4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – 49 (Column by Gayatree arya 49)
पिछली किस्त का लिंक: लेबर पेन के दर्द से मुक्ति के लिए मैं मरना भी मंजूर कर लेती
हॉस्पिटल में भर्ती होने के कुछ देर बाद मेरे दोनों हिप्स में भयंकर दर्द शुरू हो चुका था. नौ महीने से तुमने जो जड़े मेरे भीतर जमाई थी, उस दिन वे जड़े हिल रही थी, तो मुझे कितनी तकलीफ हो रही थी. मैं ठीक तरह से नहीं जानती कि तुम पर उस वक्त क्या बीत रही होगी मेरे बच्चे? हां लेकिन डिस्कवरी पर देखे एक प्रोग्राम ‘लाइफ इन वोम्ब’ देखने के कारण बस इतना जानती थी, तुम तक मेरी चीखें पहुंच तो जरूर रही होंगी. क्योंकि इस समय तक बाहर की तेज आवाजें तुम सुनने लगे होगे. लेकिन उसके बावजूद तुम्हें जरा सा भी अहसास नहीं होगा मेरी जान, कि तुम्हारी मां पर क्या बीत रही है? कि तुम्हारा अपनी मां के शरीर से अलग होना, उसके लिए कितना तकलीफ भरा है? कि तुम्हारा अपनी मां से मिलना, मां के पेट से निकल के उसकी गोद तक पहुंचना मेरे लिए कितना जानलेवा है. कि तुम्हारा उस अंधेरी कोठरी से, रौशनी में आने का सफर कितना दर्द और जख्म से भरा है? अंधेरे से उजाले का सफर अक्सर ही बेहद तकलीफ भरा होता है मेरी जान!
इसी भयानक दर्द के बीच मुझे टॉयलेट का प्रेशर बना मैं जैसे-तैसे टॉयलेट गई और बिना साबुन से हाथ धोए (साबुन की कोई व्यवस्था टॉयलेट में थी ही नहीं) वापस उसी बिस्तर पर लेट गई. कुछ देर बार नर्स ने मेरे बाएं हाथ में ग्लूकोज चढ़ाया और मेरे दर्द से करहाने पर मुझे डांटा, ‘क्या शोर मचा रही हो. अभी तो कुछ भी दर्द नहीं हो रहा.’ मैं कितना भी विस्तार से अपनी प्रसव पीड़ा के बारे में तुम्हें बताऊं, पर सच तो ये है कि मैं खुद भी उस दर्द को बयान नहीं कर पाऊंगी मेरे बच्चे! दर्द का वो समंदर बयान से परे है, वो एक ऐसा यातना शिविर है जिसमें कुछ औरतें अपनी मर्जी से जाती हैं और बहुत बार उन्हें मजबूर भी किया जाता है, बार-बार उसी यातना शिविर से गुजरने के लिए.
बैड के सिराहने की तरफ लगी दोनों लोहे की रॉड को, मैंने अपनी मुठ्ठियों से कस के भींचा हुआ था, ऐसे जैसे मेरे हाथ उनमें बांध दिये गए हों. मेरे ठीक सामने एसी चल रहा था, इसके बावजूद मेरा सिर पसीने से भीगा हुआ था. बीच-बीच में नर्स और दाई आती-जाती रहती थी. वे उस यातना शिविर की पहरेदार थी जैसे कि कहीं मैं बच के भाग न जाऊं वहां से. पर मैं कहां जा सकती थी भला, यातना शिविर से बच को कोई भाग सका है भला? कोई दाई पूछती ‘पहला बच्चा है?’ मेरे हां कहने पर सहानुभूति की पतली सी लकीर उनके चेहरे पर उभरती, जो मुझे बहुत अच्छी लगती थी.
दर्द के साथ-साथ मुझे भयंकर गर्मी का भी अहसास था, जैसे ही कुछ पलों को दर्द कम होता मैं उस एसी को देखकर कहती मन ही मन ‘शुक्र है एसी है, शुक्र है ए. सी ठीक मेरे सामने है.’ बावजूद उसके मैं पसीने में भीगी हुइ थी. दर्द अभी भी एक सर्किल में ही हो रहा था, कुछ सेकेंड के अंतराल में दर्द का दौर लौटता और मैं जोर से कर्राहती. वो पहली बार था, जब दर्द और तड़प में मेरे मुंह से ‘मां’ नहीं निकला, सिर्फ ‘आऽऽऽऽईऽऽऽऽ‘ निकल रहा था.
इसी तड़प और कराह के बीच मैंने अपनी बगल वाली स्त्री से लगभग गुस्से और बेहद तकलीफ से कहा था ‘कैसे यार. कैसे? क्यों दूसरा बच्चा पैदा करते हो. क्यों?’ पर जवाब में उस स्त्री कि सिर्फ कराहे ही मुझे मिली. मेरे पेट में फिर से टॉयलेट का प्रेशर बना, मैंने नर्स से हाथ से ड्रिप निकालने को कहा, लेकिन उसने टॉयलेट जाने से साफ मना किया. जब मैंने कहा कि ‘कपड़े गंदे हो जाएंगे’ तो उसने कहा ‘टॉयलेट नहीं आएगी, अंदर से प्रेशर बढ़ रहा है, आएगी तो आ जाने दो.’ मैं सोच रही थी कि कुछ देर बाद मुझे एनीमा दिया जाएगा शायद. दिया भी जाता है, पर पता नहीं क्यों, उस लेबर रूम में लेटी, दर्द में बुरी तरह सनी हुई, हम दोनों ही औरतों को एनीमा नहीं दिया गया.
जब-जब दर्द का दौरा लौटता मैं तड़प जाती, अपने हिप्स को उंगलियों से भींचती. तड़पती… कराहती… चिल्लाती दबी आवाज में. मैं साढ़े बारह का इंतजार कर रही थी. अब दर्द और ज्यादा बढ़ गया था, और भयानक हो गया था. साथ ही भीतर से बाहर कुछ निकलने का नैचुरल प्रेशर भी बढ़ रहा था. ऐसे ही एक प्रेशर में मेरे सृजन द्वार से हल्के धक्के के साथ कोई झिल्ली सी फटी और पानी बाहर निकलने लगा. ऐसे ही किसी प्रेशर में शायद बिस्तर पर टायलेट भी निकल गई. टट्टी, पेशाब, खून और उस पानी में सनी मैं उसी बिस्तर पर पड़ी रही, और दर्द में तड़पती रही. बीच-बीच में कोई दाई आती, तो मेरे पैरों की तरफ देखकर मुह सा बनाती.
शरीर के जिस हिस्से को सारी जिंदगी सबसे ज्यादा हर किसी से छिपाया, यहां तक कि खुद से भी छिपाया, उसी हिस्से के सबके सामने पूरी तरह उघड़े होने के बावजूद, इतनी गंदगी में सनी होने के बावजूद, कहीं भी कोई शर्म मेरे दिमाग में नहीं थी. दर्द के बीच में कुछ पल को इतनी गंदगी में अपने पड़े होने का ख्याल दिमाग में उभरता तो घिन्न आती; लेकिन उस असीम दर्द, तड़प और चीख के सैलाब में सारी घिन्न और शर्म बह जाती.
बीच में आकर किसी दाई ने मेरा गाऊन और ऊपर सरकाया था ताकि वो ज्यादा गंदा न हो. कुल मिलाकर बचपन से लेकर युवावस्था तक शरीर का जो अंग सबसे ज्यादा छिपाकर, ढँककर रखा गया था, आज वो सबसे ज्यादा उघड़ा हुआ था, निर्वस्त्र था. कितनी नर्सें और दाइयां आ-जा रही थी, पर शर्म मुझे कहीं छू भी नहीं रही थी मेरे बच्चे. मुझे उस दिन पहली बार अहसास हुआ, कि दर्द के समय में इंसान जितना बेशर्म हो जाता है, उतना और कभी भी नहीं होता मेरे बच्चे! चाहे तो शारीरिक दर्द की इन्तेहा हो या फिर मानसिक दर्द की. इतनी बेशर्म तो कोई लड़की अपनी मां के समाने भी नहीं हो सकती. गीलेपन और गंदगी से पैदा हुई चिपचिपाहट से बार-बार मुझे हद दर्जे की घिन आ रही थी, पर उस भयानक दर्द के कारण मैं कितनी बेबस और लाचार थी उसी गंदगी में पड़े रहने को. ओह रंग, तुम्हारे आने से पहले कितने और कैसे दर्द और गंदगी के नरक में थी मैं बेटू! ये आगरा का मिलट्री हॉस्पिटल था.
इसी बीच दूसरे बैड वाली स्त्री को अंदर वाले कमरे में डिलीवरी टेबल पर ले जाया गया. अंदर से ‘जोर लगा-जोर लगा’ की आवाजें आ रही थी और कुछ देर बाद बच्चे के रोने की आवाज ने, अंदर से आने वाली सारी दर्द की कराहों को शांत कर दिया. जब मैंने महसूस किया कि अब उस स्त्री के रोने और तड़पने की आवाजें आनी बिल्कुल बंद हो गई हैं, तो मैंने भी सोचा काश जल्दी से साढ़े बारह बजे, मैं भी भीतर जाऊं, तुम बाहर आओ और मैं भी इस दर्द के समंदर से बाहर निकलूं. ओह रंग, सच कहूं तो उस वक्त तुम्हें देखने से ज्यादा जल्दी, मुझे दर्द से बाहर निकलने की थी. मुझे डॉक्टर ने सुबह ही बता दिया था बच्चे का सिर अभी भी बच्चेदानी के मुह तक नहीं आया है. तुम्हें बाहर आने की कोई जल्दी नहीं थी शायद, क्या मेरे भीतर तुम ज्यादा मजे में थे मेरे बच्चे? या बाहर की खौफनाक हो चुकी दुनिया आने से डर रहे थे?
तुम्हें मेरे शरीर से बाहर को धकेलने वाले नेचुरल प्रेशर अब बढ़ गये थे, इसी कारण मुझे भी नर्स ने डिलीवरी टेबल पर लेट जाने को कहा. बच्चे जैसे छोटे-छोटे कदमों से लड़खड़ाते हुए मैं अंदर तक गई और डिलीवरी टेबल पर लेट गई. मैं शायद पौने बारह बजे भीतर गई थी, नर्स ने दाइयों से कहा कि मुझे बताएं कि कैसे जोर लगाना है बाहर को. नर्स ने तुम्हारे आने की तैयारी के लिए, ब्लेड से चीरा लगाकर मेरे सृजन द्वार को चैड़ा किया और ढेर सारी क्रीम लगाकर उस जगह को चिकना किया.
वो नर्स कुछ जल्दी में थी, बीच-बीच में कह रही थी ‘आज फिर देर हो जाएगी. ये (मैं) तो जल्दी कर ही नहीं रही है, इसे जोर लगाने नहीं आ रहे. अरे इस बताओ न कैसे लगाना है जोर’ दाई बार-बार मुझे बताती और मेरे पैरों की पोजिशन ठीक करती. मैं अब तक अपनी सारी तकलीफ, दर्द और कराह को मुह में भींच कर, तुम्हें शरीर से बाहर धकेलने के जोर में बदल चुकी थी, दाई बार-बार कहती ‘टट्टी के रास्ते जोर लगा’ मैं ऐसा करने की हरसंभव कोशिश कर रही थी, पर कोई नतीजा नहीं निकल रहा था.
नर्स बार-बार घड़ी देख रही थी और कह रही थी ‘अभी तो बच्चे का सिर भी नहीं दिख रहा, ये तो कल ही करेगी देखना. मैं आज फिर लेट हो जाऊंगी’ कल की बात सुनकर मेरी रूह कांप जाती, कल तक और इसी दर्द में. मैंने सोचा इससे अच्छा भगवान उठा ही ले. जोर लगाते-लगाते मैं थक चुकी थी, मेरी सारी ताकत धीरे-धीरे खत्म हो रही थी और थकान के मारे मुझे नींद आने लगी थी. नर्स चिल्लाने लगी, ‘सोओ मत! वापस जाना है क्या? सर्जरी ही होगी इसकी तो देखना’ ‘इतना दर्द झेलने के बाद सर्जरी. नहीं मेरी मां, ऐसा नहीं होना चाहिए, ये तो दोहरी सजा हो जाएगी’ मैंने मन ही मन सोचा.
उस हॉस्पिटल की सबसे बुजुर्ग, अनुभवी दाई मेरी बगल में खड़ी थी. जब-जब मैं जोर लगाती वो मेरे पेट को दोनों हाथों से नीचे की तरफ धकेलती, लेकिन कोई परिणाम नहीं. अपनी देरी के लिए नर्स बार-बार मुझे कोस रही थी. एक जोर की रुलाई के साथ, मैंने बेबस होकर उस दाई से कहा ‘मैं क्या करूं? अब दर्द के साथ-साथ मैं इस डर से भी कांपने लगी थी, कि सच में जल्दी से मेरी डिलीवरी नहीं होने वाली, पता नहीं कब तक इसी दर्द में तड़पना है…डिलीवरी टेबल पर लेटकर जोर लगाते-लगाते मुझे एक घंटा हो चुका था और भयंकर दर्द में तड़पते हुए 16 घंटों से भी ज्यादा.
एक बार फिर से जोर लगाने का सिलसिला शुरू हुआ. नर्स चिल्लाई ‘सिर दिख गया. जोर लगाओ. रुकना मत’ उस जोर का एक बड़ा हिस्सा ‘नेचुरल प्रेशर’ था, जो खुद ही तुम्हें मेरे भीतर से बहार धकेल रहा था. जब-जब नेचुरल प्रेशर रूक जाता, मेरा जोर लगाना बेकार जाता. ‘नेचुरल प्रेशर’ को तुम कुछ इस तरह से समझ सकते हो मेरी जान, जैसे कि टायलेट का प्रेशर होता है. जो खुद ही बनता है और गंदगी को शरीर से बाहर धकेल देता है. अक्सर हमारे खुद के झूठे पे्रशर से हमें पॉटी नहीं आती, ये कुछ वैसा ही था.
दोपहर 12.50 मिनट पर वो शुभ घड़ी आई जब तुम उस अंधेरी कैद से बाहर निकले! नेचुरल प्रेशर के एक तेज धक्के से तुम बाहर आ गए, मैं सिर्फ तुम्हारी हल्की सी एक झलक ले सकी, क्योंकि दाई ने मेरी आंखें अपनी हथेली से ढंक दी थी. तुम सफेद से द्रव में लिपटे थे. एक हल्की सी रूलाई फूटी, फिर घोर शांति. ‘ये रो नहीं रहा.’ नर्स की घबराई सी आवाज आई. कई लोग तुम्हारे आस-पास इकठ्ठे हो गए थे, तुम्हें रूलाने के लिए. मैं ठीक से दर्द से मुक्त भी नहीं हुई थी, कि दूसरी चिंता घिर आई थी. ‘तुम चुप क्यों हो? रो क्यों नहीं रहे?’
07 पी.एम/27.03.2010
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उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.
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इतना दर्द कोई कैसे सह सकता है...पूरा लेख पढ़ते हुए शरीर में बार बार सिहरन सी दौड़ती रही। कुदरत इतनी नवनिर्माण के लिए इतनी सजा देगी तो फिर सिजेरियन ही भला क्यों सही नहीं?
धन्य है जगत जननी
It's always be easy cure so that we can't prefer c section .....Natural treatment always healthy for body .It cure in few days but after c section we face many issues in our body...