हिंदी सिनेमा का एक सेट फार्मूला रहा है— नायक-नायिका. दोनों में अमीरी-गरीबी की खाई. इस खाई को पाटने की जद्दोजहद के बीच, थ्रिल- एक्शन-सस्पेंस का स्पाइसी मसाला. घनघोर रुमानियत, मेलोडियस सॉन्ग्स. दोनों के विवाह की शहनाई बजना और द एंड का स्क्रॉल.
आमतौर पर यह एक सुखद परिणीति मानी जाती है. दर्शक खुशी-खुशी घर लौट आते हैं, जबकि एक औसत भारतीय के वास्तविक जीवन में जद्दोजहद इसके ठीक उलट रहती है. विवाह के बाद नायक को आटे-दाल का भाव मालूम पड़ता है. असली रूमानियत तो वो है, जो वैवाहिक जीवन में उपजे. हिंदी सिनेमा में दांपत्य प्रेम के गीत बहुत सीमित हैं. आज इसी दांपत्य- प्रेम पर आधारित दो गीतों की चर्चा करेंगे. दोनों में एक सी सिचुएशन है. मानों दूसरा गीत, पहले गीत की कड़ियों को आगे बढ़ाते हुए लिखा गया हो. मोटा मोटी देखा जाए तो दोनों में अद्भुत समानता दिखाई देती है.
कोई आया…धड़कन कहती है
धीरे से पलकों की गिरती उठती चिलमन कहती है
होने लगी किसी आहट की गुलकारियाँ
परवाना बनके उड़ी दिल की चिंगारियाँ…
चाँद हँसा लेके दर्पन मेरे सामने
घबरा के मैं लट उलझी लगी थामने
छेड़ गई मुझे चंचल हवा…
फिल्म लाजवंती (1958) का यह गीत सुनते ही एक उल्लासमय आलोडन छाने लगता है. मजरूह के बोलों को आशा भोसले ने बड़े उल्लास के साथ गाया है. ‘धीरे से पलकों की गिरती उठती चिलमन कहती है…” पर नरगिस का अभिनय चार चाँद लगा देता है.
कामकाजी पति(बलराज साहनी) की प्रतीक्षा करते हुए वह पियानो पर गीत गा रही होती है. मानो उसे पति के घर पहुँचने का आभास सा हो जाता है. वह उसकी पीठ की तरफ खड़ा रहता है. इस गीत में गृहणी का सहज अधिकार दिखता है. भावनात्मक रिश्तों की ऊष्मा झलकती है. उसका सैंडिल फेंककर, पति के सामने लास्य दिखाना, उसके उल्लास को व्यक्त करता है.
फिल्म लाजवंती को बेस्ट फीचर फिल्म का नेशनल अवॉर्ड मिला और यह फिल्म कान फिल्म समारोह के लिए भी नोमिनेट हुई.
दूसरा गीत, फिल्म अनुपमा (1966) का है. यह गीत नायक-नायिका पर न होकर, चरित्र अभिनेताओं (तरुण बोस, सुरेखा पंडित) पर पिक्चराइज हुआ है. गृहणी पति की प्रतीक्षा करते हुए पियानो पर इस गीत को गाती हैं. चंद शब्दों में पूरे मनोभाव आ जाते हैं. कैफी आजमी के बड़े खूबसूरत बोल हैं—
धीरे-धीरे मचल ऐ दिल-ए-बेकरार
कोई आता है
यूँ तड़प के न तड़पा मुझे बालमाकोई आता है…
उसके दामन की खुशबू हवाओं में है
उसके कदमों की आहट फिजाओं में है
मुझको करने दे, करने दे, सोलह सिंगार
कोई आता है…
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
गर्मियों का सीजन शुरू होते ही पहाड़ के गाड़-गधेरों में मछुआरें अक्सर दिखने शुरू हो…
पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिशाएं देखो रंग भरी, चमक भरी उमंग भरी हम…
घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गाँव था. साल, शीशम, आम, कटहल और महुए…
-रामचन्द्र नौटियाल अंग्रेजों के रंवाईं परगने को अपने अधीन रखने की साजिश के चलते राजा…
-अशोक पाण्डे पहाड़ों में आग धधकी हुई है. अकेले कुमाऊँ में पांच सौ से अधिक…
हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है. उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे.…