गायत्री आर्य

प्रकृति भी हम स्त्रियों के प्रति उतनी दयालु और सहयोगी नहीं

4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – पच्चीसवीं किस्त

पिछली क़िस्त का लिंक: किसी भी लड़की के लिए जे.एन.यू कैंपस में मिलने वाली आजादी बहुत महत्वपूर्ण है

मैं लगभग एक महीने बाद अपने हॉस्टल लौटी हूं, पेट का मटका अब काफी बड़ा हो चुका है. अब इसे किसी से छिपाया नहीं जा सकता. तुम बड़ी जो हो गई हो. लगभग पूरे हॉस्टल को मेरे मटके के बारे पता चल ही गया है, नहीं तो जल्दी ही पता चल जाएगा. बढ़े हुए पेट को लेकर मेरा मन कुछ स्थिर नहीं है. कभी लगता है पेट निकला है तो क्या. मैं एक स्त्री हूं और मां बन रही हूं, सृजन कर रही हूं. अपनी पढ़ाई के साथ-साथ बच्चा भी मैनेज कर रही हूं. फिर कभी लगता है ये, ढोल सा पेट लटका के घूमना पड़ रहा है.

आज दोपहर में जब मैस से खाना खाकर मैं लौट रही थी, कुछ लड़के रिसेप्शन की दीवार पर बैठे अपनी लटकी हुई टांगे हिला रहे थे. उनमें से एक की नजर मेरे पेट पर गई, जो नजर पहले गर्दन के ऊपर या नीचे होती थी आज वो सीधे पेट पर गई. हमारा हॉस्टल कोएड है मेरी बच्ची. संभवतः लड़कों में भी मेरी प्रेगनेंसी की खबर फैल गई है. उन लड़कों के हवा में झूलते हुए पैर, जैसे मेरे सीने में मुक्का मार गए. कमरे पर आते ही मैंने सोचा ‘ये लड़के कितने आजाद हैं. जिंदगी भर ऐसे ही हवा में पैर झुलाते हुए रह सकते हैं. इनकी न तो शादी की उम्र निकलती है (कम से कम वैसे तो नहीं जैसे लड़कियों की) न बच्चा पैदा करने की.

दिमाग और शरीर से कितने ज्यादा आजाद हैं लड़के. प्रकृति भी हम लड़कियों/स्त्रियों के प्रति उतनी दयालु और सहयोगी नहीं है, मेरी बच्ची जितनी पुरुषों पर महरबान है. ये लड़के हवा में पैर झुलाते हुए ही बाप बन जाते हैं. बिना किसी अतिरिक्त शारीरिक/मानसिक कष्ट के ‘पापा’ कहलाने का सुख भोगते है. सिर्फ ‘नर’ होने भर से उनके हिस्से में बेहिसाब आजादी आ जाती है. आजादी, जो प्रकृति और संस्कृति दोनों ने उन्हें बख्शी है. मुझे बेतहाशा जलन हुई उन हवा में झूलते पैरों को देखकर. मैं यहां अपनी आजादी भरी जिंदगी का एक-एक दिन गिनकर जी रही हूं मेरी बच्ची. तुम्हारे आने के बाद मेरे जीवन में बेहद-बेहद परिवर्तन होंगे. मुझे लग रहा है कि जैसे ये साढ़े तीन महीने मेरे ऊर्जा भरे जीवन की पूर्ण आजादी का अंतिम कोटा हैं, जो हर जाते दिन के साथ कम हो रहा है. ये अहसास कुछ-कुछ वैसा है मेरी बच्ची जैसे लौ बुझने से पहले तेजी से फड़फड़ाती है.

मुझे दरअसल समझ नहीं आ रहा कि मैं अपनी आजादी के इस आखिरी स्लॉट को सबसे बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल कैसे करूं? क्या मैं खूब पढ़ लूं इस समय में या लिख लूं. या खूब घूम लूं (जो कि मेरी शारीरिक और मौसम की हालत के चलते संभव ही नहीं). या खूब फिल्में देख लूं. या अपने दोस्तों के साथ खूब मस्ती कर लूं. क्योंकि तुम्हारे आने के बाद मेरे जीवन और दिनचर्या का केन्द्र बदल जाएगा. आज मैं खुद केन्द्र में हूं. फिर तुम केन्द्र में होओगी. हालांकि तुम्हारे बड़े होने के बाद मैं फिर से थोड़ी सी आजाद हो पाऊंगी शायद, पर तब तक मेरी ऊर्जा, ताकत, जोश, इच्छाएं बहुत कम हो चुकी होंगी या मैं बुढ़ापे के पायदान पर होउंगी. अपने बच्चों की जरूरत, खुशियों और इच्छाओं की पूर्ति में मां-बाप की उम्र खत्म हो जाती है मेरी बच्ची. लेकिन ये भी सच है कि दुख, तनाव और तकलीफ में बच्चा सबसे बड़ा ‘स्ट्रेस बस्टर’ होता है. तुम्हारी निश्छल, मासूम मुस्कान, हंसी, स्पर्श, भाव, सवाल मुझे सारे तनावों से ‘उबार’ लेंगे. पर तुम ‘स्ट्रेस बस्टर’ बच्चे के रूप में कितने समय तक रहोगे भला, कुछ सालों में तुम किशोर बन जाओगे.

उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.

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Sudhir Kumar

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