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जब हम असभ्य थे, मूर्ख थे तब हम प्रकृति का सम्मान करते, उसे पूजते और प्रकृति सम्मत जीवन जी रहे थे. अब सभ्य हैं ज्ञानवान हैं प्रकृति का अनादर और अवहेलना कर रहे हैं. ज्ञान की दुकानें क्या खुली. अनेक रहस्य उद्घाटित हुए. हम ज्यादा सक्षम हुए. जो छुपा था उसे हमने हासिल किया. ज्ञान के साथ विज्ञान भी अब हमारी मुट्ठी में था. सपने हकीकत में तब्दील हुए लेकिन जो आनंद सपनो का था वो हकीकत में कहां?
(Column by Jageshwar Joshi)
जब हकीकत में कुछ न था तो सपनों में क्या कुछ न था. ख्याली पुलाव पकाते, पंख लगा उड़ते. मछलियों सा तैरते, जन्नत की हूरों का हाथ पकड़ सैर करते. फिर सपने देखने में आखिर घिसता भी क्या था.
आज फर्क यही है सपनों को स्थूल रूप मिल गया. सपनों को साकार करने हेतु हमने जमीन खोदी, पहाड़ तोड़े, बेतहाशा पेड़ काटे. स्वच्छंद अल्हड़ नदियों को कैद किया. हवा पानी मिट्टी के साथ खिलवाड़ किया. सपनों का पीछा करते हमने बेरहमी से गांव छोड़ें शहर बसाए. बड़े-बड़े मकान बनाए. बैलगाड़ी छोड़ बड़ी महंगी लग्जरियस कारों पर सवार हुए. धुंआ उड़ाते तब जा के अब हम काफी सभ्य हो पाए.
सभ्य और शिक्षित होने से हमारी क्षमता और प्यास और बढ़ती गई. हम आवश्यकता से ऐश्वर्य की यात्रा पर निकल पड़े. पहले छोटे से मकान में भरपूर परिवार रहता था. अब तो बड़े से मकान में सन्नाटा पसरा है. मकान ही नहीं पकवान भी हमारे जीवन की दौड़ में शामिल हो गए हैं. जिस स्थान पर हम बड़े सकून से जी रहे थे. वह स्थान हमें अपनी अभिलाषाओं के आगे गौण लगने लगा. गांव टूटे शहर उपजे.
गांव का मतलब ही असभ्य गरीब और संकीर्ण होता है. अन्न धन से परिपूर्ण घी-दूध से भरपूर और शुद्ध जीवन था. जी हां शारीरिक श्रम तो था. गांव में न कोई साहब था न नौकर. बड़े बूढ़े थे. दादा थे दादी थी. ताऊ-ताई ,चाचा-चाची, बुआ, दीदी, भाई-भाभी सब थे. मान था सम्मान था. फटे हाल थे पर बेहाल न थे. ईर्ष्या थी द्वेष भी था, ऐठन और घुटन न थी. चेहरे दर्पण से थे, आंसू थे, दर्द था, होंठो पर मुस्कान व अवसाद की रेखाएं भी स्पष्ट दिखाई देती. कोई किसी से अनभिज्ञ न था. सुख-दुख मिल बैठ बांटते. हंसी भी उन्मुक्त थी.
(Column by Jageshwar Joshi)
आज ये चेहरे बाजारू रंग रोगन से पुते मैजिक मिरर से दिखाते हैं. अब तो हद हो गई चेहरा और भाव भंगिमा बाज़ार डिजाइन करता है. तौर-तरीके और तहजीब ऑन लाइन हो गए हैं. आज बच्चे जन्म नहीं लेते पैदा होते हैं. पहले बच्चे मां-बाप, दादा-दादी, चचा-चाची की अंगुलिया पकड़ कर बड़े होते थे अब तो वो अंगुलियाँ बाजार का हाथ पकड़ उसी के इशारों से खाती पीती, लिखती-पढ़ती, सजती-धजती और नाचती फिरती हैं. परिपक्व होने पर बाजार में बिक जाती हैं. फर्क बस ये है पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे. अब बाजार के.
अपने गांव में हम दिनभर कठिन मेहनत करते. शाम को लड़ते-भिड़ते और थक कर गहरी नींद सो जाते भावनाएं भी कथित आधुनिकता के रेपर से पैक न होती. सुबह होती सब भूल जाते. गिले-शिकवे होते, समाधान भी होता. फिर तो मिल के चाय पीते. मेरे घर की चाय पत्ती तेरे घर की गुड़ की डली कैसे सुड़-सुड़ पीते. सहस्तित्व का सवाल था. सब बराबर के गरीब थे. किसी के घर चायपत्ती होती किसी के घर गुड़, सब मिल के पीते. भोजन कम था पर स्वाद भी ज्यादा था. तब भूख से मरते थे. आज ज्यादा खा के मर हैं. मर तो रहे ही हैं न.
खाना ज्यादा है संतुष्टि कम. स्वाद ने भोजन को निगल लिया है. स्वाद ढूंढने नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे चाटने भटकना पड़ रहा है. मूर्ख थे वे लोग जिनका कलाम था भूख मीठी या भोजन? अब भूख और भोजन स्वाद के गुलाम है. बाजार थाल सजाए बुला रहा है. आओ मेरे चटोरों खूब खाओ, बेखौफ़ खाओ. चटोरी जुबान को खूब चलाओ. चिंता की कोई बात नहीं. चाट की दुकान के ठीक बगल में डॉक्टर की दुकान है. सेवा को तैनात है.
(Column by Jageshwar Joshi)
आपकी जेब तंदुरस्त हो तो सेहत की कहे चिंता. चटोरे न हों तो बेचारे डॉक्टर कहां जायेंगे. इन्हें भी तो मां बाप ने पेट काट सब कुछ लुटा के डाक्टरी करवाई है. आपको भी मां बाप ने खुद भूखे पेट यह कर, भरपूर खाने के लायक बनाया है. इस मुहिम में खुदा न खस्ता निपट भी गए. तब भी तुम्हारे नाम की दावतें होगी. बाजार वहां भी तो तुम्हारे साथ खड़ा होगा. चटोरे तुम्हारा नाम लेके खूब खाएंगे. लेकिन याद उन्हें भी रखना जो बोते हैं उगते हैं अपने खून पसीने से सींचते हैं. तब तुम्हें खाने योग्य बनाते हैं, गांव में रहते हैं. ये खत्म होंगे इनके गांव खत्म हुए तो तुम स्वादू कहीं के नहीं रहोगे. तब तुम क्या पैसे खाओगे. पैसे खा कर देखो इसमें कोई स्वाद नहीं होता. अन्न और स्वाद तो वे गरीब पैदा करते हैं जो गांव में अभाव में भूखे प्यासे रहकर तुम्हारे लिए स्वाद का प्रबंध करते हैं.
(Column by Jageshwar Joshi)
वक्त का तकाजा है. आज संत शंट हैं. शैतान सीना तान स्टंट करते नजर आ रहे हैं. नालायक नेता बन गए. चालाक व्यापारी बन गए. मुन्ना भाई अधिकारी बन गए और कुछ तो ज्यादा पाने की उम्मीद में कसाई बन गए.इतना सब करने के बाद सबसे बुरी बात हुई कि प्रकृति से कटे स्वार्थ व प्रसिद्धि के मेकअप से लिपे पुते लेकिन ज्ञान विज्ञान की भट्टी में तपे लोग पर्यावरण के नाम पर प्रतिबंध. पर्यटन के नाम पर आजादी. समाज व सरकार को दौलत और अपसंस्कृति की कदमताल कराते लोग . इनकी नीतियों ने गरीबों से गांव छीन कर शहरों में ला पटका. जो गांव में मालिक थे. शहरों में गुलाम बना डाला. गरीबों की दौलत छीनने वाले लोग अब गांवों में अमीरों के सैर सपाटे का इंतजाम कर प्रकृति काम तमाम करने लगे हैं. जल जंगल जमीन से लेन-देन करते लोगों को प्रतिबंधित किया जाने लगा क्योंकि हम सभ्य होने के साथ हमारा बौद्धिक स्तर आसमान छू रहा है.
अनेक प्रकार की नई-नई खोजें और सुझाव यह विद्वान लोग दे रहे अरे सबसे पहले इस बात का जवाब दो हम व्यक्तिगत स्तर पर पर्यावरण और प्रकृति के प्रति कितने संवेदनशील है? हर आदमी शहरी बनने और आवश्यकता से ज्यादा अमीर बनने की कोशिश कर रहा है अतीत को बेरहमी से ठोकर मार रहा है. और अपने चारों ओर इतने संसाधन इकट्ठा कर रहा है कि प्रकृति की ऐसी-तैसी तो होनी है पहले एक छोटे मकान में क्या रौनक थी. दस-दस बच्चों का परिवार रहता था. आज एक बड़े से मकान में कोई असहाय बूढ़ा चीख रहा “कोई है” और उसका कुत्ता दरवाज़े की ओर भौंक रहा है. कोई परदेशी राहगीर मदद करे तो कैसे करे? गेट पर स्पष्ट लिखा है – कुत्ते से सावधान.
नित घर टूट रहे हैं मकान बन बढ़ रहे हैं. आखिर मकान आसमान से तो नहीं टपकते हैं हमारे संसाधनों को खोदा-खादी कर ही तैयार होते हैं. कुल मिला कर संसार को कर्तव्यनिष्ठ नहीं प्यासे और भयभीत लोग संवार रहे हैं.
(Column by Jageshwar Joshi)
दुगड्डा, पौड़ी गढ़वाल में रहने वाले जागेश्वर जोशी मूलतः बाडेछीना अल्मोड़ा के हैं. वर्त्तमान में माध्यमिक शिक्षा में अध्यापन कार्य कर रहे हैं. शौकिया व्यंगचित्रकार हैं जनसत्ता, विश्वामानव,अमर उजाला व अन्य समसामयिक में उनके व्यंग्य चित्र प्रकाशित होते रहते हैं. उनकी कथा और नाटक आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुके हैं.
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