया जी की गाड़ी में गए. उन्होंने हमें खूब काफल खाने को दिए. बचे-खुचे काफल भी हमें ही सौंप दिए. हम तो उन्हें दिल्ली तक ले आए हैं.”चलने लगे तो राजू ने भरोसा दिलाते हुए कहा, “चलिए, लौटते समय आप लोगों को रानीखेत में काफल मिल जाएंगे. जितना मन हो, उतने खा लीजिए.”
काफल चर्चा में पिछली शाम सम्मानित हुए बुजुर्ग कवि चंद्र बल्लभ पुरोहित जी की कवि सम्मेलन में काफल पर सुनाई गई पंक्तियां याद हो आईंः
हम भी काश कुंवारे होते,
डाडर के पत्तों में हम भी
काफल लूंण मिला कर खाते!
तभी, शेखर ने अपने खास अंदाज में कहा, “अच्छा, सभी साथी पास आ जाएं और कान लगा कर सुनें. जरूरी बात है. यहां हम खाली नहीं रुके. यहां रुकने का खास मतलब है. जिस जंगल में हम खड़े हैं, सच कहें तो चिपको आंदोलन की शुरुआत यहीं से हुई. चिपको का बीज यहीं पड़ा. 1973 में वन विभाग ने इलाहाबाद की साइमन कंपनी को टेनिस के रैकेट बनाने के लिए इसी जंगल के 300 ‘अंगार’ (अंगू) के पेड़ काटने का ठेका दिया था. तब 24 अप्रैल 1973 को यहीं मंडल गांव के निवासियों और दशौली ग्राम स्वराज संघ के सदस्यों ने ढोल-नगारे बजा कर और नारे लगा कर पेड़ काटने का विरोध किया था. भारी विरोध के कारण पेड़ काटने वाले आदमी भाग गए.”
“लेकिन, लोगों की आंखों में धूल झौंक कर गोपेश्वर से करीब 80 किलोमीटर दूर फाटा के जंगल में और भी ज्यादा पेड़ काटने का ठेका दे दिया गया. वहां भी जम कर विरोध हुआ. फाटा और तरसाली के निवासियों ने जंगल में पहरा देना शुरु कर दिया. पेड़ काटने वाले वहां से भी भगा दिए गए.”
“हद तो तब हो गई जब सरकार ने जनवरी 1974 में रैंणी गांव के जंगल में 2500 पेड़ों को काटने का ठेका दे दिया. जिन चंडीप्रसाद भट्ट जी के साथ हम पिछले दो दिनों से थे, उन्होंने गांवों में जाकर लोगों को इस बारे में बताया. लोगों से कहा, पेड़ों को अंग्वाल बांध कर बचाएं. उन्हें काटने न दें.…और, आप में से कई साथियों को याद होगा, 26 मार्च 1974 को जब गांव के सभी पुरुष मुहावजे के बहाने से गोपेश्वर बुला लिए गए तो ठेकेदार के आदमी पेड़ काटने रैंणी पहुंच गए. तब गौरा दीदी गांव की 27 महिलाओं को लेकर जंगल में गई. उन्होंने पेड़ नहीं कटने दिए. रात में भी पहरा दिया. अगले दिन गांव के पुरुष भी आ गए. वही आंदोलन ‘चिपको आंदोलन’ बन कर इतिहास में दर्ज हो गया. ठीक छू? तो आब हिटा. बैठिए अपनी-अपनी गाड़ी में.”
घने जंगल में अचानक काला कुत्ता देख कर मैं चौंक पड़ा. “कुत्ता? यहां? ”मुंह से निकला. तब तक पेड़ों के बीच से एक और कुत्ता निकल आया. फिर एक और, फिर एक और. चार कुत्ते और सभी काले रंग के. सोचा, शायद कोई जानवर मरा होगा. उसे खाने आ गए होंगे. मगर बस्ती? बस्ती-बसासत तो कोई है नहीं यहां. तब तक देखा, उनके गले में लोहे का कांटेदार पट्टा बंधा है. यानी, पालतू कुत्ते हैं. सड़क से नीचे नजर गई तो देखा ढलान पर तमाम भेड़ें चर रही हैं. अच्छा, तो भेड़ों की देखभाल करते हुए पहरा दे रहे हैं! भेड़ों के साथ गड़रिए भी होंगे.
मैंने कुत्तों के बारे में साथियों से कहा तो उनमें से किसी की आवाज आई, “भोटिए कुत्ते हैं. क्या मजाल कोई भेड़ इधर से उधर हो जाए. सभी भेड़ों को काबू में रखते हैं ये. ”
गाड़ियां आगे बढ़ चलीं. चोपता के रास्ते में चलते-चलते एक जगह पहाड़ की ओट से सामने आए तो अचानक हिमालय की सुंदर धवल चोटियों का दृश्य देख कर चकित रह गए. आगे की गाड़ी में से शेखर रुकने का इशारा कर रहा था. गाड़ियां रुकीं. बाहर निकले. शेखर ने हाथ से इशारा करके बताया, “दाहिनी ओर वे चौखंबा”की चोटियां हैं. और, बांई ओर “केदारनाथ की चोटियां”. हम लोगों ने उस अद्भुत दृश्य को अपने-अपने कैमरे में समेटा.
शेखर की आवाज फिर आई, “जिस-जिस को झाड़-पेशाब होना है, हो लो.” हम लोग झाड़ियों और पेड़ों की ओट में हो लिए.
रास्ते में एकाध जगह नीचे भेड़पालकों की छानी भी दिखाई दी. बाकी जंगल था, जंगल की हवा थी, चिड़ियों की चहचहाने की आवाजें थीं और कहीं-कहीं शाखों पर कूदते, हैरान होकर हमें देखते लंगूर थे. वे ऐसे देखते थे मानो हमसे पूछ रहे हों- यहां इस जंगल में क्या कर रहे हो?
जंगल के बीच से जाते-जाते अचानक सड़क के दोनों ओर चाय-पानी की दूकानें दिखाई देने लगीं. हम चोपता पहुंच चुके थे.
गोपेश्वर से खाली पेट चले थे. यहां तक कि रास्ते में कहीं चाय भी नहीं पी थी. केवल फेफड़े जम कर जंगल की ठंडी और आॅक्सीजन से भरपूर शुद्ध हवा का आनंद ले रहे थे. इसलिए उतरते ही साथियों ने छोले, आलू पराठे और चाय का आर्डर दिया. दूकान के आगे खड़े होकर चारों ओर नजर फिराई तो जंगल की हरियाली ने मन मोह लिया. हम लोग वनविद् मेहता जी से पेड़ों के नाम पूछने लगे. तुंगनाथ शिखर की ओर ऊपर जहां तक नजर जाती थी, शान से खड़े हरे-भरे पेड़ ही पेड़ दिखाई देते थे. कभी-कभी हवा के झौंकों से बांज के पेड़ों की पत्तियां उलटतीं तो अपनी सफेद उजास दिखा देतीं. वहां बांज, बुरांश, खर्सू, रागा, कांचुला और मोरु आदि के पेड़ थे. बाकी पेड़ तो ठीक लेकिन यह मोरु क्या है? मेहता जी से पूछा. बोले,“बांज के ही वंश का पेड़ है. आप तो वनस्पति विज्ञान के छात्र रहे हैं. आपको पता होगा, बांज के वंश में हमारे यहां पांच प्रजातियां हैं- बांज, रयांज, खर्सू, मोरू और फणियाट जिसे यहां हरिंज कहते हैं.”
“तो तिलोंज कहां गया?”
उन्होंने मूंछों पर हाथ फेर कर मुस्कुराते हुए कहा,“वही, वही तो है मोरू. अल्मोड़ा, नैनीताल की तरफ इसे तिलोंज कहते हैं.”
मेहता जी ने यह भी बताया कि यहां कोटोनिएस्टर के पेड़ भी होते हैं. ये रवैंश कहलाते हैं. इसके अलावा यहां के जंगलों में कांचुला यानी एसर, अंयार आदि तमाम प्रजातियों के पेड़ हैं. कांचुला को अंग्रेजी में मेपल कहते हैं.
पहाड़ की चोटी से आकर दूकान के आगे फैली हुई गुनगुनी धूप में मेज के चारों ओर दूकानदार ने कुर्सियां लगा दीं. झोपड़ीनुमा दूकान की दीवाल पर डबलरोटी, बिस्किटों के पैकेटों के साथ ही लौकी, करेला, खीरा, बैंगन आदि भी सजाए हुए थे. पराठे बनने शुरु हो गए. तवे पर उनका सफेद धुवां उठ कर हमारे आसपास उड़ने लगा. प्रकाश इस बात का ध्यान रख रहे थे कि पराठे बनाने वाला पराठे रिफाइंड तेल में नहीं, घी या मक्खन में बनाए. कुछ साथियों ने हिदायत दी- “हमें बिना घी का सामान्य पराठा चाहिए.”
जब तक पराठे आते, हम लोग धूप का आनंद लेने लगे. गुनगुनी धूप में दुष्यंत कुमार की पंक्ति याद आईं-‘‘कहीं धूप की चादर बिछा कर बैठ गए!’
तभी किसी ने कहा,“यहां का फोटो तो ले लो.”
हम लोगों ने कुर्सियों के आसपास सिमट कर फोटो खिंचवाया.
राजू की आवाज आई,“मेरा फोटो आया? मेहता जी की मूंछों से ढक तो नहीं गया?”
“नहीं ढका. साफ फोटो आया है.”
असल में वनविद् मेहता जी की कड़क मूंछें पहली बार देख कर लगता था- मूंछें हों तो मेहता जी जैसी! उनके फौजी होने का भ्रम होता था. लेकिन, बात करने पर उनमें फौजी कड़कपन के बजाय सहज आत्मीयता दिखाई दी. इसीलिए उम्र के अंतर के बावजूद सभी साथियों के साथ उनके यारी-दोस्ती के संबंध बन गए थे.
तभी किसी ने पूछ लिया, “मेहता जी आपकी उम्र कितनी है? ”
“78 वर्ष”
“लेकिन, लगता तो नहीं. आप तो हम लोगों में सबसे युवा लग रहे हैं.”
मेहता जी हंस दिए. मुझसे कहने लगे, “आप जब नैनीताल में पढ़ रहे थे, तब मैं सेंट्रल होटल की ऊपरी मंजिल के एक कमरे में वन विभाग के आंकड़ों पर काम कर रहा था. आप लोगों ने कोई क्रैंक्स एसोसिएशन बनाई थी.” मैं इतनी पुरानी बात सुन कर हैरान रह गया.
पराठों की पहली खेप आई तो वे गोविंद राजू, शेखर, शांतचित्त समीर और मेरे सामने परोस दिए गए. मेरे मस्तिष्क ने धीरे से आंतों से पूछा- क्यों चलेगा क्या? दिक्कत तो नहीं होगी? पेट भूख से कुनमुनाया.
शेखर की आवाज आई,“साथियों, तुंगनाथ तक फिर कुछ नहीं मिलेगा. इसलिए सभी लोग इसे नाश्ता और दोपहर का भोजन समझ कर खाएं. रास्ते में मत कहना कि भूख लग गई.”
मेरा मस्तिष्क और आंतें चुप. पेट फिर कुनमुनाया-“एक तो ले लो. भूख लगी है! ”
मस्तिष्क ने कहा, “चुप दिल्ली से श्रीनगर तक तो तीन टोस्ट, तीन चाय में आ गया था.”
पेट ने कहा, “एक ही बात है. एक पराठा उसी के बराबर तो होगा.”
बहरहाल, चह बातचीत मेरे अलावा किसी और को नहीं सुनाई दी. मैंने फटाफट जायकेदार छोलों के साथ पराठे का आनंद लिया. दूसरी खेप आई. रहा नहीं गया, एक पराठा और ले लिया. हिसाब लगाया, तीन-चार किमी. की खड़ी चढ़ाई चढ़ने और उतरने में इतनी जरूरत तो पड़ेगी ही. लेकिन, बाकी हिम्मत नहीं की.
शेखर की फिर आवाज आई, “मन हो तो आप लोग यहां दिशा- शौच भी जा सकते हैं. चोपता का पानी इतना ठंडा है कि कहते हैं यहां का पानी शौचने से रोग का इलाज भी हो जाता है! ”
हम लोग हंस पड़े.
दूकान के आगे भारी-भरकम भोटिया कुत्ता लेटा था जो कभी एक और कभी दोनों आंखें खोल कर हमारी ओर देख लेता था. डर लग रहा था कि खाने के बाद अचानक खड़ा होकर पूछने न लगे- “खा लिया? क्यों मेरा हिस्सा कहां है? ”
किसी ने बिस्किट दिखा कर हवा में हाथ उठाया. वह उछला. दो-तीन बार उछल कर फिर लेट गया. मेरी नजर उसके गले में बंधे तेज कांटों वाले लोहे के पट्टे पर पड़ी. रास्ते में जो कुत्ते देखे थे, उनके गले में भी ठीक ऐसे ही पट्टे पड़े हुए थे. माजरा समझ में आ गया. पहाड़ों में तेंदुए कुत्तों और बकरियों का बहुत शिकार करते हैं. तेंदुवा कुत्ते की गर्दन पर झपटता है और उसमें दांत गड़ा कर उसे मार देता है. लोहे के इस कांटेदार पट्टे से कुत्ता बच जाता होगा. यह छोटा-सा आविष्कार किसके दिमाग की उपज होगा?
भोटिया कुत्ते से दस-बारह कदम दूर एक बकरा बंधा था जो बीच-बीच में मिमिया रहा था- में.. में… उसे वहां क्यों बांधा गया था पता नहीं. उसकी क्वेंरी आंखों में नहीं देख पाया.
(जारी)
देवेंद्र मेवाड़ी
लोकप्रिय विज्ञान की दर्ज़नों किताबें लिख चुके देवेन मेवाड़ी देश के वरिष्ठतम विज्ञान लेखकों में गिने जाते हैं. अनेक राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित देवेन मेवाड़ी मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी हैं और ‘मेरी यादों का पहाड़’ शीर्षक उनकी आत्मकथात्मक रचना हाल के वर्षों में बहुत लोकप्रिय रही है.
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