सुना करते थे वह बाग़ पुरफ़िज़ा है यही
अगर पहाड़ हैं जिन्नत तो रास्ता है यही
हम वक्त के उस दौर में हैं जब समय को बेधने की हमारी कुव्वत बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुकी है. ये टूट–फूट दुतरफा है. आगे देखने की तो छोड़िए हम पीछे देखने वाली अपनी आंख भी घायल कर चुके हैं. ऐसे में वक्त के ही किसी नाज़ुक दौर की बात करने में गलत समझे जाने का ख़तरा बढ़ा हुआ है. आप बेफिक्र होने की काबिलियत रखते हों तो भी एक ठंडा सा डर है जो हड्डियों को सिहराता जाता है. (Column by Amit Srivastava)
खैर छोड़िए इस प्रलाप को! मैं तो बस ये समझने की कोशिश में देर तक उस बेजान पत्थर के पास ठहरना चाहता था जो दरअसल अपने उथल-पुथल भरे वक्त की ज़िंदा धड़कती हुई मिसाल के जैसा है. इसमें एक विशाल साम्राज्य के अधिपति द्वारा युद्धघोष की जगह पर धम्मघोष करने की बात लिखी है.
ये बात कहना कितना ठीक होगा कि इतिहास ‘मेरा’ या ‘तुम्हारा’ नहीं होता. इतिहास के अंत की घोषणाओं के बीच क्या इस बात को भी इतनी ही फुर्ती से कहकर निकला जा सकता है कि भविष्य का भी अंत हो चुका है?
एक लम्बी उतराई के बाद एक छोटा सा कैम्पस. अहाते के बाहर दूर तक खेत दीखते थे. कोई आवाज़ भी थी वहां. मैं एक छोटे वक्फे के लिए वहां ठहरा और उतनी सी देर में ही लगा कि ये बेहिस सा दिखने वाला पत्थर दरअसल कहने के लिए बहुत सी बातें रखता है. कोई सुने तो.
ये शिलालेख अशोक के चौदह वृहद शिलालखों में से एक है जिसमें पियदस्सी अशोक के आंतरिक प्रशासन और राजा–प्रजा के प्रशासनिक, आध्यात्मिक, नैतिक संबंधों के बारे में बौद्ध धर्मानुसार नीतिगत बातें दर्ज हैं. तकरीबन ढाई सौ ईसा पूर्व का वो दौर संस्कृत के उच्च कुलीन समझे जाने और पाली या प्राकृत भाषाओं की जनस्वीकृति का भी था. देवानांप्रिय अशोक ने इस शिलालेख को ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण करवाया ताकि जन–जन तक ये विचार पहुंच सकें.
शिलालेख कालसी में है. कालसी, टोंस नदी के आस–पास बसे नीली–कंजी आंखों वाले खूबसूरत रहवासियों के प्रदेश का प्रवेश द्वार है. ब्रिज नारायण चकबस्त की एक खूबसूरत नज़्म ‘देहरादून’ याद आती है–
यहीं बहार का पहले-पहल हुआ था शगून
अजीब खित्तए दिलकश है शहर देहरादून
किया नहीं ग़ारत इसे बशर की सनअत ने
ये सब्ज़ा ज़ार सजाया है दस्ते कुदरत ने
हिमाचल झुककर टोंस में ही तो अपना मुखड़ा निहारता है. उसकी पियदस्सी सी छाया यहाँ उतर आती है. यहां से होकर यमुना भी दिल्ली को कूच कर जाती है. यानी यमुना और टोंस का संगम. एक नामालूम सी नदी भी है अमलावा. वो भी यमुना में मिल जाती है. शिलालेख में कालसी को `अपरांत’ व कालसी निवासियों को `पुलिंद’ शब्द से संम्बोधित किया गया है.
घने दरख़्त हरी झाड़ियाँ ज़मीं शादाब
लतीफ़ सर्द हवा पाको साफ़ चश्मा आब
शिला के उत्तरी पटल पर एक हाथी बना दिखता है जिसके नीचे संस्कृत शब्द ‘गजतमे’ लिखा है. हाथी आकाश से उतरता प्रतीत होता है जिसका आशय माता गौतमी के गर्भ में बुद्ध के अवतरित होने से है संभवतः. ये गज मुझे गज–शार्दूल प्रतिमा की याद दिलाता है जो जौनपुर के शाही पुल पर एक ठसके के साथ विराजमान है. लड़कपन की सुनी सुनाई किवदंती तो उसी समय पोपली हो गई थी जब अल्मोड़ा के कसार देवी की ऊंचाई पर ऐसी ही एक मूर्ति के दर्शन हुए. ये इतिहास का अंत नहीं था उसकी परतों का उधड़–उधड़ जाना था. किवदंती में ये प्रतिमा शेर शाह सूरी, जिनका निशान चिन्ह शेर था, की हुमायूं, जिनकी सेना में हाथी ही हाथी थे, के ऊपर जीत की प्रतीक थी. अब ये लगता है कि शेर के अन्दर दबा हुआ हाथी धर्म की लड़ाई में हिंदू धर्म की बौद्ध पर जीत का प्रतीक है क्योंकि ये जानवर द्वय मूर्तियां मंदिरों में पाई जाती हैं.
इस शिलालेख की ख़ास बात ये है कि इसमें सभी चौदह (एक से बारह लेख और तेरहवें की शुरुआती पंक्तियां) शिलालेखों की बातें उल्लिखित हैं. सिकंदर, टोलमी और अन्य यूनानी–मिश्री बादशाहों का ज़िक्र भी है.
सवा दो हज़ार साल या उससे भी ज़्यादा पुराने इस शिलालेख को भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में ब्रिटिश इंडिया के उच्चतम मिलिट्री अवार्ड विक्टोरिया क्रॉस धारी जॉर्ज फॉरेस्ट ने इसे अपने आखिरी दिनों में देहरादून में रहते हुए खोजा था. ‘मेरा’ और ‘तुम्हारा’ कहने वालों को ये लाइन दुबारा पढ़नी चाहिए.
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जब वह शिला प्राप्त हुई थी कहते हैं तब उसपर लिखे शब्द और चित्र बहुत धुंधले हो चुके थे. इसके बाद अर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल कनिंघम ने इसपर शोध किया, ज़रूरी खोजबीन की और साफ़-सुथरा करने के बाद दुनिया के सामने लाने का काम किया. 1915 के आस-पास इसे एक कमरे में संरक्षित किया गया. अब उस कमरे और इस शिला पर धूल और लापरवाही ने अपनी मोटी परतें बिछा दी हैं. क्या किसी को ये सुनने की फुर्सत में है कि ये पत्थर और इसकी जानिब से माझी की तमाम घटनाएं फुसफुसाती हैं कि ऐसी बेख्याली भविष्य के अंत के आसार हैं? कोई है? चकबस्त अपनी नज़्म जहाँ समाप्त करते हैं वहां तो कोई होगा ही, शायद… (Column by Amit Srivastava)
वही सुनेगा इसे दिल गुदाज़ है जिसका
हो दिल में सोज़ तो रग-रग में साज़ है इसका
जौनपुर में जन्मे अमित श्रीवास्तव उत्तराखण्ड कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं. अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता), पहला दख़ल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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