आल्मोड़े में कुमाऊं मंडल विकास निगम के हाॅलिडे होम के ऊपर बसे काॅटेज वाले इलाके में दोपहर को एक गहरा सन्नाटा पसरा होता. घरों के सारे काम निपटाने के बाद सुस्ताती औरतों के साथ साथ आसपास के देवदार और चीड़ भी ऊंघते नज़र आते.
यह सन्नाटा टूटता शाम करीब साढ़े चार बजे जब बकौल आमां जय वीरू की जोड़ी काम से वापस आती. लगभग सठिया चुकी आमां हर बात की मिसाल देने को बाॅलीवुड में घुस जाती थी और उसे मनमाफिक मिसाल मिल भी जाती थी. (Cooking Story from Almora)
जय वीरू असल में रमेश माजिला और सुनील ‘चंद्रा’ की जोड़ी थी जो कि नीचे हाॅलिडे होम में स्वच्छकार, चौकीदार, पार्टटाइम कुक, रिसेप्शनिस्ट, मैनेज़र से लेकर निरीक्षण के समय मेहमान का भी रोल निभाते थे. (Cooking Story from Almora)
रमेश पास के बागेश्वर जिले के कांडा का रहने वाला था और सुनील रामनगर के पास के बैलपड़ाव का. दोनों हमउम्र, हमप्याला और हम निवाला थे. मुहल्ले में शुद्ध ‘अत्तर‘ का चलन रमेश की देन था तो चिकन गंदरायणी सुनील का आविष्कार. पहला जहां खालिस बदियाकोट का अत्तर लाने वाला हुआ तो दूसरा एक से एक उम्दा शिकार भात बनाने का उस्ताद. कभी कभी दोनों दबे पांव काॅटेज की तरफ आते तो रम के एकाध अध्धे पव्वे की मांग रखते. मांग पूरी हो जाने पर बाद में मेरे लिये ग्यारह नंबर के मांस का प्रस्ताव बाईं आंख को हल्का दबाकर रखा जाता. रमेश कुहनी से सतीश को चुप कराता, “साहब देसी है बल. कहां खायेगा”
उन दोनों की इस तरह की हरकतों से अधिक कौतूहल का विषय होता था “ग्यारह नंबर का मांस“.
सुनते हैं अल्मोड़ा की हरुली का भाई किसी जिले में बड़ा अफसर है
ग्यारह नंबर का मांस असल में जंगली सुअर के मांस के लिये प्रयोग किया जाने वाला कोडवर्ड था जो उन दिनों की पैदाइश था जब वन्य जीव अधिनियम के तहत जंगली सुअर का शिकार निषिद्ध था. हालांकि कोडवर्ड अपनी गोपनीयता नहीं रख सका. यह कोडवर्ड इतना अधिक प्रचलित हुआ कि सुअर के मांस के लिये सर्वग्राही पर्यायवाची बन गया. इतना सशक्त पर्यायवाची कि जो मूल शब्द को पीछे छोड़ गया.
हालांकि ”अत्तर“ से चरस को सीधे सीधे लिंक करने में अभी भी आसानी नहीं होती थी क्योेेंकि अत्तर, एक खास उपभोक्ता वर्ग, जो स्वयं को नशेड़ियों के मठाधीश समझते, के द्वारा प्रयोग होता. एक अभिजात्य किस्म का शब्द. तो वहीं ”ग्यारह नंबर का मांस“ आम आदमी का शब्द था जिसमें स्वाद, रूप, रस, गंध, भूख, कला, ज्ञान, विज्ञान से लेकर चरम संतुष्टि (लेंडी तर हो जाने का भाव) का भाव संन्निष्ठ रहता था. अत्तर भी कम नहीं था. कुल मिलाकर सुनील और रमेश माजिला एक दूसरे के पूरक थे. कमी थी तो बस अत्तर और ग्यारह नंबर के बीच का रास्ता निकालने वाले पेय पदार्थ की सो उसके इंतजाम के लिये हमें खोज लिया गया था. इस जुमले के साथ कि साहब मांस को पकाने से पहले अगर रम में मैरिनेट कर दिया जाये तो मजा दूना हो जाता है.
शाम को कैंपस में ग्यारह नंबर पकाया जाना था. रम का इंतजा़म मेरे हिस्से आया. कार्यक्रम की सदारत भी मुझे दी गयी क्योंकि सबको मेरे निरामिष होने का पता चल चुका था इसलिये किसी के हिस्से में कटौती का कोई ख़तरा कम से कम मेरी वजह से तो नहीं होना था.
काॅटेज एरिया में दो देवदार के पास ईंट पत्थर जोड़ जाड़ कर एक संरचना बनाई गयी जो काफी कुछ चूल्हे से मेल खाती थी. रमेश दौड़ के कहीं से बांज की लकडी़ का एक छोटा पूरा गट्ठर और कैरोसीन के तेल की शीशी उठा लाया. सतीश दूर एक कोने में एक बड़े थैले में से कुछ निकाल कर भगोने में डाल रहा था जिसमें पहले से ही खूब सारा पानी भरा था.
थोडी देर में सूखी बांज की लकडियों ने आग पकड़ ली और चूल्हे के अस्तित्व को धता बताते हुये आग की लपटें देवदार की टहनियों को छूने की कोशिश कर रहीं थीं.
बच्चे दौड़ दौड़ कर अपने अपने घरों से बर्तन ला रहे थे. कड़़ाही, कड़छी, तेल, मसाले, जीरा, हींग, सूखी धनियां, जम्बू, गंदरायणी, धुन, मुनस्यारी से लाई गई कुछ धूसर क़िस्म की पहाड़ी जड़ी बूटियां, पिसा प्याज, दही, नमक सब कुछ धीरे धीरे घरों से आ गया. सब को करीने से चूल्हे के आसपास यथोचित क्रम में सजा दिया गया. इसके बाद रमेश ने चूल्हे पर कड़ाही रख दी और देवदार की ऊंची टहनी की तरफ देखकर आंखे बंद करके कुछ बुदबुदाने लगा. लगभग आधा मिनट तक अस्फुट से लगने वाले मंत्र के बीच रमेश ने दो बार “जय हो“ का उद्घोष किया. फिर जमीन पर माथा टेक कर अपने शरीर का पिछला हिस्सा हवा में टांग दिया.
सारा दृश्य चमत्कृत कर देने वाला बन रहा था और लग रहा था कि बस कुछ ही देर में किसी अज्ञात स्थानीय देवता का ट्रांस रमेश में आने वाला है .
पर ऐसा हुआ नहीं. कड़ाही में ढेर सारा पानी भर दिया गया. उसमें थोड़ा नमक भी डाल दिया गया. लगभग पांच सात मिनट के बाद जब हल्का उबाल आने लगा तो रमेश ने सुनील को जोर की आवाज लगाई, जिसका अंत मातृशक्ति के सम्मान के साथ समाप्त हुआ. रमेश को लगा कि कुछ गलत हो गया तो उसने बेरूखी से हंसकर किसी पहाड़ी गाने के बोल गाने शरू कर दिये और एक हाथ से लकड़ी ठीक करने लगा, दूसरे हाथ से उसने कड़़ाही में कड़छी घुमानी शुरू कर दी. तीसरा हाथ उसके पास था नहीं , नहीं तो वह उससे भी कुछ न कुछ करता.
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सतीश एक बडे़ भगोने को पास में लाया, जिसमें ढेर सारे सुअर के मांस के टुकड़़े पडे़ थे, जिनके ऊपर चर्बी की पतली परत तैर रही थी. सारा मांस कड़ाही में डालकर उसी भगोने से ढक दिया गया था.
सतीश को भगोना हटाने में कोई बीस मिनट लेगे होंगे तब तक रम का एक दौर चल चुका था. रमेश माजिला अब कोई पहाड़ी चैबोला गा रहा था. गाना कोई करूण भाव का ही रहा होगा क्योंकि बीच बीच में वह उत्तरप्रदेश के रामलीला कलाकारों की तरह गले के ऊपरी हिस्से से हिचकी ले रहा था. सुनील उसी काॅलोनी के दो अन्य पुरूषों को बुलाने के लिये फोन कर रहा था. सूरज भी ढलने को था. हवा में एक हल्की सी ठंडक आ चुकी थी. आग के पास बैठना अब अच्छा लग रहा था. एक दूसरी आग अंदर की ठंड को दूर कर रही थी. कुल मिलाकर ऊर्जापूर्ण स्थिति का माहौल था.
तभी देवादार से भरे छोटे से मैदान के क्षितिज पर दो आकृतियां प्रकट हुयीं. ये वो दो पुरूष थे जिन्हें सुनील ने बुलाया था. आज महापुरुष का बायकाॅट नहीं किया गया था क्योंकि महापुरुष ग्यारह नंबर का शिकार नहीं खाता था सो आज खतरा सिर्फ रम पर था मांस अपनी जगह सुरक्षित था.
मुझे छोड़कर वहां बैठे शेष चार पुरूष ठेठ कुमाऊनी में गप्प मार रहे थे बीच बीच में मुझे भी देख रहे थे. शायद मेरी उपयोगिता पर विचार कर रहे होंगे.
कड़ाही का मांस अब उबल चुका था. अब बारी उसे बनाने की थी. मांस को कड़ाही से बाहर निकालकर आधे लीटर से अधिक सरसों का तेल कड़ाही में डाला गया. रमेश माजिला जो अब तक जमीन पर आलथी-पालथी मार कर बैठा था कड़़ाही में तेल पड़ते ही उछल कर उकडूं बैठ गया. बाईं हथेली पर उसने खूब सारा हींग, जीरा, जम्बू, गंद्रायणी, सौफ, काली मिर्च ले लिया. तेल गरम हो चुका था. टेस्टिंग के लिये केवल एक चुटकी सौंफ डाली गयी. सौंफ तुरंत फूलकर तैरने लगी.
रमेश ने पूरे सूखे मसालों से भरी मुट्ठी कड़ाही में छोड़ दी. हवा में एक अलग सी महक उठ रही थी. उस महक में रम, मसाले, मांस, भाव, भाषा, चुटकुले, आंचलिकता सब की गंध शामिल थी.
सब है जाल दाज्यू उर्फ़ किस्सा नरोत्तम जोशी ऑफ़ अल्मोड़ा
मसाले भुनते ही सुअर का सारा मांस, जिसके टुकड़ों से पानी निचुड़ चुका था कड़़ाही में छोड़ दिया गया. छनछनाहट की आवाज बढती जा रही थी. चूल्हे की लपटें कड़ाही से ऊपर उठने वाली भाप पर कब्जा करने की असफल कोशिश कर रही थी, उधर रम का चौथा दौर आरंभ होने को था. शेष महापुरुष हाॅलिडे होम की मैनेजर की बुर्रा करने का रस, रम के साथ खींच रहे थे. सतीश अपनी काॅटेज में गैस पर चढ़े भात और सब्जी को टटोलने चला गया था. रमेश माजिला अभी भी मांस को पूरी एकाग्रता के साथ भूनने में लगा था.
एक स्तर तक जब मांस पक गया तब उसमें पिसा हुआ प्याज, लहसुन, अदरक का पेस्ट डाला गया. धीरे धीरे और मसाले डालकर अच्छे से मिलाया दिया गया. नमक सबसे आखिर में डाला गया.
सतीश ने अपनी काॅटेज से आवाज लगाई जिसमें भात पकने की सूचना शामिल थी.
रम की बोतल लगभग समाप्त हो चुकी थी. आंखों के सामने जुगनू उड़ने लगे थे. जनता जनार्दन की आंखें “अभी और प्यास बाकी है“ का ऐलान कर रहीं थीं. धीरे से हम अपनी काॅटेज की तरफ बढे, हाथ में ओल्ड मांक की नाटे कद की खुरदुरी बोतल हाथ में थी. प्यासे को और क्या चाहिये, इस बारे में एक सिद्धान्त है कि “पीते समय फोकस शराब पर होना चाहिये चाहे वह जूते में ही क्यों न मिले“.
मांस पक चुका था. बच्चे आ चुके थे. औरतें, किशोरियां सब आ चुके थे. महापुरुष और आमां भी आ चुकी थी. सब अपनी अपनी धुन में मस्त थे. सारे के सारे लोग तमाम परेशानियों, चिन्ताओं, भूख, अज्ञानता, गरीबी, ठंड, बेरोजगार, कलह, क्लेश से ऊपर उठ चुके थे. एकदम प्राकृत, एकदम प्रसन्न. शुद्ध जंगली प्रसन्न.
प्रसन्नता बीच बीच में स्वाभविक छेड़खानी का रूप ले रही थी जो इस अवसर पर कुछ हद तक स्वीकार्य थी. ‘बेडू़ पाको बारा मासा’ के साथ साथ ‘टक टका टक कमला’ भी चल रहा था. अत्तर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था. यहां किसी प्रकार का भेदभाव न था. यहां न जाति थी, न धर्म था, न ओहदा था और न ही कोई बंधन. सब मुक्त थे, उन्मुक्त थे, बिल्कुल बराबर जैसे ग्यारह की संख्या में एक और एक बराबर होते हैं.
देवदार को उबासियां आ रही थीं मगर जिन्दगी देवदार की छांव में अभी थोड़ी देर और नाचने के मूड में थी.
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं
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1 Comments
Anurag Mishra
Mesmerizing detailed expression of the story took my heart to the valleys and mountain of Almora. The richness and Piusness of locality is expressed well. Nice work!!