पिछली कड़ी : समूचे दारमा गांव में महिलाओं को धर्मिक अनुष्ठानों में बराबर का अधिकार मिला हुआ है
किलोमीटर भर समतल बुग्याल के बाद उतार आया तो बेदांग से आ रही बलखाती बिदांग गाड़ के दीदार हुए. नदी में बने पुल को पार करने के बाद अब मीठी चढ़ाई आ गई. कुछ पल सुस्ताने के लिए बैठे ही थे कि मार्छा गांव में मिला घोड़ावाला अपने घोड़ों को बुग्याल में छोड़ अपने गांव को वापस लौटता मिल गया. एक पल के लिए यकीं ही नहीं हुआ कि वह इतनी जल्दी बुग्याल जाकर वापस आ सकता है. “यहां के लोग जीवट वाले हुए. इनके लिए तो एवरेस्ट भी जाना-आना खेल जैसा हुआ.” हंसते हुए हरदा बोले तो मैं भी मुस्करा दिया. वास्तव में हिमालय की गोद में बसे गांवों में रहने वाले बच्चे से लेकर बूढ़े तक काफी जीवट हुए.
(Darma Travelogue Keshav Bhatt)
घंटेभर बाद चढ़ाई चढ़ने के बाद बेदांग, गो गांव का रास्ता मिला. गो गांव से पहले नीचे धौलीगंगा तक उतार हुआ. पुल नया बना दिखा. पुल के पार एक दुकान वर्ष 2007 में जो थी वह अब गायब हो चुकी थी. पुल पार रास्ता दाहिनी ओर को बन गया था. बांई ओर का पुराना पैदल रास्ता उजाड़ सा दिखा. पुराने रास्ते से ही चलने की बात पर हामी भर ली गई. किलोमीटर भर तक ही चले थे कि रास्ता गायब हो गया. रास्ते के ऊपर बनी सड़क के मलबे ने इस पुराने रास्ते को मानो खा लिया ठैरा. वापस लौटने के वजाय इसी मलबे में ऊपर सड़क की ओर रॉक क्लाइबिंग करना शुरू कर दिया.
सड़क में पहुंच आगे देखा तो पुराना रास्ता पूरा ही गायब मिला. घुमावदार सड़क से पहले यह रास्ता आगे चढ़ाई में जाता था जहां जसुली दत्ताल की आदमकद मूर्ति है. सड़क छोड़कर एक बार फिर से पुराने रास्ते की खोज में क्लाइबिंग शुरू कर दी. इस पैदल रास्ते में पहले एक चट्टान पर लिखा था, “निराश ना हों आगे सुहावनी मंजिल मिलेगी.” अब वह चट्टान भी सड़क खा गई.
जसुली दत्ताल की आदमकद मूर्ति देख हरदा भी विस्मित हो वहीं बैठ गए. मूर्ति को साफ-सुथरा बनाकर उसमें कई तरह के चढ़ावे चढ़ाए गए थे. नीचे दातू गांव की ओर नजर पड़ी तो वहां उत्सव का माहौल दिखा. ढोल-दमाउ के साथ पूजा हो रही थी. बच्चे, महिलाएं, बड़े बुजुर्ग सभी शालीनता से नाचते हुए देवता की अराधना कर रहे थे. जब हम वहां पहुंचे तो एक बुजुर्ग बोले, “मेहमान आए हैं प्रसाद लाओ.” तुरंत ही कुछ महिलाओं ने हमें प्रसाद परोस दिया. गिलास में च्यक्ति और पत्तल में मीठी खीर. देवताओं का ये अदृभुद प्रसाद पाकर दिनभर की थकान मिट गई. दारमा में हिन्दू देवी देवताओं के अलावा लोगों के अपने देवता- गबला, स्यांगसाइ, भुसाड़, लमसाल और घण्टाकर्ण भी हैं जिनकी पूजा की जाती है. इनके धार्मिक गुरु या पुजारी पसुवा धामी, गनघरिया और ब्राह्यण होते हैं.
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दारमा में होने वाले मेलों में भगवान शिव और गणेश के स्थानीय रूपों की पूजा अर्चना की जाती है. गांव में होने वाले मेले में दूर-दराज बसे लोग भी सारे काम छोड़कर अपने गांव पहुंचते हैं. कई मेलेनुमा उत्सव पांच दिन तक चलते हैं, जिनमें कई तरह के धार्मिक अनुष्ठान भी होते हैं. दारमा घाटी के लोगों का लोक देवता ह्या गबला देव यानी महादेव हैं. ‘रं’ भाषा में भगवान शिव को ‘ह्या गबला देव’ कहा जाता है. इस दौरान इनका ही पूजन होता है. दारमा घाटी की तरह ही व्यास घाटी के बूंदी गांव में भी हर बारह वर्ष में ‘किर्जी भामौ विजयोत्सव’ मनाने की प्रथा है. दुश्मन का प्रतीक माने जाने वाले किर्जी पौंधे को बारह वर्षों बाद तिरंग बुग्याल में जाकर नष्ट किया जाता है. इस वनस्पति को नष्ट करने को विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है. किंवदंति है कि किसी जमाने में किर्जी वनस्पति से ही सारे उपचार किए जाते थे, लेकिन एक बार एक महिला के बारह वर्षीय पुत्र की इस वनस्पति से उपचार किये जाने के दौरान मौत हो गई. तब उस मां ने श्राप दिया कि बारह वर्ष में जब इस पेड़ में बारह टहनियां आएंगी तो इसे नष्ट कर दिया जाएगा और तब से ही यह परंपरा चली आ रही है. उत्सव की शुरूआत में ईष्ट देवता की पूजा होती है और वनस्पति को नष्ट करने के बाद सामूहिक भोज होता है.
दारमा घाटी के नागलिंग गांव में जन्मे करन सिंह नागन्याल बताते हैं कि दारमा, व्यास, चौंदास, जोहार घाटी में तो तिब्बत से जुड़े किस्सों की अनगिनत खाने हुईं. तिब्बत से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित होने के साथ ही वहां के निवासियों के साथ खान-पान का सम्बन्ध हो जाने से ये लोग भोटिया कहलाने लगे थे, जबकि इन्हें मारछा, तोलछा, जोहारी, शौका, दारमी, चौंदासी और व्यासी के नाम से बुलाना अच्छा लगने वाला हुआ.
1962 से पहले व्यास घाटी के व्यापारी लिपुलेख दर्रे से तकलाकोट, दारमा घाटी के व्यापारी न्यू धूरा से छाकरा, जोहार के ऊंटा धूरा दर्रे को पार कर ज्ञानिमा और नीति वाले बाड़ाहोती से दाबा, माणा के व्यापारी थोलिंक और निलंग के व्यापारी छपरांग के तिब्बती मण्डियों में पहुंचते थे और कई महीनों तक वहां व्यापार करते था. वर्ष 1959 में दलाई लामा के तिब्बत से भारत आ जाने के बाद से चीन से सम्बन्ध बिगड़ गए, उसके बाद वर्ष 1962 में चीनी आक्रमण के बाद तो व्यापार पूरी तरह से बंद ही हो गया. उस समय नमक और सुहागा तिब्बत का मुख्य उत्पाद होता था. उस जमाने में तिब्बत से कई बहुमूल्य वस्तुओं का भी व्यापार होता था, इनमें भेड़-बकरी, घोड़े, भारद्वाज घोड़े, च्यालपू, चंवर पूंछ, तिब्बती ऊन, तिब्बती कालीन, चमड़ा रांगा, तिब्बती नमक, मूंगा, हींग, लाल जड़ी और वनककड़ी जडी बूटियां हुआ करती थीं.
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आवागमन के समय बकरियों और याकों में सामान लादा जाता था. वे भी उस जमाने में जीवन का एक जरूरी अंग थे. पुरानी यादों को समेटते हुए उन्होंने बताया कि उस जमाने में भोटिया और तिब्बती जिन्हें हुणियां कहा जाता था, उन व्यापारियों के बीच मित्रता के साथ ही व्यापारिक सम्बन्ध पीढ़ी दर पीढ़ी चलते थे. इस मित्रता को ‘सरछू-मलछू’ का नाम दिया गया था. यह प्रथा बहुत की आत्मीयता भरी थी. इसमें भारत और तिब्बत के दोनों समुदायों के व्यापारी एक दूसरे की जूठी शराब पीते थे. इस शराब में सर (सोना), छू (पानी), तमपाल (चांदी) मिलाया जाता था. मित्रता गहरी हो इसके लिए साक्ष्य स्वरूप प्रमाण के तौर पर देव मूर्ति के साथ ही धार्मिक पुस्तकों को सिर पर रख मित्रता की प्रतिज्ञा ली जाती थी. इस प्रथा को ‘कुंडाधार प्रथा’ कहा जाता था.
जोहार, दारमा और व्यास घाटी के गांवों में कई बार जाना हुआ. यहां की खूबसूरत घाटियों के बारे में अकसर करन सिंह नागन्यालजी से भी ढेर सारी बातें होती रही. दारमा में त्यौहार के बारे में जब बातें हुवी तो वो अपने में डूब से गए. “गांव के मित्र ने जब ‘सौंग-पई-जन पून त्यार’ की बधाई दी तो अनायास बचपन आंखों के सामने चित्रपट की तरह हो आया. बचपन की यादें ताजा होती चली गईं. 1967 में ‘पून त्यार’ के दिन मां ने कहा , ‘शिमला फू’ मे त्यार खेलना बहुत कष्टदायी होता है. तब के वक्त में पांच साल से कम उम्र के बच्चे अपने घर आंगनों में ही ये त्यार खेलते थे. उस जमाने में पैदल चलने की दिक्कतों की वजह से बच्चों का ‘शिमला फू’ मे जाना मना था.
‘शिमला फू’ के त्यार में बड़े उम्र के बच्चे ही ‘लौलौं’ नामक जगह में पैदल जाकर इस त्यार को खेला करते थे. लौलौं जाते समय स्या मुदार तक की खड़ी चढ़ाई की वजह से छोटे बच्चों के लिए जाने पर पाबंदी थी. यदि साथ में ‘पू’ या ‘आता’ है तो लौलौं जा सकते थे. उस साल शिमला फू में त्यार खेलने के बाद सभी जल्दी घर आ गये थे. शाम को जब हम बच्चे चौथला मे खेल रहे थे तो लौलौं से थाली, तली, थालो बजाकर छलिया नृत्य गाकर कईयों को गीत गाते हुए आते देखा. गीत वही चिरपरिचित था, ‘वा-वा-वा-वा घूघुति घुराघुरा न्यौलि सुरा सुर.. बालमन मे बसी स्मृति मे केवल वही दृश्य आज भी दिखता रहता है. उसके बाद फिर 1968 में त्यार के समय सारा वक्त गुंजी मे बीता और बाद में 1970 मे धारचूला, 1970-71 में गलाती में और उसके बाद 1971-1972 में लखीमपुर पढ़ने चला गया था और 1980 तक वहीं रहा. आज उम्र के इस पढ़ाव में आज जब ‘शिमला फू’ की जगह को देखते हैं तो विश्वास ही नहीं होता है कि इतनी थोड़ी सी जगह मे तब बहुत सारे बच्चे कैसे खेला करते होंगे! स्यां त्यार से पहले मिनु त्यार की रात्रि गांव के बुजुर्ग, बा मिना कहते थे कि बच्चों रात मे इधर उधर घुमना नही चाहिए, रात्रि में यदि गांव में घुमोंगे तो स्यांका आयेगा. बड़े-बुजुर्ग स्यांका के बारे में कहा करते थे कि स्यांका कई शक्तियों वाला है और यदि रात्रि में उससे भेंट हो जाये तो कोई कितना ही साहसी हो उसके सामने अशक्त हो जाने वाला हुआ.
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मिनु त्यार की रात में स्यांका गांव में भ्रमण करते हैं. उसका पहनावा सिन सिले, रंगा तथा घोड़े मे सवार होकर चलता था और जिस व्यक्ति के ऊपर उसकी दृष्टि पड़ जाती थी वो दूसरे दिन जीवित नही रहता था. खांकसिंग सै के पास डब्बा भाई के घर के पास स्थित पाला मे स्थित घोड़ा नुमा पत्थर को स्यांका बताया जाता था. मिनु त्यार की रात में वह पत्थर घोड़े में बदल जाने वाला हुआ और रात भर गांव में घूमते रहता था. कहते हैं कि कई बुजुर्गों ने उसे देखा था. गांव में दुर्गा भाई के पिताजी स्वर्गीय हरसिंग काका ने उसे देखा था. उस वक्त में गांव के बुर्जुग भी इस किस्से को बड़े ही रोचक ढंग से बच्चों को सुनाया करते थे. स्यांग त्यार की रात्रि में उस स्यांका का जिक्र आज भी जब कभी होता है तो एक पल के लिए सिहरन सी हो उठती है.” सौंग मायने गांव, प्ई मायने भाई. उन्होंने बताया.
पुराने वक्त को याद कर उन्होंने बताया, “अब तो दारमा में सड़क पहुंच गई, लेकिन उस समय जब मात्र तवाघाट तक ही मोटर मार्ग था. तब शौकाओं का नागलिंग तक जाने मे सात दिन का पडा़व होता था. वोंगलिग के पास घास का बड़ा मैदान में झप्पू, गाय, बैल, भेड़, बकरियों के चरने की वजह से एक दिन ज्यादा लग जाता था. तब हम बच्चों में दारामा जाने का जो उत्साह रहता था वो आज तक याद आता है. प्रवास में जाने से पहली खुशी हम बच्चों के लिए नए कपड़े होती थी. जिन्हें पहन हम जेब मे हाथ डालकर गांव के प्रत्येक पट्टी मे बड़ों बुजुर्गो के सामने जब इठलाते तो उनसे मिले आशीर्वाद से प्रसन्न होकर इतराने मे जो आत्मिक खुशी मिलती थी. प्रवास (कुन्चा) की तैयारियां एक पूर्व मार्च से आरम्भ होता था. सबसे पहली तैयारी दर्जी से कपड़ा सिलवाने का काम होता था. हर घर मे तीन दिनों तक वो नए कपड़े सिलने का काम करते थे. उस दौरान उनकी मांग बहुत होती थी जिस वजह से मय परिवार के वो उसी घर में रहते थे ताकि दिन-रात काम कर सकें. उनकी मजदूरी में भोजन के साथ च्यक्ति भी शामिल होती थी. दर्जी जो डोली कहलाते थे वो सिलाई के साथ ही गायन और नृत्य में निपुण हुआ करते थे. दूसरी खुशी अपने मूल गांव दारमा पहुचकर वहाँ के जंगलों में अलमस्त हो अपने हम उम्र दोस्तों (हल्यो) के साथ लकड़ी काटने जाना और लकड़ी काटने के दोरान ग्लेशियरों की ताजा बर्फ मे घंटों तक फिसलने का खेल खेलना रहता था.”
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दातू गांव में प्रसाद ग्रहण करने के बाद महसूस हुआ कि पेट में भोजन रूपी कुछ ठोस पदार्थ डालना जरूरी है तो महेश दत्ताल की टिननुमा दुकान में चले गए. भोजन के नाम पर कुछ अंडे और मैगी का ही विकल्प मिला. उन्हें उदर में धकेल ही रहे थे तभी महेश भाई से पता चला कि अभी एक जीप धारचूला जाने वाली है. नीचे सड़क में आ जीप चालक से बात की. ‘सीट है.?’ के सवाल पर उसने डिक्की की ओर इशारा कर दिया. धारचूला पहुंचने तक अंधेरा घिर आया था. परिहार मासाप भी अपने समधी के वहां से वापस धारचूला लौट आए थे. हमने रात टीआरसी में बिताई और अगले दिन हरदा ने मुझे और परिहार मासाप को बागेश्वर छोड़ा और जल्द ही नए ट्रेक पर चलने का वादा कर दिल्ली को उड़ चले.
एक दिन सरिता सीपाल ने चहकते हुवे बताया, ‘दद्दा सीपू गांव में अपने पुराने टूटे घर को अब ठीक कर दिया है, फिर चलेंगे हां कभी सीपू गांव.’ अपने हिमालयी गांव के प्रति करन सिंह नागन्यालजी और सरिता सीपाल समेत तमाम उन घाटियों के वासिंदों का आत्मीयता से भरा यह प्यार हर किसी के लिए नजीर है.
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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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