कह तो शेखर ने कोटद्वार, गढ़वाल में ही दिया था कि अगली बार चमोली जिले में नागनाथ-पोखरी पहुंचना है, वहां से गोपेश्वर और फिर तुंगनाथ जाएंगे. लेकिन, अप्रैल तीसरे सप्ताह में ‘8 मई को नागनाथ-पोखरी में मिलें’ एस एम एस मिलते ही हम हरकत में आ गए.
इसी बीच 24 अप्रैल को नेट में पहाड़ रजत समारोह-7 के विस्तृत कार्यक्रम की पांच-पेजी सूचना आ गई. देख कर दिल खुश हो गया. सूचना कुछ इस थीः ‘8 मई को प्रथम सत्र में प्रातः 7 से 9 बजे के बीच 32 इंटर कालेजों में 45 अतिथि वक्ताओं ने भाषण देने हैं. फिर नागनाथ-पोखरी की ओर कूच करना है. दूसरे सत्र में राजकीय इंटर कालेज नागनाथ-पोखरी में उत्तराखंड के सूचना आयुक्त डॉ. आर. एस. टोलिया की अध्यक्षता में उस क्षेत्र की चार विभूतियों की पुस्तकों का विमोचन, सत्र-3 में वहीं सांस्कृतिक प्रस्तुतियां, लोकगीत गायन, अरविंद मुदगिल की फिल्म ‘रम्माण’ और थ्रीस कपूर के 60 चित्रों का प्रदर्शन! फिर वहां से 93 कि.मी. दूर गोपेश्वर में सत्र-4 के तहत अंटार्कटिका, अमेज़न और तिब्बत के विशेष दृश्य व्याख्यान. सत्र-5 में 9 मई को अल्लसुबह पुलिस लाइन मैदान में विशेषज्ञों का बच्चों से संवाद, फिर सीमांत के सवालों पर श्री चंडी प्रसाद भट्ट की अध्यक्षता में संगोष्ठी. सत्र-7 में पहाड़ की 10 विभूतियों का सार्वजनिक सम्मान, सत्र-8 में सांस्कृतिक संध्या, लोकगीत गायन, कवि गोष्ठी, अरविंद मुदगिल की फिल्म ‘गमशाली का 15 अगस्त’ और अनूप साह के 60 चित्रों का स्लाइड शो. ‘अरे वाह! दो दिन में इतना कुछ? न सरकारी सहायता, न व्यावसायिक पूंजी? ‘पहाड़’ की यही तो खासियत है. केवल सदस्यता राशि और जन भागीदारी से संभव होता है यह सब.
हम कूच की तैयारी में जुट गए. पांचेक दिन के लिए खर्चा-पानी और लत्ते-कपड़े रखे. पता नहीं वहां क्या इंतजाम हो और ऐन मौके पर क्या इंतजाम करना पड़े. बहता पानी, रमता जोगी शेखर का क्या पता कहां धूनी रमाई हो और कहां रुकने-टिकने को कह दे? पहाड़ को समझने के लिए पहाड़ की जड़ों तक जाने की अलख तो उसने अपने सहपाठियों के साथ बी.ए. में पढ़ते समय सन् 1974 में ही जगा दी थी. तब वे युवा गांवों, खेत-खलिहानों, डान-कानों, बुग्यालों और ऊंचे शिखरों को अपने कदमों से नापते और सीधे-सादे गांव वालों के ‘कौन एम एल ए? हमारे यहां तो नहीं उगता’ जैसे जवाब सुनते हुए या बैलों की जगह हल-दंदोला खींचती-चलाती औरतों की जोड़ी को देखते हुए नेपाल की सीमा के पास अस्कोट गांव से 750 कि.मी. दूर हिमाचल प्रदेश के आराकोट गांव तक पहुंच गए थे. हमें ‘दिनमान’ के कवर पर पब्बर नदी में नहाते-धोते उन युवकों की तस्वीर देख कर रश्क होता था कि काश पहाड़ को समझने के लिए हम भी ऐसा कुछ कर पाते. जड़ों तक जाने का सपना देखने वाले उन जुनुनियों की जमात में साथी जुड़ते गए और कारवां बनता गया. फिर गैर सरकारी और सदस्यों के सहयोग से चलने वाली संस्था ‘पहाड़’ का जन्म हुआ. और, पहाड़ों को समझने के लिए इस फहराते निशान के तले अध्ययन यात्राओं और आयोजनों का सिलसिला शुरु हो गया….
ऐसा ही एक बृहद आयोजन था यह- ‘पहाड़’ रजत समारोह-सात. इससे पूर्व छह समारोह आयोजित हो चुके थे और उनमें शिरकत करने वालों ने करीब से पहाड़ों की धड़कनें सुनी थीं. हर आयोजन का अंदाज अलग था. इसलिए मन में यह जानने की कुलबुलाहट भी हो रही थी कि देखें समारोह-सात में क्या होता है.
चलने की योजना के बारे में नौकरी के काम से अत्यधिक चलायमान चंदन (डांगी) को एस एम एस किया, ‘‘नागनाथ-पोखरी कब, कैसे चलना है? कौन-कौन साथी चल रहे हैं?’’ जवाब तुरंत मिला, ‘‘दाज्यू, मुंबई में हूं. आकर बताऊंगा.’’ कमल से भी एस एम एस पर पूछा, ‘‘नागनाथ-पोखरी चल रहे हैं? कब?’’ उत्तर मिला, ‘‘अवश्य. चंदन आएंगे, बताएंगे.’’ यानी, तीन साथी तो हम हो ही गए. मुंबई से लौट कर चंदन ने सूचना दी, ‘‘आयोजन 8-9 मई को है. तिथियों की पुष्टि हो चुकी है. गाड़ी की व्यवस्था कर रहा हूं. तैयार रहना है.’’
गाड़ी बुक करने के बाद चंदन ने फिर फोन किया, ‘‘दाज्यू 7 मई को एकदम सुबह चलेंगे.’’
‘‘और कौन-कौन चल रहे हैं? ’’
‘‘आप, मैं और कमल, तीन मूर्ति भवन से प्रोफेसर प्रकाश (उपाध्याय) और डॉ.पी. आर्य, एन. डी. एम.सी. में डाक्टर हैं वे.’’
6 मई की शाम चंदन ने फाइनल सूचना दी, ‘‘गाड़ी सुबह तीन मूर्ति भवन के गेट पर पहुंच जाएगी. आप और प्रकाश सुबह साथ-साथ आ जाएंगे. आप लोगों ने डॉ.आर्य और जामिया के प्राफेसर बहुगुणा को भी लेना है.’’
प्रकाश का फोन मिला, ‘‘मैं रात को ‘रामू’ (प्रो. राम प्रसाद बहुगुणा) के पास रहूंगा. सुबह 3 बजे (या अल्लाह, आधी रात!) तैयार रहें. ठीक 4 बजे तीन मूर्ति भवन में गाड़ी आ जाएगी.’’
वे 3-15 बजे आए और हम प्रकाश की गाड़ी में तीन मूर्ति की ओर चल पड़े. रास्ते में मोतीबाग से डॉ. आर्य को भी साथ ले लिया. परिचय हुआ तो बोले, ‘‘ ‘आप मेरा गांव-मेरे लोग’ वाले मेवाड़ी जी हैं? ’’ ‘हां, कहा और खुशी हुई. प्रातः 4-10 पर गाड़ी तीनमूर्ति भवन गेट पर आ गई और हम लोग लाजपतनगर से चंदन व मयूर विहार से आई टी प्रमुख कमल को लेकर प्रातः 5 बजे कर्णप्रयाग के लिए कूच कर गए.
खतौली पहुंच कर साफ-सुथरे चीतल रेस्टोरेंट में हल्का नाश्ता किया. कमल ने अपने नए वीडियो कैमरे का उद्घाटन करते हुए शूटिंग शुरू की. साढ़े नौ बजे महाकुंभ में लाखों लोगों की भीड़ झेलने के बाद सुस्ताता, सांस लेता हरिद्वार दिखाई दिया. जिसे प्रकृति हल्की बारिश की बूंदों से नहला रही थी. दूर से गंगा के घाटों पर उस समय डूबकी लगाने वाले एक्का-दुक्का स्नानार्थी दिखाई दे रहे थे. गंगा भी दिखी जो महाकुंभ में लाखों लोगों के तन-मन का मैल धो कर अब शांत मन से अविरल बह रही थी.
हम भागती हुई गाड़ी से लक्ष्मण झूला पर उड़ती हुई नजर डाल कर मील के पत्थरों को पीछे छोड़ कर लगातार आगे बढ़ रहे थे. आठ-सीटर गाड़ी की जगह छह-सीटर गाड़ी आ जाने के कारण बीच-बीच में पीछे बैठे पांचों साथी कसमसा रहे थे. जिसे कमर का दर्द ज्यादा परेशान कर देता, वह आगे के पीछे की सीट में आ जाता. मुझे लंबे पैरों का लाभ मिला और सारथी के साथ आगे बैठा. मितभाषी सारथी संजय हिमाचल प्रदेश में मंडी से आगे रिवालसर के पास किसी गांव का निवासी और पहाड़ों की सर्पीली सड़कों पर सधी हुई ड्राइविंग में सिद्धहस्त था. उसके मितभाषी होने के कारण आगे बैठे हम दोनों चुपचाप चल रहे थे. मगर पीछे पांचों साथी बातों में मशगूल थे. बीच-बीच में जोक सुना कर हंस भी लेते.
ऋषिकेश से आगे बढ़े. बांयी ओर जंगल और पहाड़. दांहिनी ओर पेड़ों से नीचे छल-छल बहती गंगा. सड़क से कभी नदी का रेतीला-पथरीला तट दिखाई दे जाता, कभी बहती गंगा और कभी किनारे पर खड़े तमाम तंबू जिनमें आकर सैलानी आकर रूकते होंगे और बहती गंगा में राफ्टिंग करते होंगे. यदा-कदा हमारी गाड़ी के पास से कोई वैन या जीप निकल जाती जिसकी छत पर राफ्टिंग की हवा भरी बोट बंधी होती. तंबूओं के आसपास कुछ लोग वालीबाल खेलते हुए भी दिखाई दे जाते.
पीछे शायद किसी ने पानी भरी पानी की बोतल मांगी. किसी ने आग्राह किया- सुना है, प्लास्टिक की बोतलों में भरा पानी या पेय पीने से पौरूष पर खतरा मंडरा सकता है. किसी और ने कहा है- क्या करें पीना ही पड़ता है. पानी मिलता ही इनमें है. फ्रिज में भी तो प्लास्टिक की बोतले रखी जाती हैं.
गाड़ी तेजी से देवप्रयाग की ओर भागती जा रही है. वहां से श्रीनगर, रूदप्रयाग और फिर कर्णप्रयाग. देर शाम तक पहुंच ही जाएंगे. रात को सो लेंगे तो आराम मिल जाएगा. सुबह सात बजे इंटर कालेजों में व्याख्यान देना है इसलिए जल्दी उठना होगा. गाड़ी भागती जा रही है. पीछे किसी ने कहा है, ‘‘ बुड़ज्यू तो आगे चुपचाप बैठ कर बहुत बोर हो गए होंगे? ’’
‘‘ पता नहीं,’’ दूसरी आवाज.
‘‘अकेले बैठे बोर हो ही गए होंगे? ’’ पहली आवाज.
‘‘हो सकता है’’ तीसरी आवाज.
इसके अलावा सिर्फ गाड़ी के भागने की आवाज. मुझे लगा, हां, उम्र में तो सभी साथियों में सबसे बड़ा शायद में ही हूं.
ब्यासी आ गया है. यानी हम पेड़ों की छांव तले चलते-चलते ऋषिकेश से 33 कि.मी. आगे आ गए हैं. प्रकाश ने आवाज दी है, ‘‘संजय थक गए होगे. चाय पी लो.’’ एक और आवाज आई, ‘‘चाय पी ही ली जाए. पांच मिनट का रेस्ट मिल जाएगा.’’ हम सभी गाड़ी से उतरे. खड़ी बसों में से कई तीर्थयात्री और पर्यटक भी उतर कर दूकानों के पास खड़े थे. दूकानों में शीतल पेय की बोतलों की क्रेट भरे पड़े थे मगर चाय की दूकान नहीं मिली. कोई बात नहीं आगे कहीं तो मिलेगी.
मिली, छह किलोमीटर ओर आगे जाकर कौडियाला में मिली. वहां रूक कर चाय-चबैने का आर्डर दिया. रेस्टोरेंट के पीछे ठहरने-रूकने के लिए कुटियाएं भी बनी हुई थी. कमल और मैं सीढ़ियों से उतर कर लाॅन के किनारे तक गए. नीचे कल-कल, छल-छल गंगा बह रही थी. पीछे पहाड़ एक तिकोना पहाड़ तो लगा जैसे कहीं ओर से लाकर किसी ने गंगा के समतल तट पर रख दिया हो. आसपास ऊचे-ऊंचे पेड़ और लता-गुल्म थे. पेड़ों में पक्षी चहक रहे थे सुंदर दृश्य और खुशनुमा माहौल था. हम मेज पर चाय का इंतजार करने लगे. तभी, बगल में बैठे चंदन ने मुझसे पूछा, ‘‘ आप तो आगे बैठ कर अकेले बहुत बोर हो गए होंगे ?’’
‘‘नहीं, मैं बोर नहीं होता. अकेला होता हूं तो अपने आप से बातें कर लेता हूं.’’
‘‘मेरी भी ऐसी ही आदत है ,’’ सामने बैठे कमल ने कहा.
‘‘अकेले में बोर तो मैं भी नहीं होता, ’’ चंदन ने भी कहा. तब तक चाय आ गई. गरमा-गर्म चाय की चुस्की ले ही रहे थे कि देवप्रयाग की ओर से लौटी किसी गाड़ी के सारथी ने बताया कि देवप्रयाग से 10-12 कि.मी. पहले मलबा गिरने के कारण रास्ता बंद हो गया है. रात को बारिश हुई थी और मलबा हटाने वाली गाड़ी वहीं कीचड़ में धंस गई. क्रेन आएगी तो उसे निकालने की कोशिश करेगी. अब कौन जाने क्रेन कब आएगी. आएगी तो इसी ओर से आएगी लेकिन अब तक नहीं आई है.
क्या करें? हम सभी न वापस ऋषिकेश जाकर नरेंद्र नगर, चंबा होते हुए श्रीनगर जाने का निश्चय किया रास्ता लंबा जरूर था. लेकिन शाम तक श्रीनगर पहुंचा जा सकता था. लिहाजा, वापस लौटे. ऋषिकेश से पहले मुनि-की-रेती से लगभग 13 कि.मी. दूर नरेंद्र नगर की ओर रवाना हो गए.
नरेंद्र नगर से 10 कि.मी. पहले दूर तक फैली पर्वतमालाओं ने हमें गाड़ी से उतर कर फोटो खींचने के लिए मजबूर कर दिया. क्या खूबसूरत दृश्य था- पहाड़ों के पीछे पहाड़, फिर पहाड़. एक-दूसरे के फोटो खींच कर आगे चल पड़े. फकोट से होते हुए खाडी पहुंचे जहां सड़क किनारे नीली आभा बिखेरते जैकरेंडा यानी गुलमोहर के खूब खिले पेड़ों ने हमारा स्वागत किया. ब्राजील का मूल निवासी यह खूबसूरत पेड़ यहां हमारे पहाड़ों में अपनी स्वप्निल छटा बिखेर रहा है. यहां आया कहां से होगा यह? सोचते-देखते नागणी गांव आ गया. दोपहर बाद 4 बजे चंबा से पहले साबली गांव की सड़क से जा रहे थे कि देखा नीली गुलमोहर के पेड़ न केवल सड़कों के किनारे बल्कि गांव में घर-आंगनों की भी शोभा बढ़ा रहे हैं. लगता था, जैसे उन पेड़ों पर नीले बादल आकर टिक गए हों. उत्तराखंड की ये पर्वतमालाएं नीली गुलमोहर को खूब रास आ गई हैं. भर दो नीली गुलमोहर, हमारे घर-आंगन और खेत-खलिहानों में अपना नीला रंग भर दो. बुरांश के सूखे फूलों को देख कर लग रहा है, तुमसे कुछ समय पहले यहां के वन-प्रांतर में बुरांशों ने चटख लाल रंग भरा होगा.
और, लीजिए चंबा आ गया. चारों ओर सुंदर पहाड़ हैं. हमें श्रीनगर पहुंचना है, इसलिए तेजी से चले जा रहे हैं. नैल गांव से आगे निकले तो सहसा डूबे हुए टिहरी शहर के पास पहुंच गए. हमें पता भी नहीं था, देवप्रयाग का मार्ग बंद होने के कारण हम अचानक ही वहां पहुंच गए थे. गाड़ी सड़क पर छोड़ कर नीचे उतरे और कुछ दूर तक चल कर उस छोर पर पहुंच गए जहां से नीचे पहाड़ों के बीच यहां से वहां तक फैली टिहरी बांध की ठहरी हुई हरी-नीली जलराशि दिखाई दे रही थी. उसके नीचे टिहरी शहर डूबा हुआ था. उस शहर के बाशिदों को ऊपर पहाड़ की चोटी की ओर नई टिहरी में कंक्रीट के मकानों में बसा दिया गया था. चोटी से भी नीचे आरपार फैला बांध का ठहरा जल दिखता होगा. रात के अंधेरे में चोटियों की ओर बसे गांवों की रोशनी के अक्ष पानी में उभरते होंगे और उसमें भी किसी बसाहट का भ्रम पैदा करते होंगे. कभी वहां पहाड़ों के बीच इस ओर से भागती-दौड़ती भिलंगना और उस ओर से खिलखिलाती भागीरथी आती थी. बांध की मोटी, मजबूत विशाल दीवार ने उनका रास्ता रोक दिया. गंगोत्री से आने वाली भागीरथी ही असली गंगा मानी जाती थी जो देवप्रयाग में अलकनंदा से मिल कर गंगा नदी को जन्म देती थी. लेकिन, अब तो वे बहती-खिलखिलाती पर्वत-पुत्रियां बांध के पानी में कैद हो गई हैं.
पश्चिम के आकाश में पहाड़ों की ओर उतर रहे सूरज की उदास रोशनी में हम छोर पर खड़े होकर बांध के ठहरे जल को काफी देर तक चुपचाप टकटकी बांध कर देखते रहे. कमल ने वीडियो कैमरे की आंख चारों ओर घुमाई. फिर स्टिल कैमरे से नई तस्वीरें उतारीं. हमारे उतरे चेहरों पर भी कैमरा साधा. मैंने और चंदन ने भी अपने-अपने अंदाज से तस्वीरें खींचीं.
प्रकाश ने उस पार पहाड़ों की ओर अंगुली से इशारा करते हुए कहा, ‘‘ हम वहां थे उस दिन, जब टिहरी शहर डूब रहा था.’’
‘‘ सुंदरलाल बहुगुणा जी की कुटिया कहां थी ,’’ मैंने पूछा.
‘‘शायद उस तरफ. वे बांध के विरोध में अनशन कर रहे थे,” रामू बोले.
मैं, कमल और डॉ. आर्य बांध को पहली बार देख रहे थे और काफी देर तक बांध के पानी के नीचे डूबे टिहरी शहर की कल्पना करते रहे. इंच-इंच चढ़ता पानी चारों ओर खड़े पहाड़ों पर कमर-कमर तक चढ़ गया होगा. आज उन पहाड़ों की कमर पर उसके निशान दिखाई दे रहे थे. वे निशान दिखाई दे रहे थे क्योंकि महाकुंभ में लाखों लोगों को गंगा का पावन जल देने के लिए पिछले दिनों टिहरी बांध से काफी पानी छोड़ा गया. निशान से ऊपर पहाड़ पर हरियाली थी मगर निशान से नीचे पानी में डूबने के कारण हरियाली मिट गई थी. वहां न घास थी, न झाड़ियां, न ऊंचे पेड़. आरपार जैसे कोई मटमैला कैनवस खिंचा हुआ था.
शाम के पांच बज रहे थे. कुछ देर पहले बारिश हो चुकी थी. पहाड़ों की चोटियों के आसपास कहीं-कहीं कोहरा जम गया था जिसे देखकर लगता था, जैसे बांध में डूबे शहर ने निःश्वास छोड़ा हो और उसकी नमी जम कर चोटियों पर कोहरा बन गई हो. बांध की रोक के निकट टापू की तरह उभरे कुछ खंडहरों पर ढलते सूरज की तिरछी धूप पड़ रही थी. ‘कभी वह टिहरी के राजा का महल था,’ किसी साथी ने कहा. वह शायद ऊंची धार पर रहा होगा. ‘कौन जाने, महल था या आम लोगों के मकान. अब तो सिर्फ खंडहर रह गए हैं,’ किसी ओर साथी ने कहा. जो भी रहा हो, महाकुंभ के लिए पानी छोड़ने के कारण अब उसके खंडहर दिखाई दे रहे थे.
पानी घट जाने के कारण और भी बहुत-कुछ दिखाई दे रहा था.…
हम भागीरथीपुरम बस्ती और बाजार से होकर बांध की रोक के उस पार से चक्कर काट कर टिपरी गांव की ओर बढ़े. रास्ते में नई टिहरी तक पानी की सप्लाई करने वाला पंपिंग स्टेशन और बिजली पहुंचाने वाले हाई टेंशन तार दिखाई दिए. बांध की रोक से नीचे जहां कभी इठलाती भागीरथी बहती होगी, कपाट बंद होने के कारण वहां किसी सूख रहे गधेरे की तरह पानी की केवल हल्की लकीर-सी दिखाई दे रही थी. यही असली गंगा थी!
रास्ते भर हमारे बांई ओर दूर तक पहाड़ों के बीच बांध का ठहरा हुआ पानी दिखाई देता रहा. उस उदास माहौल में सड़क के किनारे किसी शाख पर गौरेया के बराबर दो छोटी, चटख काली-सफेद ग्रेट टिट यानी रामगंगरा चिड़ियां ह्वी-चिची…ह्वी-चिची की गाकर न जाने क्या कह रही थीं. वही आसपास कुछ पहाड़ी बुलबुलों और घुघुती-घुघुतों की नवाओं की सदाएं भी सुनाई दे रही थीं.
(जारी)
देवेंद्र मेवाड़ी
लोकप्रिय विज्ञान की दर्ज़नों किताबें लिख चुके देवेन मेवाड़ी देश के वरिष्ठतम विज्ञान लेखकों में गिने जाते हैं. अनेक राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित देवेन मेवाड़ी मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी हैं और ‘मेरी यादों का पहाड़’ शीर्षक उनकी आत्मकथात्मक रचना हाल के वर्षों में बहुत लोकप्रिय रही है.
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