तथाकथित विकास के नाम पर वर्षों पुराने हरे पेड़ काटने वालो इसकी हाय से बचोगे नहीं तुम देख लेना. पूछ लो कुछ पुराने लोगों के बारे में. उनके परिवारों की क्या स्थिति है आज? गर्मी के दिनों में बटोही को छाँव कहाँ से मिलेगी? तुम्हें तो खैर हरे पेड़ की छाँव नसीब ही न हो कभी. चिलचिलाती धूप में तरस जाओ तुम पेड़ की छाँव पाने के लिए. सड़कों के किनारे, नालियों में, गूलों में तुमने अतिक्रमण करवाया है और अब सड़क चौड़ा करने के नाम पर इन बेजुबान पेड़ों की हत्या कर रहे हो? अतिक्रमण हटवाते, नियमों का सख्ती से पालन करते व करवाते तो इन पेड़ों को काटने की नहीं, बचाने की सोचते.
एक सितम्बर से एक हफ्ते का “हिमालय बचाओ” का ड्रामा करोगे और लोगों को शपथ भी दिलवाओगे. उन्हें पेड़ों की रक्षा करने और पेड़ लगाने को भी कहोगे, लेकिन तुम्हारी गिद्ध दृष्टि हमेशा इन पेड़ को काट डालने पर ही रहती है. कितने दोगले हो रे तुम लोग? अपनी नहीं तो अपने बच्चों के बारे में सोचो.
इस साल तुम लोगों की इसी तरह की जाहिल हरकतों के कारण हल्द्वानी जैसे शहर में भी तापमान 42 डिग्री पार कर गया था. उसके बाद 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस पर तुम लोगों ने पेड़ लगाने का भरपूर नाटक किया, जो तुम अपनी गिद्ध मंडली के साथ हर साल करते हो. तुम लोगों का यह विद्रूप प्रहसन सावन के पूरे महीने भी चलता रहा. जगह-जगह तुम हरे पेड़ों के हत्यारे पेड़ लगाने, उन्हें बचाने का नाटक करते रहे. कब तक करोगे ऐसे नाटक?
जरा भी दया, शर्म नहीं बची है तुम में? हर रोज किसी न किसी कालेज, स्कूल व संस्थान में जाकर पेड़ों पर खूब लम्बे-चौड़े व्याख्यान देते हो. कितने निर्दयी और भयानक हो तुम? अभी भी वक्त है पेड़ों को काटने की नहीं बचाने की सोचो. उन्हें बचाकर कैसे काम किया जा सकता है इसमें लगाओ अपनी यह बुद्धि अगर बची हुई है तो? वैसे लगता नहीं है कि तुम्हारे अन्दर बुद्धि, विवेक, दया, करुणा जैसा कुछ बचा हुआ भी है.
जिन पेड़ों की हत्या करवाने से पहले तुममें जरा भी दया व करुणा का भाव नहीं जागा, उन पेड़ों को इतना बड़ा होने में चालीस, पचास, साठ, सत्तर साल लगे होंगे और तुमने उन्हें कुछ ही मिनटों में जमीन पर लिटा दिया. पूरी-पूरी सड़कें विरान कर दी हैं तुमने. कैसे विकास के पैरोकार रे तुम? जो सड़कों को हरियाली से सूना कर दे. जो बटोही के लिए चिलचिलाती गर्मी में दो पल के लिए हरी छॉव न रहने दे, जो विभिन्न प्रजाति के सैकड़ों पक्षियों के रहने के ठौर को खत्म कर दे, जो सड़कों से फलदार वृक्षों का सफाया कर दे. विकास के नाम पर किस तरह के हत्यारे पैदा हो गए हैं समाज में चारों ओर?
कहॉ हैं वे लोग जो हर साल कथित तौर पर हजारों, लाखों पेड़ लगाने के दावे करते हैं, लेकिन वर्षों पुराने पेड़ों की हत्या कर दिए जाने पर चूँ तक नहीं करते. पेड़ लगाते रहना. आज पेड़ लगाने की कम, बल्कि उन्हें किसी भी तरह से बचाए रखने की आवश्यकता अधिक है. जब पेड़ों की हत्या करने से बचाओगे ही नहीं तो उन्हें लगाकर क्या करोगे?
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जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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1 Comments
प्रशांत निगम
बेहतरीन और सटीक लेख, लेकिन क्या इस निर्लज़्ज़ व्यवस्था के ठेकेदारों पर कोई असर होगा, संशय नहीं बल्कि यक़ीन है। पहले नैनीताल रोड अब यहाँ ठेले, दुकानें और रिक्शे टेम्पो खड़े होंगे और हफ़्ता/महीना का इज़ाफ़ा हो जायेगा। पूरा डामरीकरण कर भूज़ल का स्तर और नीचे कर नलकूपों का मोटर फूँक वहाँ से भी आय का स्रोत पैदा करेंगे भले ही पानी के स्रोत विलुप्त कर दें, ये तकनीक पता नहीं किन तकनीकी महा विद्यालयों से पढ़ कर आते हैं। विनाश काले विपरीत बुद्धि और सर्वनाश का यहाँ नया नाम है ‘विकास’