गायत्री आर्य

अपने मातृत्व और कृतित्व के बीच में पिसती हूं मैं

4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – 44  (Column by Gayatree arya 44)

पिछली किस्त का लिंक:  सच्चा प्रेम करोगे तो हिंसक होने से बच सकोगे

कुछ दिनों बाद तुम सात महीने के हो जाओगे मेरे बच्चे. सात महीने, बाप रे बाप! कहां उड़ गया समय यार. तुम्हें पता है रंग, तुम दूसरी बार सात महीने के होओगे. पहली बार जब तुम मेरे पेट में थे तब सात महीने के हुए थे और दूसरी बार अब बाहर आकर फिर से सात महीने के होओगे. कैसी मजेदार बात है न!

तुम फिलहाल नानी के घर हो, कुछ उनके और कुछ तुम्हारे सहयोग से मैंने अपना पी.एचडी का दूसरा चैप्टर लिख लिया है. अब तुमसे समय निकालना बहुत मुश्किल हो गया है, तुम बैठने लगे हो. आज पहली बार मैंने तुम्हें जमीन में बैठाकर नहलाया. तुम अपने उलटे हाथ से छप-छप कर रहे थे और कभी-कभी साबुनदानी भी खा रहे थे. नहाते हुए तुम खुश रहते हो. तुम्हें दही खाना सबसे ज्यादा पसंद है. नानी तुम्हारे लिए मोटी सी, छोटी सी रोटी बनती हैं रोज, जिसे तुम अपने सख्त जबड़ों से काट देते हो. कोई चीज यदि जबड़ों से न काट पाओ, तो तुम गुस्सा हो जाते हो, चूहे कहीं के.

तुम मुझे पहचानने लगे हो रंग! किसी दूसरे के पास से मेरी गोद में आने के लिए तुम्हें दोनों हाथ बढ़ाना भी आ गया है. उफ्फ, कितने प्यारे लगते हो तुम, जब मेरी गोद में आने के लिए दोनों हाथ आगे बढ़ाकर मचल जाते हो. आजकल तुम्हारा सोने-जगने का रूटीन बहुत अच्छा बन गया है. रात में नौ बजे सो जाते हो, सुबह सात बजे उठ जाते हो. सुबह उठते ही तुम बगल में लेटे-लेटे चुपचाप अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से मुझे चुपचाप देखकर मुस्कुराते रहते हो. उस वक्त तुम्हारी आंखे मुझे ऐसी लगती है जैसे अंग्रेजी फिल्म ‘अवतार’ के नायक-नायिकाओं की बड़ी-बड़ी, प्यार और उत्सुकता से लबालब भरी पनीली आंखें.

कुछ देर तक हम दोनों चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहते हैं, मुस्कुराते रहते हैं. कभी मैं अजीब सी आवाजें निकालकर तुमसे बात करती हूं और कभी तुम अपनी कोई भी अजीब सी आवाज निकाल कर अपनी बात कहते हो. हम दोनों उस वक्त निःशब्द होते हैं, पर भाषा और शब्दों की कमी मुझे जरा भी नहीं खलती. संभवतः तुम्हें भी नहीं खलती होगी. मैं अपनी भाषा और शब्दों को सुनने की आदि हो चुकी हूं, पर तुम्हारे साथ संवाद में अपनी  भाषा और शब्दों की जरा सी भी कमी मुझे नहीं खलती मेरी जान. उस वक्त शब्द और भाषा, हमारी भावना और अनुभूति के जरा भी आड़े नहीं आते रंग. तुम्हें बोलना नहीं आता, पर फिर भी ये कमी मुझे जरा भी नहीं खलती, बिल्कुल ही नहीं. क्योंकि उस वक्त हम एक दूसरे लोक में होते हैं, हम प्रकृति की गोद में होते हैं. उस वक्त मेरे संस्कार, परंपरा, धर्म, जाति, विचार, विचारधारा कुछ भी मेरे दिमाग में नहीं होता. उस पल में सिर्फ मैं और तुम होते हैं और कोई नहीं! कोई भी नहीं मेरी जान! सिर्फ मां और बच्चा.

सच कहूं तो उस समय ये भी अहसास नहीं होता, कि हम एक इंसानी मां-बच्चा साथ हैं. लगता है कि कोई दूसरी जानवर मां अपने बच्चे के साथ है, पास है. तुम बीच-बीच में अपनी नन्हीं-नन्हीं उंगलियों से मेरे चहेरे को छूते हो. उफ्फ, क्या बताऊं कैसा है वह अहसास. जैसे तपती गर्मी में मुह पर ठंडे, साफ पानी के छींटे. जैसे फूलों की रंगबिरंगी कोमल, मुलायम पंखुडियों को चेहरे से छुआना. काश तुम जीवन में कभी ले पाते यह अहसास, लेकिन तुम पिता बनोगे मां नहीं, फिर कैसे ले पाओगे भला? लड़की बनके आना चाहिए था न ये अहसास जीने के लिए, नहीं? ऐसा नहीं है कि ये अहसास बच्चा पिता को नहीं दे सकता, बिल्कुल दे सकता है; पर उसके लिए पिता को उतना समय, सब्र और अपनी तीव्र संवेदना बच्चे को देनी होगी, जो कि अक्सर ही ज्यादातर पिता नहीं देते.

जब कभी मैं तुम्हारे रोने का कारण नहीं समझ पाती, सिर्फ तब मुझे तुम्हारा न बोल पाना खलता है मेरी जान, कि काश तुम बता सकते कि तुम्हें कहां दर्द है या क्या परेशानी है. वर्ना तो मुझे तुम्हारा हमारी भाषा में न बोलना कभी नहीं खलता, अपनी भाषा में तो तुम बोलते ही रहते हो!

मेरे गले से निकलती सभी आवाजों को तुम ध्यान से सुनते हो, जैसे उस आवाज के शब्दों को पढ़ रहे हो. तुम्हारी आंखों की पुतलियां हल्के-हल्के इधर-उधर जाती हैं और फिर मुझे ‘अवतार’ की नायिका की जूम की हुई बड़ी-बड़ी आंखे याद आ जाती हैं. तुम्हारी आंखों की पुतली में मैं अपना चेहरा देखती हूं, दुनिया का सबसे साफ, उजला, चमकीला, नक्काशीदार और सबसे खूबसूरत शीशा हैं तुम्हारी आखों की काली पुतलियां! जिसमें खुद को देख मैं इतराती हूं. तुम्हारी मासूम आंखे, ओह, तुम देख सकते हो मेरे बच्चे! कितनी-कितनी बड़ी नेमत दी है प्रकृति ने तुम्हें, कि तुम देख सकते हो. आंखें बहुत बार कान और मुह का काम करती हैं, पर आंखों का काम कोई नहीं कर सकता. आंखों की जगह कोई नहीं ले सकता मेरे बच्चे!

तुम इस वक्त मेरे पास सोए हुए हो. दरअसल तुम सोते हुए बीच-बीच में बहुत जगते हो, इसीलिए तुम्हें अपनी किताबों के बगल में ही सुला देती हूं, ताकि तुम्हारे जगते ही गोद में उठाकर या दूध पिलाकर तुम्हें वापस सुला सकूं और फिर अपना लिखना-पढ़ना कर सकूं. दुनिया की दो सबसे खूबसूरत चीजें मेरे इर्द-गिर्द लेटी हैं, एक किताबें और दूसरा तुम मेरे बच्चे!

मैं अक्सर तुम्हें ‘झुमरू’ या ‘झुरमुट’ भी कहकर बुलाती हूं. पता है मैं जब भी परेशान होती हूं पहला ख्याल दिमाग में यही आता है, कि काश मैं तुम्हारी मां नहीं पिता होती! हो सकता है तुम्हें ये पढ़ के अच्छा न लगे, पर मैंने शुरू में ही कहा था कि मैं तुम्हें सबकुछ सच ही बताऊंगी. ऐसा बहुत बार हुआ है रंग, कि मैं अपने मातृत्व और कृतित्व के बीच में पिसती हूं. बल्कि सच कहूं तो अक्सर ही ऐसा होता है. मेरा मन कुछ लिखने या पढ़ने का होगा और तुम रो रहे होगे या फिर चिड़चिड़े होकर शोर मचा रहे होगे. तब तुम्हारी आवाज सुनकर मैं खुद ही कागज-कलम, किताब छोड़कर उठ जाती हूं, क्योंकि ध्यान तुम्हारी रोने की आवाज में ही रहता है. और मैं उस हाल में तुम्हें छोड़ नहीं सकती.

तुम्हारे चुप होते ही फिर से वापस अपने कलम-कागज के पास जाना चाहती हूं, पर तुम मुझे नहीं छोड़ते. तुम्हें मेरा साथ चाहिए होता है. तुम मेरे साथ के लिए तड़प रहे होते हो और मैं अपने कागज-कलम और किताबों के साथ के लिए और तब मैं चिड़चिड़ सी हो जाती हूं. कभी-कभी तुम पर गुस्सा भी हो जाती हूं या फिर बिल्कुल चुपचाप तुम्हें गोद में लिए रहती हूं. जब भी कभी तुम पर गुस्सा होती हूं, तो फिर खुद को खूब कोसती भी हूं बाद में, बहुत ज्यादा अपराधबोध से भर जाती हूँ मैं ऐसा करने पर.

ऐसा नहीं है मेरे झुरमुट, कि मुझे ज्यादा वक्त तुम्हारे साथ बिताना अच्छा नहीं लगता, लगता है, बेइंतहा अच्छा लगता है. मैं खुद ज्यादा से ज्यादा वक्त तुमहारे साथ बिताना चाहती हूं, बिताती भी हूं. मैं हर वक्त तुम्हारे आस-पास, तुम्हारे इर्द-गिर्द ही फड़फड़ाती रहना चाहती हूं, ताकि तुम जब चाहो उछलकर मेरी गोद में सवार हो सको. पर मैं बस थोड़ा सा वक्त अपने लिए भी चाहती हूं, सिर्फ अपने लिए. जब मैं मनचाहा लेख, कहानी, कविता, या कुछ भी लिख सकूं या अपना पीएच.डी का काम कर सकूं. मैं 24 में से सिर्फ तीन-चार घंटे ही तो अपने लिए चाहती हूं बस, बिना बीच में किसी भी डिस्टरबेंस के. क्या ये समय बहुत ज्यादा है मेरे प्यार? पर अफसोस कि ये तीन-चार घन्टे का समय भी मुझे अपने लिये नहीं मिल पाता. दुनिया की किसी भी माँ को खुद के लिये एक दिन में तीन-चार घन्टे तो क्या, शायद साल भर में भी इतना समय सिर्फ अपने लिये नहीं मिल पाता.

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उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.

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Sudhir Kumar

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