एक हुआ करते थे अकबर अली. इन हजरत के बारे में अब ये तो नहीं कह सकते कि ये अल्मोड़ा शहर की एक विभूति थे, शान थे कोई ऊंची हस्ती थे. लेकिन कुछ तो थे. एक चरित्र तो थे ही कि जिनका जिक्र आज भी प्रसंगवश गाहे-ब-गाहे लोगों की जबान पर आ ही जाता है. अकबर अली अभी दो-चार बरस पहले तक बाहयात थे. ज्यादा वक्त नहीं बीता उन्हें गुजरे. कचहरी बाजार में पाए जाते थे और अकबर अली नहीं बल्कि अक्कू या अक्कू मियां के नाम से जाने जाते थे. उलझे बाल, खिचड़ी दाढ़ी, भेंगी आंखें, दुबली पतली काया और उस पर लटके हुए काम चलाऊ कपड़े. न रहने की कोई जगह, न कोई स्थाई रोजगार, बीवी न बच्चा, अकेली जान, दिमाग में लेकिन खुराफातें बेशुमार.
अकबर अली के कई रूप थे. मूल रूप से शायद वह मोची थे. सामने वाले के जरूरत के हिसाब से रूप धरने की अद्भुत क्षमता उनमें थी. तांत्रिक, नजूमी, वैद्य, गवाह,जमानती कुछ भी. बताने वाले बताते हैं कि एक बार उन्हें दशहरे के जुलूस में पंडित बनकर आरती की थाली लेकर चलते हुए भी देखा गया. पंडितजी की थाली में पैसे चढ़ाती और आशीर्वाद लेती महिलाओं को अक्कू मियां के ही मोहल्ले-बिरादरी के लड़के मियां को चिढ़ाने की गरज से सावधान कर रहे थे- चाची, त मुसई छ मुसई,अकबर अली ने उन लड़को को एक आंख से घूरकर कहा- चुब्बे हां, बता रिया हूँ भांची मत मार ….
मोची के रूप में अकबर अली के कई किस्से मशहूर हैं. एक बार किसी आर्मी अफसर का जूता मरम्मत के लिए अक्कू मियां के पास आया. वे कई दिन तक सिपाहियों को आज-कल कहकर टालते रहे. आखिर कब तक ? एक दिन दो-तीन जवान वसूली वाले मूड में सामने आ खड़े हो गए कि साहब का जूता दो. उस दिन जवान टाले न टले. अकबर अली ने कहा- अच्छा रुको, लाता हूं. घर में रखा है हिफाजत से. और वो सामने की गली में समा गए. वहीं किसी खंडहर में उन दिनों रह रहे थे. बड़ी देर हो गई अकबर अली लौटकर नहीं आए. जवान पूछते हुए गली में घुसे. और जरा देर बाद भागते हुए वापस आ गए. चेहरे बदहवास. उन्होंने बताया कि शू मेकर पत्थरों में दबकर मर गया है. और तेज कदमों से कैंट की ओर चले गए. अकबर अली जैसे जीव इतनी आसानी से कहां मरते हैं. अकबर अली ने अपने कपड़ों में यहां-वहां लाल पेंट पोता, कुछ जमीन में गिराया और एक बड़ी-सी पटाल छाती में रखकर बेसुध लेट गए. जैसे कि वे चाह रहे थे जवानों ने सोचा पुराने मकान की ढीली पटाल अचानक गिर जाने से मोची मर गया. पुलिस, गवाही, पेशी, पूछ-ताछ, छत्तीस झंझट, आर्मी की नौकरी. भाड़ में गया जूता, भागो. ब्रिगेडियर साहब का जूता दरअसल अकबर अली बहुत पहले किसी को बेच चुके थे, ऐसे में मरने के अलावा चारा ही क्या बचता है ?
तब तनख्वाह आज जितनी ऊंची नहीं हुआ करती थीं. ज्यादातर परिवारों में एक ही आदमी कमाने वाला हुआ करता था. महिलाओं में नौकरी का चलन कम था. कपड़ों में पैबन्द होना और एक ही जूते को सालों साल सी-सी कर पहनना आम बात थी. आम आदमी रूपये-पैसो की तंगी की वजह से सस्ते के जुगाड़ में रहता था. ऐसे में मोचियों द्वारा बनाए गए सस्ते जूते खरीदकर लोग काम चला लिया करते थे. एक दिन अकबर अली से एक सज्जन सेकिन्ड हैंड जूता करीदने गए. जूता हर हिसाब से ठीक ही लग रहा था. दाम के हिसाब से एकाध साल भी चल गया तो पैसे वसूल. घर पहुंचे तो पता चला कि अक्कू ने मियां की जूती मियां के सर दे मारी थी. वह जूता उनके छोटे भाई का था जो कई दिनों से सिलाई के लिए अक्कू के पास पड़ा था.
कचहरी की सीढ़ियों के पास ही एक कोने में अकबर अली जूता मरम्मत का सामान लिए बैठा करते थे. वहीं बैठे-बैठे लोगों की जरूरतों का सुराग लगता था. फिर उसी के हिसाब से समाधान सोचा जाता और रूप धरा जाता. अब रोज तो ब्रिगेडियर का जूता मरम्मत को आता नहीं, न ही आप रोज मर सकते हैं. तो लाजमी है कि यहां-वहां भी हाथ आजमाया जाय. एक बार की बात है, कचहरी के किन्हीं साहब का जूता अकबर अली के पास सिलाई-पॉलिश के लिए आया. हस्बे आदत कुछ दिनों तक टालमटोल चलती रही. आखिर एक दिन साहब ने अर्दली भेजकर अकबर अली को दफ्तर में तलब कर ही लिया. जिसके पास अर्दली हो, वह कोई बड़ा ही हाकिम रहा होगा, उस पर मामला पड़ोस का. जाना ही पड़ा. अकबर अली ज्यों ही साहब के सामने गए साहब ने उन्हें यह कहकर लौटा दिया कि जाओ-जाओ, चलो ठीक है, कोई बात नहीं. अर्दली हैरान! अब यह राज तो बाद में खुला कि साहब अकबर अली के पैरों में अपना जूता देखते ही पहचान गए थे.
एक दफे अकबर अली झूठी गवाही या ऐसी ही किसी वजह से जेल चले गए. कई दिन गुजर गए. फिर मोहल्ले वालों ने सोचा चलो यार काफी हो गया. अकेला गरीब आदमी भला कौन इसकी जमानत करवाएगा. कुछ किया जाए. ईद या बकरीद भी नजदीक ही थी. पड़ोस में कचहरी होने की वजह से वकील, सरकारी वकील और पेशकार साहेबान से रोज की दुआ-सलाम. कुछ लोगों ने जाकर बात की, जुगाड़ लगाया और अकबर अली बाहर आ गए. मोहल्ले में पहुंचकर आपने फरमाया कि आजकल लोगों को किसी का आराम से खाना-पीना देखा नहीं जाता. वहां आराम से रै रिया था, खा-पी रिया था, हरामियों ने बाहर निकलवा दिया.
अकबर अली का गुस्सा एकदम वाजिब था, सौ फीसदी जायज था. वे जेल में अक्कू बाबा के नाम से मशहूर हो चुके थे. उन्होंने जेल में रहते हुए जेलर को ताबीज पहना दिया था और कुछ सुविधाएं अपने लिए जुटा ली थीं. कई कैदी उनके मुरीद हो चुके थे. बाबाजी ने अपनी ज्योतिष विधा और टोने-टोटकों से कइयों की जमानत करवा दी थी. जो कैदी बाहर जाता वह अपना खाने-पीने का सामान और जो थोड़ा रूपया-पैसा होता बाबाजी को अर्पित कर जाता, चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेता था. सब बढ़िया चल रहा था कि तभी एक दिन बाबाजी की खुद की जमानत हो गई. जेल दरगाह होते-होते रह गई.
एक बार मोहल्ले वालों ने देखा कि अकबर अली फौंजी जिप्सी में शान से बैठे चले आ रहे हैं. बांह खिड़की में टिकी है और सर बाहर निकला है ताकि सब ठीक से देख लें कि हां, अकबर अली ही हैं. और लोगों में धाक जमे, रूतबा बढ़े. इस बार उन्होंने किसी आर्मी अफसर को न जाने क्या पट्टी पढ़ा दी कि उसने उन्हें अपने क्वार्टर बुलवा लिया. गए तो अक्कू मियां चलकर, लौटे मगर हरी जिप्सी में.
अकबर अली ने एक बार मेरी नजरों के सामने मेरे बाप को ही ठग लिया. मेरे पिता न जाने उन्हें कहां टकरा गए कि एक सुबह अक्कू मियां घर आ पहुंचे. वे अपने साथ मिट्टी के सात दिए लेकर आए थे. उन्होंने पिता को सामने बिठाकर उनके गले में अपने गले से निकालकर माला डाल दी. एक परात में थोड़ा आटा, खाने का तेल, रूई और गीली धूप की मांग की. उन्होंने सात लोइयां बनाकर उन पर आटा गूंथना शुरू किया. फिर सात लोइयां बनाकर उन पर दिए जला दिए. साथ में जल तू जलाल तू, आई बला को टाल तू चलता रहा. फिर दिए एक ओर रख दिए और लोइयों को आपस में मिलाकर गूंथा जाने लगा. मैं यह सब तमाशा देख रहा था और मन ही मन कुढ़ रहा था.
लेकिन कुछ भी कर या कह नहीं सकता था क्योंकि मुझ पर पहले ही कई इल्जाम थे. महत्वपूर्ण काम बिगाड़ने का एक और आरोप अपने सर मैं नहीं ले सकता था. आटा गूंथते अकबर अली अचानक मेरी ओर मुखातिब हुए- यार थोड़ा-थोड़ा चाय बना, ठंड काफी है. ज्यों ही मैं चाय का पानी चढ़ाने को पलटा कि अकबर अली को कहते सुना- देखा, ये देखो, किसी ने कर-करा कर तुम्हारे पुश्तैनी घर में ये गाढ़ रख्खा है. उन्होंने आटे में से हड्डी का टुकड़ा और बाल बरामद कर लिए थे. अकबर अली बाल-हड्डी में से आटा छुड़ा रहे थे.
अकबर अली की ठगी का एक दायरा था. मतलब कि कभी किसी का कोई गंभीर नुकसान नहीं किया. बस, बीस-पचास या हद से हद सौ-दो सौ. हर आदमी कुछ न कुछ करता ही है. उन्होंने यही रास्ता पकड़ लिया. जीने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता है. सच कहूं तो उन्हें ठग कहने को भी जी नहीं चाहता. आए दिन हजारों करोड़ों के घपलों की खबरों के सामने अकबर अली के कारनामें किसी बच्चे की-सी नादानी लगते हैं.
अकबर अली को याद करते हुए एक बात मुझे अनायास ही महसूस हुई कि तब हमारी कूवते-बरदाश्त आज के मुकाबले शायद ज्यादा थी. क्योंकि जहां तक मैं जानता हूं अकबर अली अपनी हरकतों के लिए कभी पिटे नहीं. आज आदमी जरा सी बात पर पुलिस बुला लेता है या खुद ही जज बनकर सामने वाले के मुंह पर लात-घूंसे से फैसला लिख देता है. तब आदमी थोड़ा बहुत बक-झक करके आगे बढ़ जाता था. मसलन दर्जी कभी समय पर कपड़ा सीकर नहीं देता था. लेकिन दर्जी बदला नहीं जाता था. आज अमूमन ऐसा नहीं होता.
यहां पर अकबर अली के चंद ही किस्से जुट पाए. उनके किस्से सैकड़ों की तादात में होंगे. उन्हें अगर इकट्ठा किया जाए तो ‘दास्ताने-अकबर अली’ नाम की मोटी-सी किताब बन सकती है. कोई सुनाने वाला मिला तो अक्कू मियां की कुछ दास्तानें फिर कभी.
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.>
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