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जिसके हाथों रास है, वो खच्चर का ख़ास है

अंतर_देस_इ
(शेष कुशल है)

ओए नागरिक
अमाँ बाशिंदे
अबे देसवासी

जियो… बसो… फलो

तुम्हारा ख़त (मत) मिला. बहुत उत्साह में दिखे तुम. अच्छा है, पर छाती पीटने से मुक्के या छाती, दोनों में से किसी एक में दर्द तो जरूर होगा इसलिए थोड़ा सुस्ता लो. अब ज़रा सांस लो और अपनी न्यूनतम जानकारियां दुरुस्त कर लो. एक शब्द है सरकार! इसमें न सर अंग्रेजी वाला है, न कार! और ये तुम्हारी सेवा के लिए है, तुम पर राज करने के लिए नहीं! सेवा तो बहुत बड़ा शब्द हो गया शायद. तो ऐसे समझ लो कि तुम्हारी समस्याओं को देखने-समझने-सुलझाने के लिए है. तुम पर कोई समस्या लादने के लिए नहीं.

ये तो जानते ही होगे कि तुम्हारी समस्या क्या है? क्या कहा? तुम्हारे घण्टे की आवाज़ कम आती है? न न बबुआ ये समस्या नहीं है. ज़रा आंख मलो. हां उन्हीं मुक्के वाली हथेलियों से और देखो कि तुम्हारी समस्या भूख से शुरू होती है, तुम्हारी समस्या सड़क, बिजली-पानी, अस्पताल-स्कूल की है. तुम्हारी समस्या न्यूनतम मूलभूत जीवन औजारों की है. तुम्हें लगता है तुम्हारा पेट भरा है, नींद आती है, दिक्कत क्या है? तुम्हें सच में लगता है? माना कि बाबू, तुम इस दुनियादार दुनिया में हो. जाति भी, धर्म भी, क्षेत्र भी तुम्हें कोंचते हैं लेकिन तुम्हें मूस खाते हुए किसान नहीं कोंचते? मुट्ठी भर नौकरी के लिए टिड्डी दल की तरह टूट पड़ते नौजवान नहीं कोंचते? पांच साल के बच्चे के बुख़ार से फटते दिमाग़ नहीं कोंचते? तुम्हारी समस्या इस बात की भी है कि तुम ‘मैं’ का दायरा बहुत छोटा रखते हो. खैर!

तो जिनके मजबूत हाथों में अपना वर्तमान और भविष्य सौंप देते हो, उनसे पूछोगे भी नहीं? कल्पना करो एक घोड़े पर (खच्चर?!) पर किसी मंदिर के रस्ते पर हो. (इसलिए कि उदाहरण में ही सही, मंदिर की बात से तुम्हें थोड़ा कम्फर्ट फील होगा) पूछोगे नहीं कब पहुंचेंगे? कितनी देर लगेगी. कहोगे नहीं, बाईं जांघ में दर्द है ज़रा टिल्ट कम करो. लदान से ज़्यादा तुम्हें कहीं पहुंचा देने की ज़िम्मेदारियाँ हैं इस खच्चर पर. इसके नकेल तो कसो. इसकी रास तो थामों क्योंकि फिलवक्त-

जिसके हाथों रास है,
वो खच्चर का ख़ास है

तो इससे खुद ही सवाल करो. सवाल करने का स्पेस रक्खो. सवाल करने वालों को साथ रक्खो. उन्हें देखो नहीं, पूजा मत करो, मगर उन्हें सवाल पूछने की सहूलियत से वंचित मत करो वरना किसी भी समय ये खच्चर तुम्हें पटकेगा, धमकाएगा कि ‘वेट कम कर मोटे’ और आगे बढ़ लेगा. तुम्हें इस धमकी की फुसफुसाहट भी सुनाई नहीं दी?

क्या कहा तुम्हें सरकारी कर्मचारी से मिलने में बिचौलियों की ज़रूरत पड़ती है, अपने प्रतिनिधि के घर में घुसने में डर लगता है, बात करने के लिए प्रतिनिधि के प्रतिनिधि की ज़रूरत पड़ती है? सोचो तुमने किसे अपना नौकर, अपना सहायक अपना झंडा-बरदार चुना है! तुमने कुछ लोगों को चुनकर उस पार पहुंचाया है. न्यूनतम जानकारी ये भी रक्खो कि अब वो तुम्हारे नहीं रहे. वो, जिन्हें तुमने अपना न मानते हुए नहीं चुना, ये उनके जैसे ही, उतने ही पराए हो चले. क्योंकि जहां वो हैं, वो कोई स्थान नहीं वरन चरित्र है. वहां जो भी होगा कमोबेस वैसा ही होगा. तुम्हारा काम उन्हें वैसा न होने से रोकना भी है. कैसे? नकेल से! रास से! सवालों से!

ताकत, ताकत को खींचकर और भी ताकतवर हो जाती है, वैसे ही जैसे पूंजी, पूंजी को और मूर्खता, मूर्खता को खींचकर और भी सघन हो जाती है. अगर आज तुमने प्रश्न भी नहीं किये तो कल तुम प्रश्न सोचने के काबिल भी न रहोगे. क्योंकि वहां ताकत पूंजी से गलबहियां है और पूंजी मूर्खता के हमकदम. ये त्रयी किसी भी समय तुम्हारी मनुष्यता ख़ारिज कर सकती है. फिर न कहना

मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है
क्या मेरे हक़ में फैसला देगा

और हां जो न चुनने की स्वतंत्रता का उपभोग करते हैं, हक़ उनका भी बराबर है. एक रत्ती भी कम नहीं. तुम्हें पाकिस्तान जाने की ज़रूरत नहीं है बाबू. यहीं इन छातियों पर मूंग दलना है.

बाकी फिर कभी (पांच साल बाद नहीं बे, बीच में ही कभी)

तुम्हरा देस
आपका मुल्क़
तेरा राष्ट्र

डिस्क्लेमर : ये लेखक के निजी विचार हैं.

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अमित श्रीवास्तव

उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).

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Girish Lohani

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