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ढलती उम्र में बेडौल शरीर की स्त्री को बच्चा ही ख़ास होने का एहसास दिलाता है

4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – 60 (Column by Gayatree Arya 60)
पिछली किस्त का लिंक: सभी मां-बाप बचपन से बच्चों को ‘सदा सच बोलो’ का पाठ पढ़ाते हैं

मेरे बच्चे ये सच है कि मैं अभी तुम्हें पैदा नहीं करना चाहती थी, क्योंकि मैं इस समय तक भी मां नहीं बनना चाहती थी. बेमन से तुम्हें पैदा करने को तैयार हुई थी मैं. लेकिन इसी कड़वे सच के साथ मैं तुम्हें एक मीठा सच भी बताना चाहती हूं वो ये, कि अब मुझे लगता है कि यदि मैं तुम्हारी मां नहीं बनती (हां, खासतौर से तुम्हारी, सिर्फ तुम्हारी!) तो बहुत कुछ मिस करती. ये सच है कि तुम्हारे आने से मेरी आजादी बहुत कम हो गई है कई चीजों में, मुझे पढ़ने-लिखने का समय भी बेहद तंगी में मिलता है, अपनी मर्जी से मैं जब चाहे तब सो नहीं सकती, कहीं आ-जा नहीं सकती. कभी-कभी मन करता है कि अब तुम्हें कोई और देख ले कुछ देर के लिए, थक जाती हूं मैं भी तो. लेकिन इस सबके बावजूद, तुम्हारा मेरी जिंदगी में होना मुझे बहुत बार जन्नत का भी अहसास दिलाता है. इसी से मैं तुम्हें कई बार ‘जन्नत’ नाम से भी बुलाती हूं.

मैंने तुम्हीं से जाना है, कि कैसे एक बच्चा किसी भी स्त्री को ढलती उम्र में, उस बेडौल शरीर की मालिक होने के बाद भी कितना-कितना विशेष, कितना खास, कितना खूबसूरत महसूस करवाता है. ऐसी उम्र और शरीर, जो स्त्री के लिए गढ़े गए सुंदरता के पैमानों में फिट नहीं बैठता. जब अक्सर ही स्त्री किसी चाहने वाले की हसरत नहीं होती. जब उसे कोई बहुत चाहत और प्यार वाली नजर से नहीं देखेगा, क्योंकि उसका पेट निकला होगा. (कम सोने से) काली हुई आंखें, थका चेहरा, बेड़ौल शरीर. ऐसे में सिर्फ और सिर्फ एक बच्चा ही उस स्त्री, लड़की को ये बेहद कीमती, बेहद जिंदादिल होने का अहसास दिलाता है, कि दुनिया चाहे जो कहे तुम अभी भी ‘सबसे सुंदर’ हो. ‘सबसे खास’ हो, ‘सबसे जरूरी’ हो. ‘पहली चाहत’ हो, ‘पहली जरूरत’ हो. ‘पहला प्यार’ हो. ये बेशकीमती अहसास एक ‘आम स्त्री‘ को सिर्फ और सिर्फ उसका बच्चा ही कराता है और वो भी ढलती और थकी उम्र के दौर में. जवानी में तो फिर भी कोई न कोई लड़का उसे सबसे सुंदर, खास आदि होने की बातें कहता है, पर वो सच नहीं होता. वो सिर्फ उस लड़की के शरीर तक पहुंचने का रास्ता भर होता है अक्सर ही (अपवाद छोड़कर), लेकिन तुम्हारी एक-एक नजर उफ्फ! क्या प्यार से और ठहरकर देखते हो यार. पागल हो जाती हूं मैं.

देखो जरा, किसी को खास बनाने के लिए कहां बड़ी-बड़ी बातों, भारी-भारी शब्दों की जरूरत है भला? अभी तुम्हें एक शब्द तक बोलना नहीं आता, फिर भी तुम ये बता पाते हो, जता पाते हो, अहसास दिला पाते हो, कि मैं तुम्हारे लिए कितनी खास हूं, ये सारी दुनिया जो हर कदम पर औरतों का साथ चाहती है, जो एक कदम भी हमारे बिना आगे नहीं रख सकती, कभी उन्हें ये अहसास नहीं दिलाती कि ‘तुम खास हो, बेहद खास’ कितने शब्द, कितनी भारी-भारी सोच, बड़ी-बड़ी बातें, विचार ये सब मिलकर भी अपने-अपने घर की स्त्रियों को कभी अहसास नहीं दिला पाते कि ‘तुम कितनी खास हो’. अपनी पूरी जिंदगी खपाकर भी कोई स्त्री अपने जीवन में इस एक छोटे से वाक्य तक का रिवार्ड तक नहीं पाती, कि ‘तुम बेहद खास हो, अहम हो. सबसे जरूरी हो.’ ये मैंने तुमसे सीखा है कि किसी को उसकी अहमियत बताने के लिए ‘शब्दों’ की नहीं ‘सोच’ की, एक ‘प्यार भरी नजर’ की, ‘चाहत’ की जरूरत है.

तुम्हें देखती हूं तो यकीन नहीं आता रंग कि तुम मेरे शरीर के भीतर थे. कैसे यार? हम दोनों के शरीर का कैसा अनोखा, आश्चर्यजनक रिश्ता है मेरी ‘खट्टी-मीठी.’ प्रकृति की सबसे ज्यादा अचरज से भरने वाली प्रक्रिया है उसका पुर्नउत्पादन. एक बीज से सैंकड़ों-हजारों बीज पैदा हो जाते हैं और उन हजारों में से हर एक दाना फिर से अपने जैसे सैंकड़ों-हजारों को पैदा करने की ताकत रखता है, बाप रे! तुम्हें मेरे भीतर इसी प्रकृति ने रोपा. उसी ने तुम्हारे बाहर आने का समय और रास्ता तैयार किया है. इस शरीर के भीतर तुम्हारे लिए खाना भी ये कुदरत ही देती है, मैंने इसमें कुछ भी नहीं किया है. बाप रे बाप, ये सच है, पर कितना-कितना अविश्वसनीय है. बावजूद इसके कि ये सब मेरे साथ हुआ है, मैंने इसे न सिर्फ देखा है, बल्कि उस हर पल को भोगा है  जिसमें तुम मेरे भीतर थे और जब तुम मेरे शरीर से बाहर आए. उसके बावजूद मैं इतनी अचरज से भरी हूं, जैसे ये कोई परी कथा हो, या किसी दूसरे लोक की कहानी और मैं हमेशा भरी रहूंगी इस अचरज से.

उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.

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Sudhir Kumar

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