‘‘आज तक राजा ने हमको पढ़ने-लिखने का अवसर नहीं दिया जिससे हम बायां अंगूठा लगाने को मजबूऱ हैं, लेकिन अब अगर राजा के कर्मचारी ‘कर’ आदि वसूलने आयें तो हमें उन्हें अपना दायां अंगूठा दिखाना चाहिए और हम दिखायेंगे भी.’’
(प्रजामंडल के टिहरी सम्मेलन (25-27 मई, 1947) में दादा दौलतराम ने अपने भाषण में उक्त वक्तव्य देकर राजशाही को खुली चुनौती दी थी.)
(Dada Daulatram)
टिहरी रियासत के विरुद्ध हुये निर्णायक आंदोलनों में 3 नाम प्रमुख रूप में सामने आते हैं. अमर शहीद श्रीदेव सुमन, दादा दौलतराम खुगशाल और नागेन्द्र सकलानी. श्रीदेव सुमन टिहरी रियासत के आत्याचारों के खिलाफ स्थानीय जनता की आवाज को देश के राष्ट्रीय फलक पर ले गए. उनकी शहादत ने टिहरी राजशाही के क्रूर चेहरे को देश-दुनिया में बे-नकाब किया. दादा दौलतराम ने रियासती किसानों में अपने मौलिक हक-हकूकों की रक्षा हेतु जन-जागृति लाकर उन्हें जन-संघर्षों की ओर प्रेरित किया तथा नागेन्द्र सकलानी ने टिहरी रियासत के खिलाफ जन-आक्रोश को जन-आन्दोलन का रूप देकर उसे एक परिपक्व राजनैतिक दिशा देने का काम किया.
दादा दौलतराम का जन्म मार्च, 1891 में टिहरी रियासत की अकरी पट्टी के पैन्यूला (दुगड्डा के निकट) गांव में हुआ था. इनके पिता माधवानंद खेती-किसानी के साथ ज्योतिष और पंडिताई का कार्य करते थे. माधवानंद खुगशाल पौड़ी गढ़वाल के चामी गांव के रुउली क्षेत्र से तकरीबन सन् 1880 के आस-पास कुटम्ब सहित पैन्यूला गांव में आकर बसे थे. दौलतराम अपने चाचा रतिराम से ज्योतिष, संस्कृत, हिंदी और गणित की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करके सन् 1910 में डाकतार विभाग, बरेली में लाइनमैन के पद पर भर्ती हो गए. सन् 1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने पर बिट्रिश सरकार के आदेश के तहत अन्य कर्मचारियों की तरह दौलतराम को भी सेना में शामिल होना पड़ा था. बसरा-बगदाद क्षेत्र (अफगानिस्तान) में 5 साल सैनिक सेवायें देने के बाद पुनः पूर्ववत लाइनमेन की नौकरी में दौलतराम वापस आ गए. ज्यादातर गढ़वाल-कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों में 36 साल नौकरी करने के बाद मार्च, 1946 में वे सेवा निवृत्त होकर अपने गांव पैन्यूला में आकर रहने लगे. 3 फरवरी, 1960 को अपने गांव पैन्यूला में 69 वर्ष की आयु में दादा दौलतराम खुगशाल का देहान्त हुआ.
सरकारी सेवा निवृत्ति के तुरंत बाद दौलतराम जन सेवा में सक्रिय हो गए. मार्च, 1946 में गांव आते ही अप्रैल माह से राजशाही द्वारा किसानों पर थोपे गए नवीन भूबंदोबस्त के खिलाफ उन्होने डांगचौरा से खुले आन्दोलन का बिगुल बजा दिया. इस आन्दोलन के बाद एक जुझारू किसान नेता के रूप में वे आम लोगों में लोकप्रिय हुए. अब दादा दौलतराम किसानों के दिन-प्रति दिन के बड़ते कष्टों के निवारण के लिए टिहरी रियासत के विरुद्ध प्रजामंडल द्वारा संचालित आन्दोलनों में अग्रणी भूमिका में रहने लगे. वे टिहरी राज्य प्रजामंडल के उप प्रधान पद पर भी रहे. आन्दोलनों में वे कई बार जेल गए और कठोर यातनाएं झेली.
दादा दौलतराम शरीर से हष्ट-पुष्ट, धैर्यवान और निडर व्यक्ति थे. उनमें लोगों की बात सुनने, उनको समझाने और संगठित करने की अदभुत प्रतिभा थी. कुशल नेतृत्व के प्रभावी गुणों के कारण वे जन-सामान्य में दादा (बड़ा भाई) के सम्मानित संबोधन से लोकप्रिय थे. यह उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि टिहरी रियासत के विरोध में आन्दोलनकारियों की ओर से सरकारी प्रतिनिधियों से वार्ता करने हेतु अक्सर दादा दौलतराम को मनोनीत किया जाता था. वर्तमान में डांगचौरा इन्टर कालेज और कीर्तिनगर-टिहरी मोटर मार्ग दादा दौलतराम के ही प्रयासों का परिणाम है.
(Dada Daulatram)
टिहरी रियासत के विरुद्ध हुए स्वतः स्फूर्त आन्दोलनों की तह में ग्रामीणों की परम्परागत भूमि और वन व्यवस्था में राजशाही द्वारा अनावश्यक हस्तक्षेप प्रमुख कारक रहे थे. रवांई का तिलाड़ी विद्रोह (30 मई, 1930) जहां लोगों के तीव्र गुस्से का द्योतक था, वहीं राजशाही के खौफनाक चेहरे का भी सबूत था. तिलाड़ी का तिलिस्म कई वर्षों तक रियासते जनता को भयभीत करता रहा. परन्तु जनता में सत्ता के भय की भ्रांति समय आने पर टूटती जरूर है. फिर चाहे प्रारम्भ में सत्ता के पोषण में ही वह फलीभूत होने की कोशिश करता रहा हो. इसी ऐतिहासिक सत्य को साकार करने हेतु 23 जनवरी, 1939 को देहरादून में ‘टिहरी राज्य प्रजामण्डल’ की स्थापना हुई थी. जिसका उद्वेश्य महाराजा की छत्रछाया में लोक कल्याणकारी और उत्तरदाई शासन को स्थापित करवाना था. परन्तु राज सत्ता ने प्रजामंडल को वर्षों तक मान्यता नहीं दी. फलतः रियासत में प्रजामंडल के कार्यो को गैरकानूनी माना जाता रहा. श्रीदेव सुमन ने टिहरी राजशाही के इस अन्याय के विरुद्ध लम्बी लड़ाई लड़ी. 25 जुलाई, 1944 को टिहरी कारागार में 84 दिन की भूख हड़ताल के बाद श्रीदेव सुमन ने अपनी शहादत दे दी थी. सुमन की शहादत के पश्चात जनता में राजा का खौफ और उसके प्रति आक्रोश दोनों बढ़ने लगा.
टिहरी रियासत देश की अन्य रियासतों की तरह जनता की कीमत पर अंग्रेज सरकार के प्रति वफादारी दिखाने का कोई अवसर नहीं गवांती थी. टिहरी रियासत के प्रथम राजा सुदर्शन शाह से लेकर आखिरी राजा मानवेन्द्र शाह तक इस परम्परा को बखूबी निभाया गया. इसी के तहत द्वितीय विश्व युद्व में बिट्रिश सरकार को बढ़-चढ़ कर मदद करने की मंशा से राजशाही ने अपनी आय बढ़ाने के लिए भूमि बंदोबस्त कानून को संशोधित कर दिया था.
मुकाबला (नई कृषि भूमि को अपने नाम कराने में किसानों द्वारा राजस्व अधिकारियों को दिया गया नजराना), बरा (राजकर्मचारियों के लिए मुफ्त राशन), बेगार (अनिवार्य श्रम) भू लगान आदि में बेतहाशा बृद्धि कर दी गई थी. रियासत के किसान इस अमानवीय व्यवस्था से गुस्से में थे, परन्तु खुले आम इसका इज़हार नहीं कर पा रहे थे. आखिर इस आक्रोश की बुलंद आवाज के सूत्रधार बने डांगचौरा-कडाकोट क्षेत्र के किसान.
दादा दौलतराम के सभापतित्व में 21 अप्रैल, 1946 को डांगचौरा में आयोजित किसानों की सभा में यह ऐलान किया गया कि वे ‘मुकाबले’ में उपस्थित नहीं होंगे. कड़ाकोट, डागर, अकरी, बारजूला, डांगचौरा की जनता ने संगठित होकर राजकर्मचारियों को भूमि बंदोबस्त करने से रोक दिया था. पुलिस ने दादा दौलतराम को डराया-धमकाया और एक रात जेल में बंद भी किया. परन्तु इससे किसानों का आन्दोलन और भी उग्र होने लगा. विवश होकर राजा को किसानों के प्रतिनिधि मंडल को वार्ता के लिए नरेन्द्रनगर बुलाना पड़ा.
दादा दौलतराम के नेतृत्व में डांगचौरा से 21 जून, 1946 को तिरंगे झंडे को हाथों में लहराते हुए ‘श्रीदेव सुमन अमर रहे’ नारों के साथ किसानों का प्रतिनिधि मंडल नरेन्द्रनगर रवाना हुआ. जिन भी गांवों से डांगचौरा के किसानों का यह प्रतिनिधि मंडल गुजरता लोग उनकी आव-भगत करते. टिहरी होते हुए 24 जून, 1946 को नरेन्द्रनगर में पहुंचते ही जनता के बीच दादा दौलतराम ने कहा कि ‘’हम किसानों के हितों के लिए लड़ रहे हैं यदि आप भी किसान के बेटे हैं तो हमारा साथ दीजिए. राजशाही को चेतावनी देते हुए उन्होने ऐलान किया कि आप गोली चलाने के लिए स्वतंत्र हैं और हम गोली खाने को तैयार हैं.”
(जनयुग, 27 जून, 1946)
डांगचौरा-कड़ाकोट के किसानों की राजा और उसके प्रतिनिधियों से वार्ता असफल साबित हुई. अतः अपने गांव-इलाके में जाकर पुनः इस आंदोलन को व्यापक स्तर पर चलाने का किसानों ने निर्णय लिया. वापस आते हुए 26 जून, 1946 को देवप्रयाग में हुई सभा में दादा दौलतराम ने कहा कि ‘‘मैं स्वयं को उस दिन सफल समझूगां जिस दिन टिहरी की गरीब व मूक जनता के दुःख-दर्द मिटा सकूंगा या टिहरी के जेल में शहीद श्रीदेव सुमन की तरह प्राणों की आहूति दे दूंगा.’’
(मुरलीधर शास्त्रीः टिहरी की अहिंसक जनक्रांति)
अब राजशाही को डर लगने लगा कि यदि दादा दौलतराम और उनके साथियों को जनता के बीच स्वतंत्र रहने दिया जायेगा तो संपूर्ण राज्य में किसान आंदोलन और भी तीव्र गति से भड़क सकता है. अतः बहुत चालाकी से राज्य पुलिस ने 21 जुलाई, 1946 को प्रमुख किसान नेताओं यथा- दादा दौलतराम, भूदेव लखेड़ा, नागेन्द्र उनियाल, इन्द्रसिंह और टीकाराम को गिरफ्तार कर लिया.
(Dada Daulatram)
आम जनता में राजशाही का खौफ बना रहे इसके लिए दादा दौलतराम को टिहरी नगर में हथकड़ी पहनाकर कई बार घुमाया गया. जेल में इन नेताओं को अमानवीय यातनायें दी गई. अपनी आवाज को राजसत्ता तक पहुंचाने के लिए दादा दौलतराम और उनके साथी जेल में 13-22 सितम्बर, 1946 तक भूख हड़ताल पर भी रहे. परन्तु स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आया. तंग आकर 18 फरवरी, 1947 को दादा दौलतराम और उनके साथियों ने आमरण अनशन शुरू कर दिया. यह खबर व्यापक स्तर पर प्रसारित और प्रकाशित हुई. मजबूरन, जन-दबाव में राजशाही को 21 फरवरी, 1947 को सभी किसान नेताओं को बिना शर्त रिहा करना पड़ा.
(Dada Daulatram)
डांगचौरा का किसान आन्दोलन राजशाही से अपनी मांगों को तो नहीं मनवा सका. परन्तु आम-जन को यह सबक अवश्य दे गया कि जन-संघर्ष की राह ही क्रूर राजसत्ता से मुक्ति दिला सकता है. दादा दौलतराम और नागेन्द्र सकलानी साम्यवादी विचारधारा के ज्यादा नजदीक थे जबकि प्रजामंडल के ज्यादातर सदस्य कांग्रेस के अनुयायी थे. इस कारण प्रजामंडल का सक्रिय समर्थन डांगचौरा के किसान आन्दोलन को नहीं मिल पाया. प्रजामंडल ने अपने को इस आंदोलन से दूरी ही बनाई रखी. परन्तु इस आन्दोलन के दबाव में राजा ने जनता के रोष को रोकने के लिए दिखावे में ही सही उत्तरदाई शासन नीति अपनाने का प्रचार किया. ‘टिहरी राज्य प्रजामंडल’ को 21 अगस्त, 1946 को मान्यता देना इस तथ्य की पुष्टि करता है.
डांगचौरा आन्दोलन ने दादा दौलतराम को टिहरी रियासत में एक प्रमुख किसान नेता की पहचान दिलाई. इसी का प्रभाव था कि प्रजामंडल के टिहरी सम्मेलन (25-27 मई, 1947) में दादा दौलतराम सर्वसम्मत्ति से उप प्रधान मनोनीत हुए. उनकी सक्रियता नागेन्द्र सकलानी के साथ सन् 1947-48 के सकलाना आन्दोलन में भी रही. इसी दौरान 23 अगस्त, 1947 को एक पर्चे में दादा दौलतराम ने मांग कि ‘‘पूरा हिन्दुस्तान आजाद होना चाहिए…देश की जनता को चाहिए कि वह गुलाम हिस्सों की आजादी के लिए अपनी पूर्ण शक्तियां लगा दें.’’
(कर्मभूमि, 1 अक्टूबर, 1947)
टिहरी राजशाही ने सकलाना आन्दोलन में दादा दौलतराम के भागेदार होने कारण उन पर 3200 रुपये का जुर्माना लगाया गया. इस धनराशि को वसूल करने के लिए उनके घर से जेवरात और कीमती सामान जबरन राज कर्मचारी ले गये थे.
(Dada Daulatram)
टिहरी रियासत के विरुद्ध कीर्तिनगर में हुए निर्णायक आन्दोलन में दादा दौलतराम खुगशाल अहम और अग्रणी भूमिका में थे. अपनी उग्रता के चरम पर पहुंचे आन्दोलनकारियों ने 31 दिसंबर, 1947 को कीर्तिनगर थाने और अदालत पर कब्जा कर दिया था और जनता द्वारा संचालित ‘आजाद पंचायत’ का शासन घोषित कर दिया. लेकिन राज्य के अन्य क्षेत्रों से आई पुलिस ने भारी सुरक्षा बल का सहारा लेकर 2 जनवरी, 1948 को पहले की स्थिति बहाल करते हुए दादा दौलतराम और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया. कड़ाकोट, डांगचौरा, खास पट्टी, बमुण्ड, बडियारगढ़, भरदार, सकलाना की जनता ने संगठित उग्र रोष के बलबूते पर 10 जनवरी को कीर्तिनगर थाना और अदालत पर पुनः कब्जा कर लिया. दादा दौलतराम ने राज्य कर्मचारियों को समझाया कि वे आत्मसमर्पण कर दें परन्तु स्थिति अंत में बहुत संघर्षपूर्ण हो गई. इसका दुखःदाई पक्ष यह रहा कि 11 जनवरी, 1948 को नागेन्द्र सकलानी और भोलू भरदारी पुलिस की गोली से शहीद हो गए. दादा दौलतराम, त्रेपनसिंह नेगी और वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली ने आगे की स्थिति को अराजक होने से बचाया.
यह महत्वपूर्ण है कि 15 जनवरी, 1948 को जब टिहरी रियासत में राजा का राज्य खत्म हुआ तो टिहरी कोषागार की सुरक्षा की प्रमुख जिम्मेदारी दादा दौलतराम को दी गई थी. साथ ही 16 जनवरी से 15 फरवरी, 1948 तक टिहरी रियासत में भारत सरकार के प्रतिनिधि (एसडीओ) ने दादा दौलतराम खुगशाल के प्रधानमंत्रित्व में गठित परामर्श मंडल के मार्गदर्शन में ही कार्य किया था. तत्पश्चात 15 फरवरी, 1948 से 31 जुलाई, 1949 तक प्रजामण्डल सरकार ने कार्य किया 1 अगस्त, 1949 को टिहरी रियासत का उत्तरप्रदेश राज्य में विलीनीकरण कर उसे टिहरी गढ़वाल जनपद बनाया गया.
(Dada Daulatram)
श्रीदेव सुमन, दादा दौलतराम खुगशाल, नागेन्द्र सकलानी जैसे अनेकों प्रराक्रमी और सूझबूझ के धनी व्यक्तित्वों की बदौलत टिहरी राजशाही की इतिश्री हुई. परन्तु नवीन आवरण में आज भी राजशाही हमारा राजनैतिक प्रतिनिधित्व कर रही है. राजनैतिक दल कोई भी हो उसकी उपस्थिति हर जगह बरकरार है. देश के अन्य हिस्सों में भी यही स्थिति है. आज भी जनता के प्रति राजशाही का ‘मानस’ नहीं बदला है और हमारा उनके प्रति ‘आचरण’.
संदर्भ साहित्य-
1. मध्य हिमालय की रियासत में ग्रामीण जनसंघर्षों का इतिहास- डाॅ. राधेश्याम बिजल्वाण ‘रवांल्टा’ बिजल्वाण प्रकाशन, पुरोला, उत्तरकाशी, वर्ष-2003
2. रियासती षडयन्त्रों का इतिहास- बृज भूषण गैरोला, युगवाणी प्रकाशन, देहरादून, वर्ष-1999
3. स्वतः स्फूर्त ढंढकों से प्रजामंडल तक- गिरिधर पंडित, पहाड़ 3-4, पहाड़ प्रकाशन, नैनीताल, वर्ष-1989
(Dada Daulatram)
– डॉ. अरुण कुकसाल
वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.
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