अंग्रेज़ों के द्वारा बसाए गए नैनीताल जैसे पहाड़ी शहरों की चर्चा बिना बंपुलिस के संभव ही नहीं है. बचपन में हमें हैरानी होती थी कि जंगल के बीचों-बीच पत्थर की दीवारों और टीन की छतों वाले, बाहर से बेहद खूबसूरत दिखाई देने वाले इन छोटे-से घरों में कौन रहता होगा ? जंगल के बीच अंग्रेज़ साहबों की जो विशाल कोठियाँ थीं, वे हालांकि बाहर से इन्हीं छोटे-छोटे घरों जैसी ही दिखाई देती थीं, मगर उनमें हमेशा चारों ओर चहल-पहल रहती थी. हर घर के साथ विशाल टैनिस-कोर्ट हुआ करता था और पूरी कोठी नई-नई प्रजातियों के पेड़ों से घिरी रहती. हर कोठी के अपने आउट-हाउस होते थे, जो बाज़ार में रहने वाले हम हिंदुस्तानियों के घरों-जैसे ही होते थे और उनमें कोठी में रहने वाले साहबों के दसियों नौकर-चाकर अपने परिवारों के साथ रहते थे. बाहर से ये बंपुलिस कोठी के आउट-हाउसों से भी सुंदर दिखाई देते थे, इसलिए कभी-कभी हम बच्चों को हैरानी होती थी कि हमारे पुरखे इतनी अच्छी इमारतों को छोड़कर बाज़ार के कबाड़खानों में क्यों रहते हैं. इन घरों के चारों ओर आदमी तो हमने कभी नहीं देखे, अलबत्ता, दूसरे-तीसरे रोज हम लोग बाज़ार से ही देखते थे कि उनसे गहरा धुआँ उठ रहा है जो दोपहर से शुरू होकर शाम तक उड़ता रहता था. घने कोहरे के टुकड़े की तरह का यह धुआँ गहरे सलेटी रंग से आहिस्ता-आहिस्ता पतले सलेटी रेशों में बदलता हुआ जंगल में कहीं खो जाता था. इस दृश्य के बाद वे घर हमारे लिए और भी रहस्यमय बन जाते थे.
इसी हैरानी के बीच तालाब किनारे रहने वाले हम किशोरों ने एक दिन तय किया कि इन घरों को अंदर से देखा जाय. लेकिन जाने से पहले उस रहस्यमय जगह की टोह लेनी जरूरी थी, इसलिए कई दिनों तक हम लड़के तीन-तीन की टोली में उसके बाहर चक्कर लगा आए और हमने कई दिनों तक उस जगह के भावी खतरों का अनुमान लगाने की कोशिश की. जो लड़के वहाँ जाते, उनके साथ शाम को हम सब लोग बाज़ार के किसी कोने में बैठक करते और उनके अनुभवों के आधार पर अगर कोई नई बात पता लगती तो उसके आधार पर अपनी रणनीति तय करते. इस तरह कई बार, अनेक टोलियों के उस परिसर में जाने के बाद भी जब कोई अनहोनी नहीं घटित हुई तो हमारी हिम्मत बढ़ी और हमें तय किया कि उसे अंदर से देखा जाय.
अंततः हम चार लड़के एक दिन झुंड में वहाँ के लिए रवाना हुए. सभी छठी-सातवीं कक्षा में पढ़ने वाले किशोर थे. पास पहुँचे तो पेड़ कम होते चले गए थे, जिससे डर तो कम होता लगा, लेकिन माहौल की रहस्यमयता में कोई कमी नहीं आई. अयारपाटा पहाड़ी के उस छोर के बारे में हमने भूत-प्रेतों की डरावनी कहानियाँ तो सुनी ही थी, अंग्रेज़ साहबों का खौफ भी दिमाग में कम नहीं था क्योंकि उस ओर अधिकतर उन्हीं के बंगले थे. वह छुट्टी का दिन था, और समय भी स्कूल जाने का ही. अपने अभिभावकों को हमने इस सिलसिले में कुछ नहीं बताया था, क्योंकि हम जानते थे, वहाँ के बारे में सुनने के बाद वे लोग हमें जाने की इजाजत कतई नहीं देंगे. जंगल के बीच के इस रहस्यमय घर को हम हर हाल में देखना चाहते थे. कहीं ऐन मौके में सारा खेल न बिगड़ जाय इसलिए इस बात को हमने अपने तक ही सीमित रखा था.
बाद में जब हमने बंपुलिस को अंदर से देखा, खेल तो नहीं बिगड़ा, लेकिन इस बात पर खीझ अवश्य हुई कि उसके बारे में अपने बड़े-बूढ़ों से बात क्यों नहीं की ?
अयारपाटा पहाड़ी के लगभग बीच में था यह मकान. चारों ओर चीड़, बाँज और मोरपंखी के पेड़ अधिक थे, हालांकि पेड़ों की तादाद अधिक नहीं थी. हमेशा की तरह उस दिन भी उस घर के चारों ओर कोई नहीं था. किसी के वहाँ मौजूद न होने के कारण जहाँ एक ओर हमें आश्वस्ति मिल रही थी, वहीं, एक दूसरे तरह की घबराहट मन में पैदा हो रही थी कि कहीं यह सचमुच कोई खौफनाक और रहस्यमय जगह न हो जहाँ कोई जंगल का इकलकटुवा (बिरादरी बाहर किया गया अकेला) प्रेत न रहता हो. लंबे-तीखे दातों और झबरीले बालों वाला काला-कलूटा दैत्य, जो रात को घरों के अंदर से बच्चों को उठाकर जंगल के इस घर में कैद करके रखता है!
डरते-डरते उस घर के पास पहुँचे ही थे बदबू से सिर भन्ना उठा. समझ में नहीं आया कि एकाएक इतनी बदबू कहाँ से पैदा हो गई. शांत माहौल और चीड़-मोरपंखी के उदास पेड़ों के झुंडों के बीच जैसे हू-हू करते किन्हीं बदबूदार जीवों ने हमें चारों ओर से घेर लिया हो. इतनी दूर तक आ चुके थे, इसलिए अब लौटने का प्रश्न नहीं था, इसलिए कहानियों के साहसी राजकुमार की तरह हम उस घर के अंदर घुस ही गए. घर में कोई दरचाज़ा नहीं था, न अंदर जरने के लिए किसी तरह का कोई अवरोध. दरवाज़े के स्थान पर उसी आकार की जो खाली जगह थी, वहाँ से नीचे की ओर सीढ़ियाँ चली गई थी, जैसे तहखाने में जाने का रास्ता हो. सामने की ओर दुमंजिले की तरह का एक और कमरा था, जहाँ चार-छह सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद पिछवाड़े की ओर से ही पहुँचा जा सकता था.
दरवाज़े के और अधिक नजदीक पहुँच कर जो नज़ारा देखा, अगर हम लोग सावधान न होते तो आगे खड़े दो-तीन लड़के तो बेहोश होकर उस नरक में डूब ही गए होते… सचमुच वह नरक ही था. हम लोग नरक के बारे तो नहीं जानते थे, मगर उसे देखकर साक्षात् नरक का अंदाज़ लगाया जा सकता था.
तहखानेनुमा उस विशाल कमरे में पाखाना भरा हुआ था, जो उस वक्त भदभदा रहा था, जैसे किसी गाढ़ी चीज़ को कढ़ाई में उबाला जा रहा हो. सामने की ओर, सीढ़ियों के ऊपर जो कमरा था, उसमें भी गंदे-बदबूदार कपड़ों, बोरों और घास-पत्तियों के ढेर पड़े थे. उससे भी उतनी ही असहनीस बदबू चारों ओर फैली हुई थी. मगर हम लोग तो बदबू के लावे के ऊपर ही खड़े थे, वह बदबू हमें क्या महसूस होती !
कमरे के तहखाने में उबलते-बज़बजाते हुए पाखाने को हम कुछ ही पल देख पाए और उल्टे पाँव पीछे की ओर भागे. इतना सारा गू! हमारा सिर चकरा गया था. गू को भी इतने सुंदर घर में सजा कर रखा गया था, कैसी है ये अंगरेज़ कौम ! उस वक्त तो नहीं, जब हम थोड़ा बड़े हो गए, हमने सोचा था.
बाद में बड़े-बुजुर्गों ने बताया कि बंपुलिस आज के सीवर पिटों की तरह की जगहें हुआ करती थीं, जहाँ बीसवीं सदी के पहले दशक तक आदमी के मल को एकत्र करके जलाया जाता था. बाद में इनका उपयोग सीवर लाइनें जोड़ने वाले पिटों की तरह किया जाने लगा. 1895 में नैनीताल आए एक प्रशासक सर ऐंथनी मैकडोनल ने मल-निस्तारण का यह नया तरीका ईजाद किया. यह व्यवस्था आज के सीवर पाइपों की तरह भी की जा सकती थी, मगर पुराने मल जलाने वाले उन स्थानों का उपयोग भी करना था, इसलिए इन जगहों का, जिन्हें छोटी-सी कॉटेजों के रूप में बनाया गया था, मैन-होल की तरह किया जाने लगा. बाद में जब नगर पालिका ने पूरे शहर में सीवर लाइन बिछाई तो पूरे मल को रूसी गाँव के सीवर प्लांट में डाला गया. आज तक नैनीताल में यही तरीका चल रहा है जब कि जनसंख्या में कई गुना वृद्धि हो चुकी है. शायद इसीलिए आज भी पुराने लोग ही नहीं, नई पीढ़ी के लोग भी कहते हुए सुने जाते हैं कि अंग्रेज़ों ने पहाड़ी शहरों का जो नियोजन किया है, हिंदुस्तानियों के द्वारा उसे रिप्लेस करना तो दूर, उसकी मरम्मत भी संभव नहीं है.
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं.
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