चरवाहे लोकदेवता कलबिष्ट की शरण में
(एक लोक देवता के अंकुरण की पृष्ठभूमि)
-बटरोही
इतने सालों के बाद क्या उसका यह कायांतरण संभव था?
कलबिष्ट की इसी परंपरा के अंश के रूप में आज से चौहत्तर साल पहले मेरा जन्म हुआ था और उन कबीलाई मान्यताओं के बीच साँस लेते हुए ही आज मैं भारतीय मुख्यधारा का हिस्सा बन सका हूँ. हिमालय की तलहटी के सुदूर कोने पर एक भयभीत आदिवासी की तरह दुबका हुआ मेरा यह समाज यद्यपि आज पढ़-लिख कर आधुनिक होने का दावा करता है; संसार के कोने-कोने में फैले हुए अनेक शिक्षित और विचारशील लोगों ने मेरी ही तरह पीछे लौटकर अपनी जड़ों को तलाश करने की कोशिश की है, मगर आज के दिन यह संसार इतना अधिक उलझा हुआ ताना-बाना बन चुका है कि समझ में नहीं आता, कहाँ से शुरू करूँ और किस बिंदु पर आकर ठहरूँ!
इस आख्यान के नायक कलबिष्ट की जड़ें इसी कत्यूरी वंश से जुड़ी हुई थीं. वह असाधारण रूप से सुन्दर और बलिष्ठ एक यायावर पशुपालक युवक था. वह इतनी सुरीली बांसुरी बजाता था कि उसे सुनकर आदमी तो क्या, पशु-पक्षी और वनस्पतियाँ तक उन स्वर-लहरियों के जादू से खिंचे चले जाते थे. कलबिष्ट को आज भी कुमाऊँ के लोक जीवन में एक परोपकारी लोक-देवता के रूप में याद किया जाता है, उन तमाम लोक-देवताओं की तरह, जो जाति, धर्म, संप्रदाय, गरीब-अमीर आदि के बंधनों को तोड़कर एकता का सन्देश देते रहे हैं.
कलबिष्ट तो ‘ग्वल्ल’ (ग्वाला, चरवाहा) था, जो अपनी सदाशयता के कारण देवता बन गया… एक अभिशप्त देवता, मगर मेरी विडंबना यह थी कि मुझे ऐसे परिचय के साथ जोड़ दिया गया, जिसकी अपनी कोई पहचान ही नहीं बन पाई.
अपनी बांसुरी के उदास सुरों से समूची बिनसर पहाड़ी में नोमेड संगीत का जादू बिखेरने वाले उस ग्वाले में जाने क्या था ऐसा कि चंद राजा के दीवान, नौ लाख का राजस्व उगाहने वाले कुलीन ब्राह्मण सकराम पांडे की कलाप्रेमी पत्नी कमला को उसे देखे बिना चैन नहीं मिलता था और वह पूरे दिन उसे अपने सामने बैठाकर उसकी बांसुरी सुनती रहती.
नौ लाख के राजस्व के मालिक को भला यह कैसे मंजूर हो सकता था कि उसकी पत्नी उसके वैभव का तिरस्कार कर किसी ग्वाले को पागलों की तरह चाहने लगे. पता नहीं, यह कथा मिथक थी या यथार्थ, मगर मुझे अपनी स्मृति में यथार्थ से भी आगे लगती रही है.
…नौलखिया पांडे ने कलबिष्ट की हत्या करवाने का षड्यंत्र रचा. कितने ही तरीकों से उसे मारने के उपाय किये. मगर कलबिष्ट को तो अपनी सदाशयता का वरदान प्राप्त था. उसे कोई नहीं मार सकता था. नौलखिये ने अपने सलाहकारों और तांत्रिकों से रहस्य का पता लगाया, लेकिन कुछ भी पता नहीं लग पाया.
अथाह संपत्ति और रूपवती-कलावंती पत्नी का स्वामी होते हुए भी नौलखिया पंडित कलबिष्ट का बाल भी बांका नहीं कर पाया, जब कि सैकड़ों तालों में कैद कमला पंडिताइन कलबिष्ट के उदास, नोमेड संगीत से बिनसर पहाड़ी को हमेशा गुंजाए रखने वाली बांसुरी के सुरों को हर पल धड़कन की तरह अपने पास सहेजकर रखती. ऐसे में नौलखिया कलबिष्ट को कैसे मारता?
ज्यों ही वह कोई नई चाल चलता, उसकी पत्नी आड़े आ जाती. अंत में नौलखिया ने कलबिष्ट के प्राणों के रहस्य का पता लगाने के लिए उसके जीजा लछम सिंह देवड़ी का इस्तेमाल किया क्योंकि कलबिष्ट के प्राणों का रहस्य सिर्फ उसकी बहिन भाना ही जानती थी. भाना ने भावुकतावश अपने पति को भाई की मौत का रहस्य बता दिया कि कलबिष्ट के प्राण उस दुधारू भैंस के नवजात बच्चे के अन्दर कैद हैं, जिसे वह हर सुबह सबसे पहले दुहता है.
मल्ल देश की सारी दौलत का स्वामी, चंद राजाओं के कुल पुरोहित का वंशज सकराम पांडे एक मामूली ग्वाले के आगे भला कैसे हथियार डाल सकता था. उसने ‘पैक’ (मल्ल) खशियों की अपनी प्रजा को ललकारा. मल्ल देश के वीर खशिये असमंजस में पड़ गए. एक ओर सीधे-सादे लोगों की खून-पसीने की कमाई का लुटेरा नौलखिया, और दूसरी ओर जंगल का शांत-उदास संगीत सुनाकर उनके मवेशियों की रक्षा करने वाला ‘ग्वल्ल’ देवता, किसका पक्ष लेते खशिये?…
यह लड़ाई आज तक जारी है जो हमेशा एक उलझन-भरे अनिर्णय की हालत में आकर ठहर जाती रही है. अंततः जीत तो पैसे और कुटिलता की ही होती रही है, नौलखिया ने कलबिष्ट के जीजा को सामंत बनाने का लालच देकर रहस्य तो उगलवा लिया, मगर पहाड़ी समाज-व्यवस्था की रीढ़ उन औरतों का कैसा भाग्य है, जो भाई और प्रेमी के प्रति सम्पूर्ण समर्पण के बावजूद अंततः अकेली ही रह जाती रही हैं, भाई को भी गवां बैठी, पति के विश्वास को भी और प्रेमी को भी.
(बिनसर पहाड़ी के गैराड़ मोड़ पर आज भी जो कलबिष्ट का मंदिर स्थापित है, उसमें पुरोहितों के द्वारा जो स्पष्टीकरण दिया गया है, उसमें गाथा का नायक नौलखिया है, न कि कलबिष्ट. मंदिर के सामने जो शिलालेख (गाथा पट्टिका) रखा गया है, उसमें लिखा गया है कि कलबिष्ट किसी ग़लतफ़हमी के कारण उसके जीजा लछ्म सिंह देवडी के हाथों मारा गया था. आज भी उस स्थान पर कलबिष्ट के सिर कटे धड़ की पूजा होती है जिससे पुरोहितों की खूब कमाई होती है! मंदिर के संचालन के लिए जो समिति बनाई गयी है, उसमें दलितों समेत हर जाति के लोग शामिल हैं.)
डाना गैराड़ के कलबिष्ट देवता की जागर सुनिए
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री में नियमित कॉलम.
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