तब गाँव क्या था, श्याम-श्वेत सिनेमा के दौर का सा गाँव लगता था. चौतरफा खेत-ही-खेत थे, गन्ने-सरसों की फसलों से लहलहाते हुए. गाँव में कुएँ थे, तो रहट भी. यातायात के साधनों में, बैलगाड़ी से लेकर भैंसागाड़ी तक. चहुँओर हरियाली-ही-हरियाली छिटकी रहती थी. कभी मेघों की छटा दिखाई देती, तो कभी मद्धिम गति से सरकता चाँद. अलसुबह, दूब पर छितरी हुई हीरक ओस की बूँदें. सब कुछ सहज और सुंदर सा लगता था. बच्चे स्कूल जाते हुए और छुट्टी के वक्त लौटते हुए, उसी लय में लहलहाते.
गाँव के छोर पर आठ-दस परिवार थे, जो जैन थे. मूल गाँव वही था. उनके घर, आधा किलोमीटर की चौकोर पट्टी में बसे हुए थे. थे तो वे दिगंबर पंथ के अनुयायी, लेकिन मूलतः वे काश्तकार थे, मेहनती और परिश्रमी. व्यापार भी करते थे. घर पर ही दुकानें करते थे, अधिकांशतः जनरल मर्चेंट की. गुड़-तेल-शक्कर से लेकर सुई-धागा-बटन तक. दैनिक उपयोग की समस्त सामग्री मौजूद मिलती थी. तब एक पैसा, दो पैसा तक चलन में था और विनिमय में भी कारोबार हो जाता था- अनाज के बदले सौदा.
बच्चों को सबसे ज्यादा आकर्षित करती थीं- पारदर्शी जार में सजी हुई काँच की रंगबिरंगी गोलियाँ. कंचे का खेल, बच्चों का प्रसिद्ध खेल होता था, जो कई प्रारुपों में खेला जाता था. गलियारों में, अहातों में, स्कूल के मैदान में बच्चे कंचे खेलने में, अंधेरा होने तक जुटे रहते थे. मुठ्ठी भर कंचे दाँव पर लगाकर, कोई कई गुना जीतता, तो विजयी भाव से निक्कर की दोनों जेबें छनछनाते हुए घर लौटता. तो कोई हारे हुए जुआरी की तरह, सब कुछ हारकर, बुझे मन से खाली हाथ लौटता.
बस्ती के कोने में एक दुकान थी. उस दुकान में कई पारदर्शी डिब्बों में कंचे भरे रहते थे. जो बच्चों का चित्त हर लेने के लिए काफी रहते थे. दुकान पर अक्सर एक लड़की बैठी हुई मिलती, जो बहुत बातूनी थी. वो तरह-तरह से लड़कों का ध्यान खींचती थी, खासकर रंगबिरंगे कंचों की तरफ. लड़कों को देखते ही, वह फेरीवालों की तरह, कंचों के दाम ऊँचे स्वर में बोलने लगती थी, ‘तीन पैसे की पाँच, पाँच पैसे की दस…’ जुबानी विज्ञापन करने में लड़की बहुत होशियार थी. वह सौदे का भाव ‘आकर्षक ऑफर’ जैसा प्रस्तुत करती थी. बोलती इस अंदाज में थी कि, लड़कों से फिर खरीदे बिना रहा नहीं जाता था. बोली-भाव सुनकर, लड़कों का मन फिर कहीं और नहीं लगता था. ‘जैसे-तैसे हो, अब तो बस कंचे खरीदने ही हैं’ की भावना सरोबार हो उठती. लड़के, कहीं से भी तीन पैसे का जुगाड़ कर लाते थे. फंड्स, जैसे-तैसे इकठ्ठा करते, जिसके लिए वे डगर-डगर घूमते. खरीददारी तो करनी ही होती थी, चाहे धरती पलटकर ‘कोष’ क्यों न जुटाना पड़े. जो उपाय चलन में थे, उनमें से मुख्य रूप से दो उपाय अपनाये जाते थे- खाली पड़े खेतों में रह गई अनाज की बालियाँ इकठ्ठा करते, बिलों-गड्ढों में पड़ी हुई बालियाँ बीनते. इस प्रकार, उनसे अनाज निकालकर, विनिमय में कंचे खरीदकर ही दम साधते थे. अथवा जहाँ-तहाँ से लोहा-लंगड़ ढूँढते. उसमें से धातु छाँटते और कबाड़ी को बेचकर कामभर की ‘राशि’ जुटा ही लेते थे. लड़कों की वह ‘स्पिरिट’ देखते ही बनती थी.
कंचे बेचने के फौरन बाद, वो लड़की, लड़कों को तरह-तरह से उकसाती थी. बस एक बाजी खेलने के लिए किसी भी तरह से उन्हें राजी कर जाती, “खेलेगा मेरे साथ. आता भी खेलना या फिर यूँ ही खरीद लिए. है दम.” इस तरह की चुनौती सुनकर लड़कों को आग सी लग जाती थी. वह चुनौती देती भी मर्मभेदी शब्दों में थी. ऐसे जुमले, जिनसे अभिमान आहत होता हो, जिनसे अस्तित्व-बोध को चोट पहुँचती हो. चैलेंज सुनकर, मना कर भी कैसे सकते थे.
तो लड़के उसके साथ खेलने को बेचैन से हो उठते. खेल में दो-दो हाथ दिखाने को बेताबी सी दिखाने लगते. एक बार जुबान दे दी, तो दे दी. फिर पीठ फेरने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. शीघ्र ही क्रेता-विक्रेता मैदान में उतर पड़ते. बस भूमिका बदल जाती थी. अब वे प्रतिद्वंदी की भूमिका में होते थे. खास बात यह थी कि, पहला चांस हमेशा वह खुद लेती थी और शुरुआत से ही खेल में बढ़त बनाए रखती. खिलाड़ियों पर मानसिक बढ़त लेने के बाद, तो उसकी बन आती थी. चाहे पिल्ला कितनी ही दूर क्यों ना हो, तो भी वह सटीक निशाना साधती. कैसे भी हो, कंचे को गड्ढे में पहुँचाकर ही मानती थी. खिलाड़ी हैरत में पड़कर रह जाते. हर बार, हर राउंड में, वह लड़कों को चक्कर में डालकर रख देती . वह चाहे इस ओर से फेंके, चाहे उस ओर से, कंचा हमेशा लक्ष्य पर जाकर ही ठहरता था.
ऐसा कोई लड़का नहीं था, जिसको उसने न पछाड़ा हो. वह हर किसी से आसानी से बाजी मार लेती थी. उसका यह कौशल, कुदरती था या अभ्यासजन्य, लड़के सोच में पड़कर रह जाते. एक किस्म से कंचे खेल में जीतना, धीरे-धीरे उसकी सहज वृत्ति बन चुकी थी. वह अनायास ही, अनजाने में भी खेलती, तो भी उसका कंचा, ढलान के सहारे लुढ़कते हुए ठीक ‘पिल्ले’ में गिरकर ही मानता था. काफी सोच-विचार के बाद, लड़कों ने आरोप लगाया कि, वह घरेलू मैदान होने का भरपूर फायदा उठाती है. अपनी पिच की उसने इतनी प्रैक्टिस की हुई है कि, खेल-खेल में भी उसका अनुमान हमेशा सटीक ठहरता है और इस बात का वह ‘फुल एडवांटेज’ लेती है. तभी तो, खेलने के लिए तरह-तरह से उकसाती है. एक तरह से, एकदम घेर के खिलवाती है. मना करने पर, अवहेलना के साथ मजाक उड़ाती है. कोई उससे बच के नहीं निकल सकता. नतीजतन, एकदम खाली करके धर देती है और ‘खोक्खल करके’ घर भेजती है . चाहे वह चूना लगाकर घर भेजती थी, एकदम ठन-ठन गोपाल करके, तो भी लड़के, उसके साथ खेलते थे. चाहे, बेबस होकर खेलते हों. खेलते जरूर थे. खेल छोड़कर भाग नहीं सकते थे. खेल का कायदा ही यही रहता था.
आखिर में वह दिन आया, जब एक लड़के ने उसे खुलकर चुनौती दी. पहले तो वह चांस को लेकर उससे भिड़ गया. लड़की ने सारे पैंतरे आजमाए, लेकिन लड़का काफी ढीठ निकला. लड़की जब मानी नहीं, तो टॉस करने तक नौबत जा पहुँची. ‘गील-सूख करके’ पत्थर को हवा में उछाला गया. लड़का बड़ा किस्मत वाला निकला. वह आसानी से टॉस जीत गया. तमाशबीन लड़कों की तो खुशी का ठिकाना ही नहीं था. बेचारे कब से सताए हुए थे. लड़के का उत्साह देखकर, उनकी आस बंधने लगी. उसकी जीत में, वे अपनी जीत देख रहे थे. खेल शुरू ही हुआ था, लड़के ने कंचा इतनी जोर से मारा कि, जब उसका कंचा दूसरे कंचे से टकराया, तो दूसरे कंचे के दो टुकड़े होकर रह गए. लड़की हैरान थी. उसके घरेलू मैदान पर उससे बेहतर प्रदर्शन करने वाला कोई सूरमा, उससे पहली बार टकराया था. तत्पश्चात् लड़के ने बड़े आराम से कंचा पिल्ले में उतार के रख दिया. वह आसानी से बाजी जीत चुका था. जीते हुए कंचे के एवज में, जब उसने लड़की से नया कंचा मांगा, तो वह अड़कर रह गई. उसने तुनककर कहा, “वो जो दो टुकड़े वाला कंचा है, वही तो तुमने जीता है.” फिर तमाशबीनों की तरफ दुहाई देते हुए बोली, “क्यों भई, वही तो जीता है ना इसने.” फिर प्रतिद्वंद्वी लड़के से बोली, “बड़े आये नया माँगने वाले. उठा, उसे चुपचाप.”
तकनीकी रूप से लड़की सही थी, लेकिन खेल का तकाजा कहता था कि, अच्छे परफॉर्मेंस के एवज में उसे लड़के को नया कंचा थमा देना चाहिए था. आखिर स्पोर्ट्समैन स्पिरिट भी तो कोई चीज होती है. एक ही कंचे की बात तो थी. वह खुद कितने समय से जीतती चली आ रही थी. आज जब पहली बार ऊँट पहाड़ के नीचे आया, तो ऐसा बर्ताव करने लगी. काफी देर तक झाँय-झाँय मची रही. आखिर में इस गेम को ड्रा घोषित किया गया. जब दूसरी बाजी की बात आई, तो वह बोली, “मुझे बहुत से काम पड़े हैं. अभी फुर्सत नहीं. फिर कभी आना.” इतना कहकर, वह मैदान छोड़कर चल दी. तमाशबीन लड़के, हैरत में पड़कर रह गए और उसके गमन को टकटकी बाँधे देखते रहे.
इंतजार करते-करते लड़के थक गए. अंधेरा घिर आया तो वे भी घर चले गए. कल की बात भूले नहीं थे, अगले दिन फिर आए. अब लड़कों ने एक नई तरकीब खोज निकाली, जब भी कंचे खरीदते, उस लड़के को हरदम अपने साथ रखते. लड़के का टोटके की तरह इस्तेमाल होता रहा और लंबे समय तक चूहे-बिल्ली का यह खेल चलता रहा. इस बीच उसके व्यवहार में काफी परिवर्तन दिखाई दिया, चूँकि उसे लगातार चुनौती मिल रही थी. जब-जब लड़का साथ दिखता, क्या मजाल कि वह कभी बाहर आई हो. हर बार ‘दुकान छोड़कर नहीं आ सकती’ का बहाना करती रही. उसी के ‘होम ग्राउंड’ पर खेलने का उस पर काफी दबाव बनाया गया. उसे पहला चांस देने का पैंतरा तक फेंका गया. जबरदस्त जोर आजमाइश हुई, लेकिन वह टस-से-मस नहीं हुई.
लड़के, उसकी इस करतूत से भारी खफा थे. क्षुब्ध होकर उन्होंने एक स्पेशल प्लान बनाया. तब गन्ने की फसल बहुतायत में होती थी. उनके घर की दाईं ओर, गुड़ बनाने का कारोबार होता था. फर्स्ट क्लास क्रेशर लगा हुआ था. चरखी में गन्ना-पेराई चलती रहती थी. वहाँ से कंक्रीट की एक ढ़लवाँ सी पक्की ड्रेन थी, जिसके सहारे पेरे गए गन्ने का रस, सीधे उबलते हुए कड़ाहे में गिरता था. कड़ाहे पर गुड़ पकता रहता था, जो आस-पास खूब महकता रहता था. वातावरण में सोंधी गमक फैली रहती थी, वह सुगंध, जिसे शास्त्रों में ‘अग्निहोत्र सुगंध’ के नाम से जाना जाता है. जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि, वह मन और मस्तिष्क के तनाव को एकदम शांत करके रख देती है. उस खुशबू को पाते ही लड़कों का संताप अचानक खत्म होकर रह जाता. तब तक लोहे का दरवाजा अथवा गेट-सिस्टम चालू नहीं हुआ था. घरों में चहारदीवारी नहीं होती थी. उसके स्थान पर, सुरक्षा के लिए घेरबाड़ की प्रथा चलन मे थी. खेतों में तो वो नाममात्र के लिए होती थी. सीमा-रेखा पर कुछ टहनियाँ रोपी जाती थीं और थोड़े-थोड़े अंतराल पर झरबेरी की काँटेदार झाड़ियाँ.
पाठशाला की खिड़की से भीनी-भीनी सुगंध सूँघकर, लड़के उसके प्रभाव में आए बिना नहीं रह पाते थे. नतीजतन, हाफ टाइम में बाड़ पर सेंध लगाए हाजिर मिलते. वे खुलकर नहीं जाते थे, पाँच-पाँच की छोटी-छोटी टुकड़ियों में धावा बोलते थे. एकदम ‘अंडरकवर एजेंट’ की तरह. इंटरवल तथा छुट्टी के समय, छुपते-छुपाते वहाँ तक पहुँचते. चार लड़के सड़क पर प्रतीक्षा करते हुए मिलते थे, साथ-साथ निगहबानी भी रखते. एक बच-बचाकर घेरबाड़ लाँघकर अंदर चला जाता था. वह तिरछी चितवन से इधर-उधर झाँकता. फिर एकबार ठिठककर देखता. तत्पश्चात् साक्षात् दंडवत् हो जाता और चतुष्पद बनकर सीधे ड्रेन से मुँह लगा लेता था. विशेष परिस्थितियाँ, विशेष मनोवृत्ति पैदा करने में सहायक होती हैं. परिस्थिति की माँग यही रहती थी. हालांकि, इस बात की बहुत कम आशंका रहती थी, तो भी ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ माना जाए कि अगर कहीं किसी ने देख ही लिया तो इस ‘पॉश्चर’ में बहाना गढ़ने में आसानी पड़ती थी, “नाली में तिनके पड़े हुए है. कोई ध्यान भी नहीं देता, अजीब लोग हैं. मैं तो बस तिनके निकाल रहा हूँ.” इसके विपरीत अगर वह चुल्लू बनाकर रस पीता, तो शर्तिया पकड़ा जाता. इसलिए लड़के हमेशा, गाय की तरह सीधे मुँह लगाकर रस पीते थे. चोरी से पीते थे, लेकिन पीते भरपेट थे. भय हमेशा बना रहता था, लेकिन फिर भी वे मनमानी करके ही मानते थे. छककर पीते थे, जाने फिर ऐसा अवसर मिले ना मिले. इसलिए क्यों न मनमानी कर ली जाए. फिर जम्हाई लेते हुए दुलकी चाल से बाहर निकल पड़ते. फिर कोई दूसरा जाता. बारी-बारी से इसी क्रम को कई बार दोहराया जाता था. फ्रीफंड में अच्छी-खासी दावत हो जाती थी.
स्कूल पहुँचकर लड़के डकार लेते, फिर मुँह पोंछते. तो उस स्थान पर अक्सर तांता लगा रहता था. अच्छी-खासी चहल-पहल मची रहती. कुछ लड़कों ने तो हाफ टाइम में खाना खाने घर जाना ही छोड़ दिया. डायरेक्ट एनर्जी ड्रिंक जो मिलने लगी थी. फिर उसे छोड़कर, रूखा- सूखा खाने घर क्यों जाते. निष्पक्ष रूप से कहा जाए तो उन्हें रस पीने की लत सी पड़ गई थी, इंस्टेंट एनर्जी. रस पीकर, लड़के तुरंत अपने को ऊर्जावान सा महसूस करने लगते थे. फिर कंचे हारने का कोई मलाल भी नहीं रहता था. ड्रिंक में पचास परसेंट सुक्रोज मिला रहता था, वो भी डायरेक्ट सोर्स पर.
त्योहारों का सीजन था. दशहरे-दीवाली के बीच का समय रहा होगा. जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, उनकी दुकान सामान से ठसाठस भरी हुई रहती थी. किराने के सामान से लेकर, पटाखे-पोस्टर-लड़ियाँ सबकुछ. शाम का वक्त था. उस दुकान पर छोटे बच्चे बैठे हुए थे. वह लड़की भी दुकान में थी. दुकान उसकी निगरानी में थी और छोटे बच्चे भी. तभी शायद बच्चों की लापरवाही से दुकान के अंदर आग लग गई. भारी अफरा-तफरी मची हुई थी. पटाखे खुद-ब-खुद छूटते जा रहे थे. भारी हो हल्ला मचा हुआ था, जिसे सुनकर दुकानदार ने दुकान के अंदर दौड़ लगा दी. उसने आग बुझाने की भरसक कोशिश की, लेकिन जब उसने देखा कि आग बुझाए नहीं बुझ रही है, तो उसने हादसा टालने के इरादे से ज्वलनशील पदार्थ अर्थात् पटाखों के पैकेट-के-पैकेट बाहर फेंकने शुरू कर दिए.
तभी वहाँ से भाई चिंतामणि का गुजरना हुआ. वह जानवरों को लेने जंगल जा रहा था. उसने सड़क पर पटाखे-ही-पटाखे पड़े देखे, तो उसके मन में उत्साह की लहर दौड़ गई. सड़क पर बेतरतीब ढंग से पटाखों की ताबड़तोड़ बौछार बिखरी पड़ी थी. उसने मन में सोचा कि, वह कहावत झूठ नहीं हो सकती, ‘भगवान जब देता है, तो छप्पर फाड़ के देता है.’ इस बात का उसने प्रत्यक्ष अनुभव किया. उसने आव देखा न ताव और विद्युत् गति से पटाखे बीनने शुरू कर दिए. वह जल्दी-जल्दी सड़क पर पड़े हुए माल को समेटने में जुटा हुआ था . पटाखों से उसे भारी लगाव था, इसलिए उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा. उसने एकबार सड़क की दोनों ओर देखा. देखा इस इरादे से था कि, कहीं कोई और तो नहीं चला आ रहा है. अगर कोई और बीच में आ गया, तो हिस्सा बाँटना पड़ जाएगा. इसलिए वह इस अवसर को नहीं चूकना चाहता था. उसने जल्दी-जल्दी हाफ पैंट की जेबें भर दीं. फिर दो बटन खोलकर बुश्शर्ट के अंदर पटाखे भरे . पटाखे बहुत ज्यादा थे, तो उसने एक उपाय सोचा. घास की पल्ली फैलाई और पटाखे उसमें बटोरने शुरू कर दिए. तभी दुकानदार ने अंदर से झाँककर देखा, तो उसे अंदेशा हुआ, ‘काफी देर से ये लड़का उकड़ूँ होकर, आखिर कर क्या रहा है. आगे क्यों नहीं बढ़ता.’ दुकानदार रोबीले व्यक्तित्व का स्वामी था और किसी भी बात पर नाराज होने के लिए प्रसिद्ध था. उसने चिंतामणि की चितवन और हाव-भाव देखे, तो उसकी भवें तनकर रह गई. जब उससे रहा नहीं गया, तो वह दुकान के अंदर से गर्दन निकालकर कँटीले स्वर में चिल्लाया, “ओ, हो क्या रा ये. खैरात नी बँटरी ह्याँ.”
“अपनी अपनी किस्मत की बात है.” उसने झुके-झुके जवाब दिया और पटाखे बटोरने की रफ्तार बढ़ा दी. उसकी इस हरकत से दुकानदार के माथे पर बल पड़कर रह गए. उसे गुस्सा तो बहुत आया. फिर उंगली नचाकर बोला, “ह्याँ आग लगी पड़ी है और तुझे सवरे को बटोरणे की सूझ री. बाप का माल समझ रख्या क्या.” समेटने की कार्रवाई पर, उसने कड़ा ऐतराज जताया, और उसकी कड़ी निंदा की. चिंता भाई पर इन बातों का कोई असर नहीं पड़ा. अपना काम जारी रखते हुए उसने दुकानदार को लावारिस वस्तु पाने का उसूल बताया, “जो पड़ी हुई चीज को सबसे पहले देखता है और उसे सबसे पहले उठा लेता है, चीज उसी की हो जाती है.”
इस जवाब को सुनकर दुकानदार चकरा गया और गुस्से में आपा खो बैठा. उसे धौंस दिखाते हुए बोला, “रुक सवरे रुक. रुक रा नी रुक रा.” चिंता भाई पहले तो आगे खिसकते हुए धावन-मुद्रा के लिए तैयार हुए. फिर स्थिति स्पष्ट करते हुए बोले, “मैंने तो सड़क में पाए. मुझे मिले, तो तुम्हें क्यों दर्द हो रा.” “रुक, लौटा इधर.” “क्यों लौटाऊँ, मिली हुई चीज में, हिस्सेदारी तो तब बनती है, जब दोनों को चीज एकसाथ दिखाई दे.” बात बिगड़ती देख, दुकानदार अपने कंफर्ट लेवल से बाहर आया, तो लड़का चौकन्ना हो गया और जल्दी-जल्दी पटाखे उठाने लगा. वह भलीभांति जानता था कि, अगर वह इस समय चूक गया, तो सारी मेहनत अकारथ चली जाएगी और अगर इसने पकड़ लिया, तो यह वापस गिनवाकर धर देगा. जैसे ही दुकानदार सड़क पर पहुँचा, उसने आंखें बंद की और अंधाधुंध भागना शुरू कर दिया. वह इतनी तेजी से भागा कि, फिर उसका कहीं अता-पता नहीं चला. दुकानदार क्रोध में दाँत पीसता रह गया, लेकिन कर कुछ नहीं पाया.
कई दिनों तक लड़का, किसी तरह की अनहोनी को टालने के लिए, लड़कों के झुंड में चलने लगा. वह हमेशा लड़कों से घिरा रहता था. एक दिन दुकानदार ने मौका देखा और झुंड को रोक लिया. उससे उसने पहले तकरार की, फिर उस घटना को याद करके आग उगलने लगा. लड़का मुँह बिचकाकर बोला, “सड़क पे पड़ी चीज मिलने पे ऐसाई होता है. ये कोई नई बात नहीं.” उसके साथ के लड़कों को बात जँच गई. सबने सिर हिलाकर हामी भरी. बेचारा दुकानदार, माथे पर हाथ धरकर ठगा सा रह गया.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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