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विकास की कीमत जंगल चुकाते रहे हैं. इनकी अनियंत्रित कटाई होती रही है.वन उत्पाद व उपज की प्रभावपूर्ण मांग हमेशा बनी रहती है. इनके पातन के साथ वन भूमि के अपरदन व जंगल में उगी बहुमूल्य वनस्पति के लुप्त होने से वन आवरण का क्रमिक ह्रास होता गया है. मौसम के बदलाव व जलवायु परिवर्तन के साथ प्रदूषण के संकट भी विकराल होते जा रहे हैं. वन संरक्षण के लिए जैव विविधता व जंगल के बचाव के लिए जो प्रयास किये जा रहे उनसे असमंजस पनप रहा है. ऐसी प्रतिक्रिया जैव विविधता संशोधन बिल 2021 तथा और वन संरक्षण संशोधन विधेयक 2023 दोनों के सन्दर्भ में उभर रही है कि इनसे जैव विविधता एक्ट, 2002 और वन संरक्षण एक्ट, 1980 दोनों का आधार कमजोर कर दिया गया है.
(Confusions of Forest Conservation Amendment Act)
उत्तराखंड के सन्दर्भ में यह दुविधा और अधिक है. यह ऐसा राज्य है जहां सत्तर प्रतिशत से अधिक भू भाग वन आवरण से युक्त है जिसका काफी अधिक हिस्सा बारह हजार से अधिक वन पंचायतों के द्वारा संचालित करने की परम्परा देश में अकेली अनूठी है. देश में पुरातन समुदाय आधारित वन प्रबंधन प्रणाली का यह उदाहरण उत्तराखंड में विशिष्ट भूमिका का निर्वाह करता रहा. अब चिंता यह उपज रही कि उत्तराखंड के सघन वन सीमावर्ती क्षेत्र से सौ किलोमीटर की दूरी पर विकास हेतु अंतरसंरचना निर्माण व रैखिक परियोजनाएँ वन संवर्धन एक्ट की प्रभावशीलता पर प्रतिगामी श्रृंखला प्रभाव डालेंगी.
भारतीय वन अधिनियम 1927 लकड़ी व अन्य वन संसाधनों के प्रबंध हेतु बनाया गया था.इससे राज्य सरकारों को उनके स्वामित्व वाली भूमि को आरक्षित या संरक्षित वन के रूप में अधिसूचित करने का प्रावधान हुआ. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वन भूमि के व्यापक क्षेत्रों को आरक्षित व संरक्षित वन के रूप में नामित किया गया. कई अन्य वन क्षेत्रों को छोड़ दिया गया व बिना किसी स्थायी वन वाले क्षेत्र को वन भूमि में शामिल किया गया.
1960 व 1970 के दशक में देश में वन साधनों के दुरूपयोग व इनके अति विदोहन की धटनाएँ तेजी से बढीं. राज्य सरकारों ने वन भूमि का अन्य कार्यों के लिए खूब उपयोग किया. वन संसाधनों की बेलगाम लूट खसोट से देश की पारिस्थितिकी पर पड़ रहे दुष्प्रभाव अनदेखे रहे. ऐसी घटनाओं की पुनरावृति रोकने के लिए 1976 में वनों को संवैधानिक सुधार के अधीन राज्यों की सूची से केंद्र की सूची में विवर्तित किया गया जिससे केंद्र के द्वारा वनों से संबंधित विधान बने. इसी प्रक्रिया के अधीन वर्ष 1980 में बड़े पैमाने पर वनों की कटाई को रोकने के लिए “वन संरक्षण अधिनियम” पारित किया गया. इसी के विस्तार में किसी भी वन भूमि को गैर वानिकी कार्य हेतु उपयोग करने व वन भूमि के किसी भी परिवर्तन के लिए केंद्र सरकार की मंजूरी लेने का विधान हुआ.
पहले ऐसी कई घटनायें हो चुकीं थीं जिसमें वनों की परिभाषा स्पष्ट न होने से इनका दुरूपयोग हुआ था. गोदावर्मन फैसले (1996) में सभी प्रकार की वन भूमि, भले ही उसका स्वामित्व या दशा कुछ भी हो वन की परिभाषा के अंतर्गत रखी गई.
पूर्ववत वन संरक्षण अधिनियम 1980 देश में वन संरक्षण की उस पहल से सम्बंधित था जिसमे आरक्षित वनों को अनारक्षित करना, वन भूमि का गैर वन कार्यों के लिए उपयोग, वन भूमि को पट्टे पर देना या अन्य कई उपायों से निजी इकाईयों को सौंपना एवम प्राकृतिक रूप से उगे पेड़ों को पुनः वनीकरण के लिए काटे जाने के लिए केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति जरुरी कर दी गई.
(Confusions of Forest Conservation Amendment Act)
यह पाया गया कि विविध प्रकार की भूमियों के मामले में इस कानून की उपयोगिता अलग -अलग रही.राज्यों के लिए तय हुआ कि वह सभी प्रकार के वनों के साथ पातन से प्रभावित व आवरण रहित क्षेत्र को निर्दिष्ट करे. इनकी हालत की जाँच हेतु जनपद स्तर पर समितियों का गठन करे. राज्यों ने अपनी विशेषज्ञ कमेटी की रिपोर्ट 1997 में प्रस्तुत कीं. क्रियाविधि को देखते हुए इनके नतीजे असंगत थे. जैसे कि, उड़ीसा ने शब्द कोष की परिभाषा के आधार पर 1997 में 2,80,000 हेक्टर वन भू भाग बताया तो दूसरी तरफ हरियाणा ने शब्दकोष की परिभाषा के अंतर्गत राज्य में एक एकड़ वन भी सूचित नहीं किया. कई राज्य ऐसे भी थे जिन्होंने डीम्ड वन को दिखाने के आधार प्रस्तुत किये. ऐसे में वनों की अधूरी जांच को देखते सुप्रीम कोर्ट ने इनके सही निर्धारण के लिए दिशा निर्देश दिए जिसमें वन का शब्दकोश अर्थ भी शामिल रहता.
1996 में गोडा बर्मन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने देश भर में पेड़ों की कटाई को निलंबित कर दिया. अब यह अधिनियम उन सभी भूमियों के लिए प्रासंगिक बना जो या तो वन के रूप में दर्ज थे या जंगल के शब्दकोष अर्थ से मिलते-जुलते थे. 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने पेड़ों की कटाई पर रोक के साथ ही वन संरक्षित भूमि के दायरे को बढ़ाने का निर्देश भी दिया. 1980 के अधिनियम के क्षेत्र को स्पष्ट करते सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसका उद्देश्य वनों की कटाई को रोकना है अन्यथा पारिस्थितिकी अवक्षय होता रहेगा. इसलिए स्वामित्व व वर्गीकरण की प्रकृति की परवाह किये बिना इसे सभी वनों पर लागू होना चाहिए.
वन संरक्षण अधिनियम वन भूमि के उपयोग पर कुछ प्रतिबंध लगा वनों के संरक्षण का प्राविधान करता है. विशिष्ट भूमि को सम्मिलित करने व कुछ भूमि को बाहर करने के लिए अधिनियम में संशोधन किये गए. अधिनियम में आने वाली भूमि, भारतीय वन अधिनियम 1927 या किसी अन्य कानून के अंतर्गत वन के रूप में घोषित अधिसूचित भूमि तथा 25 अक्टूबर 1980 को या उसके बाद सरकारी जंगल के रूप में दर्ज भूमि को शामिल करता है.
अब कोई भी भूमि जो इस तारीख से पहले जंगल के रूप में दर्ज रही पर राज्य सरकार के द्वारा वन के रूप में अधिसूचित नहीं थी,उसे इस सूची से बाहर रखा जायेगा. अधिनियम में ऐसी वन भूमि को भी छूट मिली जिसे 12 दिसंबर 1996 को या उससे पहले किसी राज्य या और केंद्र शासित प्रदेश के प्राधिकरण द्वारा गैर वन उद्देश्य में बदल दिया गया था.इसमें वन के शब्दकोश अर्थ को ध्यान में रख सरकारी रिकार्ड में वन के रूप में दर्ज कोई भी क्षेत्र शामिल है. अतः उस भूमि को अधिनियम के दायरे से बाहर करना जिसे 25 अक्टूबर 1980 से पहले जंगल के रूप में अधिसूचित नहीं किया गया पर सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज किया गया था,कई मुश्किलें बढ़ा गया. कहा गया कि वनों को संरक्षित करने सम्बन्धी प्रतिबन्ध विधेयक से बाहर रखी गई भूमि पर लागू नहीं होंगे. इससे वन क्षेत्र व वन्य जीवन पर प्रतिगामी प्रभाव पड़े.
(Confusions of Forest Conservation Amendment Act)
12 दिसंबर 1996 से पहले वन उपयोग से गैर वन उपयोग में बदली भूमि को छूट दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में स्पष्ट निर्देश दिया कि जंगलों में चल रही सभी गैर वन गतिविधियों को रोक देना चाहिए जब उन्हें केवल राज्य सरकारों से मंजूरी मिली हो केंद्र सरकार से नहीं. कोई भी वन भूमि जिस पर 25 अक्टूबर 1980 और 12 दिसंबर 1996 के बीच 1980 के अधिनियम के अधीन गैर वन गतिविधि को मंजूरी दी गई तो वह अधिनियम के अंतर्गत नहीं आएगी. जैसे कि इस अवधि के भीतर किसी वन भूमि पर खनन पट्टा स्वीकृत किया गया हो तो वह भूमि अधिनियम के दायरे से बाहर होगी भले ही पट्टे की अवधि समाप्त हो गई हो. स्पष्ट है कि इस अधिनियम के अंतर्गत बिना अनुमोदन उस भूमि पर गैर वन गतिविधियां की जा सकेगी.
अधिनियम में भूमि की छूट प्राप्त श्रेणियाँ स्पष्ट की गईं. पूर्ववत 1927 के अधिनियम के अनुसार यदि वन भूमि पर गैर वन क्रिया होती हैं तब इसकी स्वीकृति राज्य सरकार देगी. फिर 1980 के अधिनियम में इसके लिए केंद्र सरकार से पूर्व अनुमति लेनी होगी.विधेयक कई भूमियों को अधिनियम के प्राविधानों से रियायत देता है जैसे रेल लाइन के किनारे वन भूमि, सार्वजनिक सड़क जो किसी बसासत तक जाती है व रेल पथ व सड़क के किनारे की सुविधा. साथ ही इस विधेयक के प्राथमिक लक्ष्य,अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं, नियंत्रण रेखा या वास्तविक नियंत्रण रेखा व अधिसूचित क्षेत्रों के सौ किलोमीटर के भीतर राष्ट्रीय महत्त्व व राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बंधित रणनीतिक रैखिक परियोजनाओं के निर्माण हेतु भूमि, भूमि सुरक्षा सम्बन्धी बुनियादी ढांचे को बनाने के लिए 10 हेक्टेयर तक भूमि व वामपंथी उग्रवाद प्रभावित इलाकों में रक्षा सम्बन्धी परियोजनाएँ, अर्धसैनिक बलों हेतु शिविर व सार्वजनिक उपयोगिता परियोजनाओं के निर्माण के लिए 5 हेक्टेयर तक प्रस्तावित भूमि पर छूट देती है.
देश-विदेश में जलवायु परिवर्तन के संकटों के साथ बढ़ती पारिस्थितिकी व पर्यावरण की समस्याओं का सामना करने के लिए सरकार ने जलवायु के सुधार, वनों में कार्बन उत्सर्जन व वर्ष 2070 तक शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य तय किये. देश के वनों को बनाए-बचाये रखने, जैव-विविधता को संरक्षित करने की परम्परा व जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निबटने के लिए यह सभी पक्ष कानून के दायरे में रखे गए.
केंद्र सरकार द्वारा वन संरक्षण संशोधन विधेयक 2023 के प्रावधान एक प्रस्तावना शामिल कर अधिनियम के दायरे का विस्तार करने से संबंधित रहे. इसके प्रावधानों की क्षमता बढ़ाने के लिए अधिनियम का नाम बदल कर वन (संरक्षण एवं संवर्धन) अधिनियम कर दिया गया. प्रारम्भ में अधिनियम अधिसूचित वन भूमि पर लागू किया गया. तदंतर इसे राजस्व वन भूमि व सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज भूमि तक बढ़ा दिया गया.
जून, 2022 में सरकार ने वन संरक्षण नियमों में संशोधन किया जिससे उस भूमि पर जहां यह अधिनियम लागू नहीं है वृक्षारोपण करने की अनुमति दी जा सके.साथ ही प्रतिपूरक वनीकरण करने के बाद की जरूरतों के लिए ऐसे भूखंड की अदला -बदली भी की जा सके. ऐसे में गैर वन भूमि में वृक्षारोपण कर इसे अधिनियम की सीमा से बाहर करने के लिए विधेयक में स्पष्टता लाई गई. यह विधेयक देश के लगभग 28 प्रतिशत वनों को रिकॉर्ड किये गए वन क्षेत्र से बाहर करता है, अर्थात 5,16,630 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में से 1,97,159 वर्ग किलोमीटर वन रिकॉर्ड किये गए वन क्षेत्रों से बाहर हैं.
विधेयक में वन वृद्धि व कार्बन लक्ष्य के उद्देश्य पूर्ण करने के लिए कई प्रस्ताव शामिल किये गए जैसे कि अधिनियम अब कुछ वन भूमि जैसे कि डीम्ड व सामुदायिक वन पर लागू नहीं होगा जो शब्दकोष अर्थ के हिसाब से कार्यात्मक वन हैं पर वन के रूप में दर्ज नहीं हैं. विधेयक के साथ अधिनियम मात्र 1927 में शामिल वन के रूप में अधिसूचित भूमि पर लागू होगा जिसे 25 अक्टूबर 1980 को या उसके बाद वन के रूप में दर्ज किया गया. इस प्रकार यह विधेयक विविध भूमियों पर अधिनियम के प्रयोग की गुंजाइश को बढ़ाने का दावा करता है.
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यह अधिनियम संरक्षित क्षेत्रों के अलावा अन्य वन भू भागों जैसे चिड़िया घर, सफारी व इको पर्यटन सुविधाओँ को स्थापित करने की क्रिया बढ़ाना चाहता है जो पहले अधिनियम में शामिल न था. यह विशिष्ट संशोधन सुप्रीम कोर्ट के फरवरी 2023 के आदेश जो उसने बाघ अभ्यारंण्योँ में कथित अवैध कटाई व निर्माण तथा उत्तराखंड में कॉर्बेट टाइगर रिज़र्व के बफर जोन में सफारी पर नियंत्रण हेतु किया,के खिलाफ रहा. सुप्रीम कोर्ट ने बाघ व वन्य जीव अभ्यारण्यों तथा राष्ट्रीय उद्यानों के कई क्षेत्रों में निर्माण पर रोक लगा दी थी.
राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के साथ, विविध प्रकार की भूमि के मामलों से उपजे संशय को दूर करने, गैर वन भूमि में पौधारोपण को बढ़ाने व वन-उत्पादकता को बढ़ाने के लिए कानून में संशोधन के प्रस्ताव से लोक सभा में रखा गया. संशय दूर करने के लिए विविध प्रकार की भूमियों में कानून लागू करने की सीमा तय हुई तो वन भूमि उपयोग में कई प्रकार की छूट शामिल की गई. विधेयक इस सूची में अन्य कई गतिविधियों को शामिल करता है जैसे कि, वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम, 1972 के अंतर्गत संरक्षित क्षेत्रों के अलावा अन्य वन इलाकों में सरकार या किसी प्राधिकरण के स्वामित्व वाले चिड़ियाघर व सफारी के साथ इको -टूरिज्म सुविधाऐं तथा वन विकास संवृद्धि हेतु सिल्वीकल्चर को प्रोत्साहित करना. केंद्र द्वारा कोई अन्य उद्देश्य तथा अन्वेषण गतिविधि, भूकंपीय सर्वेक्षण को गैर वन उद्देश्य में रख इसके नियम व शर्तें भी तय की गयी.
यह अधिनियम गैर वन उद्देश्यों हेतु वन भूमि के उपयोग को प्रतिबंधित करता है. ऐसी रोक सरकार द्वारा ही हटाई जा सकेगी. गैर वन उद्देश्योँ में बागवानी, फसलों की खेती या पुर्ननवीकरण के अलावा ऐसी कुछ गतिविधियाँ निर्दिष्ट हैं जैसे वन व वन्य जीव संरक्षण, प्रबंधन व विकास से सम्बंधित कार्य जैसे चैक पोस्ट, फायर लाइन, बाड़ द्वारा घेराबंदी व वायरलेस संचार सेवा इत्यादि.
साथ ही सड़कों व रेल लाइन के समीप बने भवन व प्रतिष्ठानों को मुख्य सड़क से जोड़ने के लिए 0.10 हेक्टेयर वन भूमि की उपलब्धता संभव होगी. सुरक्षा सम्बन्धी अवसंरचना हेतु दस हेक्टेयर तक व उग्रवाद से प्रभावित जनपदों में पांच हेक्टेयर भूमि सार्वजनिक सुविधा स्थापित हेतु देने का प्रावधान बना. विधेयक में छूट व रियायत कुछ शर्तों व परिस्थितियों में देना तय किया गया जिसके बदले क्षति पूर्ति वनीकरण व न्यूनीकरण योजना केंद्र द्वारा निर्देशित होंगी. निजी इकाइयों को पट्टे पर वन भूमि देने के सन्दर्भ से मूल कानून के मौजूदा प्रावधानों में समानता लाने के लिए इसका विस्तार सरकारी कंपनियों के लिए भी कर दिया जाना तय हुआ.
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इस विधेयक में कुछ नई गतिविधियां भी शामिल की गईं. इनमें अग्रिम क्षेत्र में तैनात वन कर्मियों के लिए आवश्यक सुविधाएं व वन संवर्धन के लिए वानिकी क्रियाओं जैसे इको -टूरिज्म, चिड़िया घर व सफारी टूर संचालित करना मुख्य थीं. ऐसी क्रियाऐं जिनकी प्रकृति अस्थायी हो व जिनसे भूमि उपयोग में कोई मूल परिवर्तन न हो जैसे कि वन क्षेत्र में सर्वेक्षण व जाँच तो इन्हें गैर-वानिकी गतिविधि नहीं माना जायेगा.
अब वन भूमि का गैर वानिकी कार्यों के लिए उपयोग करने वाले प्रस्तावों के मामले में प्राधिकरण द्वारा निर्णय लिए जाने संभव होंगे. सरकारी अभिलेखों में दर्ज वह भूमि जिसे सक्षम प्राधिकरण के आदेश से 12 दिसंबर 1996 से पहले गैर वानिकी कार्य हेतु अनुमति दी गई उसे राज्य सरकार के साथ केंद्र की विविध योजनाओं में लाभ उठाने के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है.
संशोधन करते हुए इस विधेयक में जंगलों की कुछ जमीन को कानूनी दायरे से बाहर रखा गया है, जैसे कि 1(A) के उपवर्ग में स्पष्ट किया गया कि उन भूमियों में इस कानून के प्रावधान लागू होंगे जो वन अधिनियम 1927 या किसी अन्य विधान के अधीन वन के रूप में अधिसूचित हैं तथा इसके अतिरिक्त वह भूमियाँ जो 1980 के बाद सरकार द्वारा वन के रूप में अधिसूचित की गईं. इससे यह स्पष्ट होता है कि ऐसी हर भूमि जो 1927 के वन अधिनियम या अन्य किसी कानून से वन की श्रेणी में अधिसूचित नहीं की गई तथा वह जमीन जो 1980 से पहले बतौर फॉरेस्ट के रिकॉर्ड में हैं लेकिन अन्य किसी सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं की गई,वह वन संरक्षण एक्ट के दायरे से बाहर रहेंगी. साथ ही उन जमीनों पर भी कोई प्राविधान लागू नहीं होंगे जिन्हें 12 दिसंबर 1996 या उससे पहले जंगल के उपयोग से गैर-जंगल के उपयोग की जमीनों में बदला गया है.
विधेयक में फ्रंट लाइन क्षेत्र में अंतर्सरचना के विकास से जुड़ी वानिकी क्रियाओं को शामिल किया गया है जिससे प्राकृतिक आपदा की स्थिति में तीव्र कार्यवाही संभव होगी. इसके साथ ही वानिकी परिचालन, निगरानी, वन अग्नि से बचाव व अन्य पुनःनिर्माण कार्य संभव होंगे जिनका सीधा प्रभाव उत्पादकता वृद्धि पर पड़ेगा व वनों के बेहतर प्रबंध की सोच विकसित होगी. इकोतंत्र में वस्तु, सामान व सेवाओं का प्रवाह बढेगा. वन संरक्षण और आर्थिक गतिविधियों के मध्य संतुलन बनाए रखने के लिए कुछ नई क्रियाओं की जरूरत महसूस की गई.
(Confusions of Forest Conservation Amendment Act)
1980 का अधिनियम वनों की कटाई रोकने हेतु लाया गया था जिसमें गैर वन उद्देश्य के लिए केंद्र सरकार की पूर्व मंजूरी जरुरी थी. अब वनों में अनुमत गतिविधियां वनों और वन्यजीवों के संरक्षण व प्रबंधन को ध्यान में रख तय की जाएंगी साथ ही इनका उद्देश्य वन संरक्षण व आर्थिक क्रियाओं के बीच सामंजस्य बनाए रखने से होगा.
1980 का वन अधिनियम वनों के कटान पर रोक हेतु बना. गैर वन उद्देश्योँ के लिए वन भूमि के प्रयोग पर केंद्र सरकार की पूर्व मंजूरी जरुरी थी साथ ही वनों में स्वीकृत क्रियायें वन व वन्य जीवों के संरक्षण व प्रतिबन्ध से जुड़ी थीं. अब अनुमत क्रियाओं में चैक पोस्ट व फायर लाइनें बनाना व इस सूची में सिल्वी कल्चर, सफारी व इको पर्यटन को भी शामिल किया गया. विधेयक केंद्र सरकार को उसकी मंजूरी के बिना कुछ सर्वेक्षण करने के लिए नियम व शर्तेँ रखता है जिसमें अन्वेषण व भूकंपीय सर्वेक्षण मुख्य हैं. माना गया कि इन क्रियाओं से विकास की गति जोर पकड़ेगी व खनिजोँ की खोज, ऊर्जा साधन प्राप्ति व उद्योग विस्तार जैसी राष्ट्रीय प्राथमिकताएं पूरा करने को बेहतर आधार मिलेगा. यहां यह सावधानी रखनी होगी कि ऐसी क्रियाओं से प्राप्त आर्थिक लाभोँ का वनों के संरक्षण के साथ तालमेल समंजित रहे.
स्पष्ट किया गया कि प्राणी उद्यान व सफारी जैसी क्रियाओं पर सरकार का नियंत्रण व स्वामित्व रहेगा जिन्हें संरक्षित क्षेत्र से बाहर केंद्रीय प्राणी उद्यान अभिकरण द्वारा अनुमत योजना के अनुरूप चलाया जायेगा. वन क्षेत्र में जो कार्य योजना, वन्य जीव प्रबंधन योजना या टाइगर संरक्षण योजना स्वीकृत होगी उसी के अनुरूप इकोटूरिज्म की क्रियाऐं बढ़ेंगी. सुविधाऐं प्रदान कर वन भूमि व वन्य जीव संरक्षण व इसकी सुरक्षा के साथ लोगों को जागरूक करना व स्थानीय समुदाय के लिए अजीविका के अवसर खोलना इस विधेयक के संशोधनों से संभव होगा.केंद्र सरकार केंद्र, राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के अंतर्गत या मान्यता प्राप्त किसी भी प्राधिकरण या संगठन को अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए निर्देश जारी कर सकती है.
नए विधेयक का बिल 29 मार्च 2023 को संसद के बजट सत्र में लोक सभा में पेश हुआ. इस पर कई विपक्षी नेताओं ने आपत्ति की. बिल को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा गया व अध्यक्ष द्वारा इस पर सुझाव मांगे गए. कई विपक्षी दलों ने इससे असहमति प्रकट की. 20 जुलाई को संयुक्त समिति ने इन्हें खारिज करते सभी संशोधनों को मंजूरी दे दी.26 जुलाई 2023 को विधेयक लोकसभा में चालीस मिनट के भीतर ध्वनि मत से पारित कर दिया गया.
विकास के प्रभाव उपजाने में यह विधेयक निजी संस्थाओँ को पट्टे पर वन भूमि के आवंटन से संबंधित मूल अधिनियम के प्रावधानों को सरकारी कंपनियों तक भी विस्तृत कर देता है. संकल्पना रही कि इससे विकास परियोजनाओं को गति मिलेगी और अधिनियम के कार्यान्वयन में एकरूपता बनी रहेगी. इससे नई वानिकी गतिविधियां संभव होंगी जैसे कि अग्रिम पंक्ति के वन कर्मियों हेतु बुनियादी ढांचे का निर्माण व इको पर्यटन, चिड़िया घर व सफारी का विस्तार जिसका नियंत्रण सरकार करेगी व इन्हें संरक्षित इलाकों से बाहर अनुमोदित क्रियाओं में स्थापित किया जायेगा. माना गया कि इन क्रियाओं से वन व वन्य जीव संरक्षण पर जागरूकता बढ़ेगी तो साथ ही स्थानीय समुदायों के लिए आजीविका के अवसर बढ़ेंगे. अब वन इलाके में सर्वेक्षण एवं जाँच परख को गैर वानिकी गतिविधि नहीं समझा जायेगा.
(Confusions of Forest Conservation Amendment Act)
कई दुविधाऐं सामने हैं जैसे कि अप्रैल, 2022 में हरियाणा के मुख्य मंत्री ने गुरुग्राम व नूह जनपद की अरावली श्रृंखला के अठारह हजार एकड़ में चिड़िया घर सफारी योजना की घोषणा की. इससे यह चिंता उभरी कि वन क्षेत्र में अरावली सफारी परियोजना में किया जाने वाला निर्माण अनावश्यक रियल स्टेट क्रियाऐं बढ़ा देगा जिनसे अरावली श्रृंखला के मूल परिस्थितिकी तंत्र पर विपरीत प्रत्यावर्तन प्रभाव पड़ेंगे. अरावली बचाओ नागरिक समिति ने कहा कि गैर वन क्रियाओं में चिड़िया घर व सफारी को अनुमति देने से वनों पर निर्भर समुदाय, वन्य जीव व पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ेंगे जिससे असंगत रूप से इनका व्यवसायीकरण होगा. पहले से मौजूद जंगलों का क्षय होगा व विद्यमान फ्लोरा-फौना का संरक्षण प्रभावित होगा. ऐसी गैर वानिकी क्रियाओं को उचित मूल्यांकन व शमन योजनाओं के बिना मंजूर करने से जैव विविधता को खतरा हो जायेगा अतः विधेयक में उन्हें मौलिक प्रतिबंधों से अलग रखना युक्ति संगत नहीं है.
हिमाचल प्रदेश में यह अधिनियम राष्ट्रीय महत्त्व व सुरक्षा को परिभाषित करना चाहता था क्योंकि इसके प्राथमिक लक्ष्य पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्रों में रणनीतिक परियोजनाओं से जंगलों की विद्यमान दशा व संभावित दोहन व निकासी के बारे में चिंताएं बढ़ा रहे थे. इससे देश की सीमाओं में रहने वाले समुदायों के अधिकारों का हनन होने की सम्भावना भी बढ़ रहीं थीं.
मिजोरम सरकार का कहना था कि किसी भी एजेंसी द्वारा रैखिक परियोजना की परिभाषा के अधीन आने वाली किसी गतिविधि को राष्ट्रीय महत्त्व या सुरक्षा के रूप में वर्णित करता है. सिक्किम जैसे छोटे राज्य के अनुसार सीमाओं से सौ किलोमीटर की छूट देने से पूरा राज्य इसमें समाहित हो जायेगा और वन क्षेत्र खुल जायेंगे अतः इसमें प्रस्तावित छूट की सीमा को घटा कर दो किलोमीटर कर देना चाहिए. वहीं अरुणाचल प्रदेश सरकार चीन के साथ बुनियादी ढांचे के अंतर को कम करने हेतु छूट की सीमा बढ़ा कर डेढ़ सौ किलोमीटर चाहती है.
विधेयक में जो छूट वर्णित हैं उनसे हिमालय, ट्रांस हिमालय व पूर्वोत्तर के पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील इलाकों में जंगलों के दोहन व संसाधनों की निकासी से जुड़ी चिंताएं बनी रहेंगी. यह तनाव भी बना रहेगा कि इससे देश की सीमाओं में निवास कर रहे समुदायों के वन अधिकार संकुचित हो जायेंगे. उचित मूल्यांकन व शमन क्रियाओं के बगैर जैव विविधता भी खतरे में रहेगी. सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में दिए एक निर्णय में वन संरक्षण अधिनियम को उन सब भूमियों के उपयुक्त पाया था जो या तो वन के रूप में दर्ज थीं या जंगल के अर्थ से जुड़ी थीं जबकि वन संरक्षण अधिनियम 1927 के अनुसार यह वनों के रूप में सूचित क्षेत्रों में लागू होता रहा.
(Confusions of Forest Conservation Amendment Act)
वन संरक्षण अधिनियम को वन के रूप में दर्ज सभी भूमि व उनकी स्थिति की परवाह किये बगैर सभी स्थायी वनों पर लागू कर दिया गया जिससे विकास या उपयोगिता सम्बन्धी क्रिया प्रभावित हुईं. एक उपाय के रूप में विधेयक का प्रस्ताव था कि अधिनियम केवल अनुसूचित वन भूमि व सरकारी रिकॉर्ड पर वन के रूप में अंकित भूमि पर लागू होगा. उन वनों को छोड़ दिया गया जिन्हें 1996 के सुप्रीम कोर्ट आदेश से पहले ही अन्य उपयोग में लाया गया था. निजी व गैर वन भूमि में हुए वृक्षारोपण पर अधिनियम की प्रयोज्यता के बारे में आशंका बनी ही रहीं.
यह विधेयक कार्बन लिंक को बढ़ाने के लिए निजी भूमि में वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करता है. वन मंजूरी की शर्त डेवलपर हेतु यह है कि वह समतुल्य गैर वन भूमि पर प्रतिपूरक वन लगाएगा. यदि गैर वन भूमि उपलब्ध नहीं है तब हस्ताँतरित वन क्षेत्र की दोगुनी सीमा तक उससे निम्न श्रेणी की भूमि पर वृक्षारोपण करना होगा. फिर जून 2022 में वनसंरक्षण नियमों में किये गए फेर बदल यह हुए कि डेवलपर को उस भूमि जहां यह अधिनियम लागू नहीं है के लिए अनुमति दी जाये. प्रतिपूरक वनीकरण के बाद की जरूरतों को देखते हुए ऐसे भू-खण्डों की अदला-बदली की जा सकती है. स्पष्ट है कि वृक्षारोपण को बढ़ाने हेतु ऐसी भूमि को अधिनियम के दायरे से बाहर रखने के लिए विधेयक में प्राविधान किया गया.
यह भी देखा गया है कि वन मंजूरी में देरी राज्य स्तर पर अधिक होती है. रक्षा मंत्रालय 2019 के अनुसार भारत-चीन सीमा से अलग एकावन सीमा सड़क परियोजनाएँ वन मंजूरी के कारण लंबित थीं जिनमें उनतीस परियोजनाऐं राज्य सरकारों के पास लंबित थीं. भूमि मुआवजे से सम्बंधित सीमा सड़क संगठन परियोजनाओं के 593 मामले लंबित थे.मई 2023 तक वन मंजूरी के लिए लंबित 2235 आवेदनों में 1891 राज्य सरकार के पास लंबित रहे तो शेष केंद्र सरकार के पास. फिर भूमि अधिग्रहण व वन्य जीव मंजूरी जैसी अन्य प्रक्रिया व अनुपालन भी ऐसी परियोजनाओं में देरी करतीं हैं.साथ ही जलवायु की परिस्थितियां, भू भाग की दुरुहता, कुशल श्रम व निर्माण सामग्री की कमी भी विलम्ब का कारण है.
केंद्र सरकार ने 2019 में,1980 के अधिनियम के द्वारा कुछ योजनाओं हेतु छूट पहले से ही दी है. इनमें सीमाओं के समीप सुरक्षा परियोजनाएँ, वामपंथी उग्रवाद प्रभावित इलाकों में अंतर संरचना व रैखिक परियोजनाएं शामिल हैं. यह छूट कुछ शर्तों के अधीन है जैसे कि इसमें सम्मिलित क्षेत्र किसी राष्ट्रीय उद्यान और या वन्य जीव अभ्यारण्य के भीतर शामिल नहीं होना चाहिए. उपयोगकर्ता एजेंसी वन के उपयोग को कम करने के लिए सभी संभावित विकल्पों पर ध्यान दे.सीमा सुरक्षा सहित कुछ उपयोगों के लिए हस्ताँतरित भूमि को वन भूमि माना जाता रहेगा. जून 2022 में सरकार ने वन संरक्षण नियमों में संशोधन किया ताकि उस भूमि पर जहां यह अधिनियम लागू नहीं है, वानिकी क्रिया करने की अनुमति दी जाये.
(Confusions of Forest Conservation Amendment Act)
विधेयक निजी संस्थाओं को पट्टे पर वन भूमि के आवंटन से सम्बंधित मूल अधिनियम के प्रविधानों को सरकारी कंपनियों तक भी विस्तारित करता है जिससे विकास परियोजनाओं को गति मिलने और अधिनियम को क्रियाशील करने में एकरूपता आने की संभावना रहेगी. ऐसे में रियल स्टेट व खनन से जुड़ी लॉबी सबसे अधिक लाभान्वित होगी. हरियाणा और उत्तराखंड जैसे राज्य की वन भूमियाँ जहाँ शब्दकोष के अर्थ से वन क्षेत्रों का निर्धारण नहीं हुआ उनमें वन ह्रास होगा. एन सी आर के इलाके में यह खतरा और अधिक बढ़ेगा क्योंकि वहां अरावली क्षेत्र में रियल स्टेट की क्रियाऐं खूब मुनाफा बटोरेंगी.
अरावली पहाड़ियों में फरीदाबाद व गुरुग्राम के बीच 35 प्रतिशत वन्य भाग जिसमे अठारह हजार एकड़ वन तो अभी परिभाषा के फेर में अनिर्धारित है, सबसे अधिक संकट में आना है. इसे बचाने के लिए वैकल्पिक उपाय जरुरी हैं. दूसरी ओर ऐसे भी उदाहरण है जहां पहाड़ी इलाकों में वन भूमि न मिलने से सरकार की कई महत्वाकांक्षी योजनाएँ अटक गईं हैं. उत्तराखंड में ही 159 पेय जल योजनाओं के लिए वन भूमि में काम मिलने की मंजूरी होनी है. इनमें गढ़वाल मण्डल में 98 व कुमाऊँ मण्डल में 61 योजनाओं के काम अटक गए हैं जिन्हें मार्च 2024 तक पूरा हो जाना है. ऐसी योजनाओं में एक हेक्टेयर से कम वन भूमि की मंजूरी स्थानीय स्तर पर वन विभाग से होती है.इसके साथ ही कुमाऊँ में रानीखेत की असुर गढ़ी, भिकिया सेण की झीमर, अल्मोड़ा की सिमखोला, खत्याड़ी, कसार देवी व गढ़वाल मण्डल में रुद्रप्रयाग की क्वीला खाल, पौड़ी की कंडारस्यूँ, चम्बा की आनंद चौक, पौड़ी की करथी कोठार व चमोली की कांडा मैखुरा जैसी बड़ी योजनाओं का काम भी अटका है.
जन सहभागिता से जंगलों को बचाने का विशिष्ट मॉडल व योगदान उत्तराखंड की वन पंचायतों द्वारा किया जाता रहा.वन पंचायत कानूनी रूप से ग्राम वन व पंचायती वन का प्रबंध वर्ष 1931 से करती रहीं. ब्रिटिश राज में यहां के जंगल व्यावसायिक गतिविधि का केंद्र बने व इसमें निहित फायदे को देख सरकार ने 1893 में लोगों के जंगल जाने पर प्रतिबंध भी लगा दिया जो पहले कॉमन प्रॉपर्टी हुआ करते थे. सरकार की रोक -टोक के विरोध में लोगों ने जंगलों का रखरखाव बंद कर दिया. जन आक्रोश को देखते 1921 में कुमाऊँ फारेस्ट ग्रीवेन्स कमेटी का गठन हुआ जिसकी सिफारिश पर 1931 में वन पंचायतों का गठन हुआ. वर्तमान में उत्तराखंड के 5449.64 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वन पंचायतें विस्तृत हैं तथा राज्य के 15 प्रतिशत जंगल वन पंचायतों में शामिल हैं. राज्य के 11 पर्वतीय जनपदों में 13729 राजस्व ग्रामों में 12085 में वन पंचायतों की मौजूदगी रही जिसने दस लाख ग्रामीण परिवारों को जीवनयापन का सहारा भी दिया.
(Confusions of Forest Conservation Amendment Act)
हिमालय के पहाड़ी समाज की संस्कृति संरक्षण आचार नीति व संवर्धन आचार नीति का सम्मिश्रण रही जिसके प्रभाव स्वरूप उसने प्रकृति व वन के साथ मधुर संबंध रख अपने आपको पर्यावरण का एक घटक माना न कि इस परिवेश को अपने उपभोग की वस्तु माना. पर जैसे जैसे विकास नीतियों में प्रकृति दत्त संसाधनों को उच्च उपभोग के लिए दोहन हेतु आवंटित व गतिशील करने की सोच उच्च प्रतिमान पाती गई विकास का असमंजस भी गहराता चला गया. वन संरक्षण एवम संवर्धन अधिनियम को विकास की आचार नीति के साथ समझदारी से लागू कर ही उभर रहे तनाव-दबाव व कसाव से समायोजन किया जा सकता है.
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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