सामान्यतः जलवायु चक्र में दीर्घकालिक परिवर्तन जलवायु परिवर्तन कहलाता है. जलवायु परिवर्तन वर्तमान समय में विश्व समुदाय के समक्ष एक बड़ी चुनौती के रूप मे उभरा है. यह एक व्यापक चुनौती है जिसके दूरगामी पर्यावरणीय, आर्थिक एवं सामाजिक परिणाम होंगें. आज दुनिया का ध्यान जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्परिणामों एवं इनसे निपटने एवं अनुकूलन की तरफ केद्रित हो गया है. पर्यावरणविदों, योजनाकारों एवं नीति निर्धारकों हेतु जलवायु परिवर्तन एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुका है. जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों में हिमनदों का पिघलना, हिम-रेखा का उंचाई की तरफ खिसकना, नदियों के जल प्रवाह में परिवर्तन, खाद्यान्न उत्पादन व जैव-विविधता में कमी, खर-पतवार में वृद्धि, वानिकी और कृषि आधारित जीवनयापन में आ रही कठिनाइयों के रूप में दृष्टिगोचर हो रहे हैं हालांकि जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ रहे प्रभाव पर अध्ययन हेतु दीर्घकालिक जलवायु आंकड़ों के अभाव में निष्चित निष्कर्ष प्रस्तुत करने में अभी भी कठिनाई बनी हुई है.
(Climate Change Uttarakhand)
हिमालय क्षेत्र में वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन यह संकेत देते हैं कि हिमालय के वायुमंडल के गर्म होने की रफ्तार दुनिया के अन्य पर्वतीय क्षेत्रों से अधिक है. यह तापमान वृद्धि मुख्यतः जाड़ों की ऋतु में अधिक पाई गई है. भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान, पुणे के अनुसार विगत 100 वर्षों में भारतवर्ष में वर्षा की मात्रा में 68 प्रतिशत की कमी आई है. जबकि जम्मू एवं कश्मीर में वर्षा की मात्रा में वृद्धि हुई है एवं कश्मीर घाटी का औसत तापमान पिछले दो दषकों में 1.45 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है. हमारे संस्थान द्वारा अलकनंदा घाटी (गढ़वाल) में किए गए एक अध्ययन से पता चला कि वर्ष 1960-2000 के बीच वार्षिक तापमान में 0.15 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई. उपग्रह चित्रों के विश्लेषण के अनुसार हिमालय के ग्लेशियर लगभग 67 प्रतिशत खिसक गए हैं. पड़ोसी राष्ट्र नेपाल में ग्लेशियर के सिकुड़ने की दर 10 मीटर प्रतिवर्ष तक आँकी गई है.
पृथ्वी के तापमान में वृद्धि का उत्तरदायित्व मुख्यतः बढ़ती हुई कार्बन डाइआक्साइड है जो औद्योगिक क्रान्ति के पूर्व 280 पी.पी.एम. के आंकड़ें को पार कर आज 400 पी.पी.एम से उपर पहुंच गया है. इसी प्रकार अन्य हानिकारक हरित गैसों की वायुमण्डल में सान्द्रता बढ़ती जा रही है. वर्ष 1970 एवं 2004 के बीच हरित गैसों के वायुमण्डल में सान्द्रण में 70 प्रतिशत की वृद्धि पाई गई हैं. विश्व जलवायु निगरानी (2006) के अनुसार पृथ्वी के औसत तापमान में पिछले 100 वर्षो के दौरान 0.74 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड की वृद्धि की गई है. इसी प्रकार वर्ष 1961 से 2003 के दौरान समुद्र स्तर में 1.8 मी.मी. की औसत वृद्धि हुई. जो कि 3.1 मी.मी. औसत की तेज दर से 1993 से 2003 के दौरान हुई. वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी सतह का औसत तापमान वर्ष 2100 में 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है एवं समुद्र तल में 0.18 से 0.59 मी. प्रति वर्ष तक वृद्धि हो सकती है. प्रस्तुत लेख जलवायु परिवर्तन से उत्तराखण्ड के जनजीवन, कृषि, जल, वन पारिस्थितिकी पड़ रहे प्रभावों पर केन्द्रित किया गया है एवं आगामी कार्यों हेतु कुछ महत्त्वपूर्ण अनुसंधान व विकास के बिन्दु भी सुझाए गए है.
यह सर्वविदित है कि उत्तराखण्ड में जीवन-यापन का मुख्य आधार कृषि है. कृषि मौसम चक्र पर निर्भर है और मानव जनसंख्या फसलों की पैदावार और खाद्य आपूर्ति पर निर्भर है. उत्तराखण्ड के पर्वतीय भाग में अधिकांश खेती (लगभग 85 प्रतिशत) वर्षा एवं वनों से प्राप्त बायोमास उर्जा पर आधारित है. पहाड़ी ढलानों पर छोटी एवं बिखरी हुई जोतें सीमान्त कृषकों की आजिविका का मुख्य आधार है. छोटी जोतों में खाद्यान्न की पैदावार अत्यधिक कम (6-13 क्विंटल प्रति हैक्टेयर) है. अनियमित वर्षा के कारण सिंचाई प्रणाली गंभीर रूप से प्रभावित हुई है एवं प्रदेश की अधिकांश नहरें अपने सम्पूर्ण क्षमता से कई गुना कम भूमि को सिंचित कर पा रही है.
कुल्लू घाटी में इस संस्थान के एक अध्ययन से ज्ञात हुआ कि वर्ष 1980 एवं 1990 के मध्य अधिकतम तापमान में 0.25 से 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई जिससे सेब के उत्पादन में उल्लेखनीय रूप से गिरावट आई. इस अवधि में बर्फबारी में कमी होने एवं सेब के बगीचों में आर्द्रता कम होने से फूलों व कलियों की संख्या में गिरावट देखी गई क्योंकि सेब की अच्छी पैदावार हेतु बसन्त ऋतु से पूर्व 10 सप्ताह तक 5 डिग्री सेल्सियस से नीचे तापमान रहना जरूरी है. जंगलों एवं आस-पास की वनस्पतियों में फूल खिलने के समय में परिवर्तन तथा खर-पतवार के अतिक्रमण से फसलों के परागण हेतु उत्तरदायी मधुमक्खियां एवं अन्य कीट पतिगों के लिए भोजन में कमी आने से परागण तथा फसलों एवं फलों का उत्पाद प्रभावित हो रहा है. हिमांचल प्रदेश के सेब के बगीचों में स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि मधुमक्खियों के छत्तों को 500 रूपये/प्रतिदिन के किराये पर लिया जा रहा है एवं सेब के पेड़ों की टहनियों पर फूलों के गुच्छे लटकाये जाते है ताकि मधुमक्खियां आकर्षित होकर परागण कर सके. हिमांचल प्रदेश में सेब के बगीचों का अधिक ऊँचाईं की ओर खिसकना जलवायु परिवर्तन का परिणाम माना जा रहा है. जलवायु परिवर्तन के कृषि पर पड़ने वाले कुछ प्रभाव निम्नवत हैं –
(Climate Change Uttarakhand)
(1) सिंचाई जल की उपलब्धता में कमी
(2) अतिषय सूखे की घटनाओं और वर्षा ऋतु के व्यवहार में बदलाव के परिणाम स्वरूप बीज अंकुरण, फसल और फलों की पैदावार में विफलता
(3) अवांछित खर-पतवार जैसे कुरी (लैंटाना कमारा), कांग्रेस घास (पार्थेनियम ओडोरेटम) एवं कालाबाँसा (यूपाटोरियम हिस्टरोफोरस) इत्यादि का खेतों व वनों में प्रकोप
(4) कीट जनित रोगों में वृद्धि
(5) कृषि फसलों की जैव-विविधता में हा्रस. इन दुष्प्रभावों से निबटने हेतु किसानों ने फसलों एवं फसल चक्रों में कई परिवर्तन कर दिए हैं. वर्षा जल की कमी का मुख्य नकारात्मक असर धान, गेंहूँ व दालों एवं मौसमी सब्जियों के उत्पादन पर पड़ा है. प्राचीन समय में प्रचलित ‘‘बारहनाजा’’ पद्धति गम्भीर रूप से प्रभावित हो गई है. इस संस्थान द्वारा पौढ़ी गढ़वाल में किये गये एक अध्ययन से पता चला कि पिछले तीन दषकों में परम्परागत फसलों के अन्र्तगत बोये गये क्षेत्र में लगभग 60 प्रतिशत की कमी आई है. वनों में खाद्य फल-फूल की मात्रा घटने से वन्य जीवों ने खेत-खलिहानों एवं मानव आबादी की ओर रूख कर दिया है जिससे ग्रामीणों के जीवन में नया संकट पैदा हो रहा है.
वन एवं वनस्पतियों का वितरण, संरचना और पारिस्थितिकी मुख्यतः जलवायु द्वारा प्रभावित होते हैं. आईपीसीसी की तीसरी आकलन रिपोर्ट (2001) के अनुसार जलवायु परिवर्तन वन पारिस्थितिकी प्रणालियों को भविष्य में गंभीरता से प्रभावित कर सकता है. तापमान की वृद्धि एवं वनों की कटाई के कारण जल की कमी, वन्य जीवों के आवास का विखंडन पैदा सकता है. उत्तराखंड के वनों में वृक्ष प्रजातियों (जैसे बुरांस, पयां आदि) का समय से पहले खिलना ग्लोबल वार्मिंग के साथ जोड़ा गया है. बसंत ऋतु में अगर तापमान सामान्य से अधिक हो एवं वर्षा की मात्रा सामान्य से कम हो तो पुष्पों के खिलने व कलियों के फूटने के समय में सामान्य वर्षों की अपेक्षा लगभग 2-4 सप्ताह पहले हो जाता है. इस परिवर्तन से पौधों में परागण, बीजों के जमने का समय एवं फलों के पकने के समय में अन्तर आ जाने से वन-पारिस्थितिकी तंत्र एवं उस पर निर्भर जीवन-जंतुओं का जीवन-चक्र एवं उत्तरजीविता प्रभावित हो जाती है.
कई जैसे साल आदि के बीजों की परिपक्वता और मानसूनी वर्षा के साथ होता है. अतः प्रजातियों को उचित समय पर नमी न मिलने से वृ़क्षों पर इनके बीज सूख जाएंगें. वनों के अन्दर खर-पतवारों के अतिक्रमण से प्राकृतिक वनों की संरचना में आ रहे गम्भीर कमी को जलवायु परिवर्तन के साथ जोड़ा गया है जिससे वनों पर प्रतिस्पर्धात्मक असर पड़ेगा. इसी प्रकार अल्पाइन वनस्पति क्षेत्रों की कई प्रजातियों का विकास उनके बर्फ के पिघलने के साथ शुरू होता है. बर्फ की मात्रा में कमी एवं जल्दी बर्फ पिघलने से उनके विकास और जीवन चक्र प्रभावित हो रहे हैं. वायुमंडल में तापमान वृद्धि के एक मुख्य असर के रूप में जंगल की आग की घटनाओं मे वृद्धि हुई है. उत्तराखण्ड में चार जिले (अल्मोड़ा, चमोली, टिहरी, और पौढ़ी गढ़वाल) में सबसे अधिक विनाशकारी आग मे 27 मई 1995 को 2115 वर्ग कि.मी. मी (कुल ऊंचाई 600 मीटर से 2650 के बीच) क्षेत्र गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गया था. बिन्सर वन्य जीव अभ्यारण्य (कुमांऊँ) से प्राप्त सूचना के अनुसार वर्ष 1995 मे वायु का तापमान सबसे अधिक था. अतः ज्ञात होता है कि पौधे जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होकर अग्रिम शोध के लिए संकेत दे रहे हैं.
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उत्तराखण्ड के ग्लेशियरों से हमारे देश की प्रमुख नदियां गंगा-यमुना का उद्गम होता है. जो भारतवर्ष की लगभग आधी आबादी की पूर्ति करती है. हाल के दशको में बर्फबारी में कमी एवं तापमान के बढ़नेें से बर्फ के पिघलने की वृद्धि दर ने इस प्रदेश के जल संसाधन पर नकारात्मक असर डाला है. उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध गंगोत्री ग्लेशियर पर विस्तार से कई शोध अध्ययन हुए है. एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1930 में यह ग्लेशियर 25 कि.मी. लम्बा था लेकिन अब यह 20 कि.मी. लम्बा रह गया है. शोधकर्ताओं ने इस ग्लेेशियर के सिकुड़ने की दर 18-23 मीटर/वर्ष तक आँकी है. हालांकि इस संस्थान के विस्तृत अध्ययन से पता चला कि यह दर लगभग 12 मीटर/वर्ष ही है. इसी प्रकार कुमांऊँ के पिंडारी ग्लेशियर के सिकुड़ने की दर 23.5 मीटर/वर्ष आँकी गई है. कुमाऊँ के मिलम ग्लेशियर के सिकुड़ने की दर 9.1 मीटर/वर्ष 1901-1997 पाई गई है. गढ़वाल में स्थित डोकरियानी वामक ग्लेशियर पिछले 35 वर्षो में 16.5 मीटर/वर्ष की दर से सिकुड़ा है. इन अध्ययनों से स्पष्ट है कि ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार उत्तराखण्ड में हाल के दशकों में बढ़ी है. ग्लेशियरों के पिघलने में जंगलों की आग एवं लकड़ी व अन्य ईधन जलने के धुंए से वायुमंडल मे हो रही तापमान वृद्धि का असर अब स्थापित हो गया है. वर्षा में कमी भूमि में वनस्पति आवरण के ह्रास व मृदा अपरदन एवं अन्य पर्यावरणीय कारकों के कारण जल स्रोतों, छोटे नदी-नालों का सूखना व उनका वर्ष के मात्र कुछ महीनों में जल धारण करना अब आम बात हो गई है. इसके चलते जल की गम्भीर समस्या से गामीणों एवं कस्बों की आबादी को जूझना पड़ रहा है. नैनीताल जिले के गौला नदी जलागम में एक अध्ययन से पता चला कि लगभग 45% जल श्रोत सूखे गए है या बारहमासी नहीं रहे है. पिथौरागढ़ जिले में संस्थान के अध्ययन से पता चला है कि गर्मियों में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता राष्ट्रीय 60 लीटर प्रतिदिन के मानक के आधार से आधी रह गई है.
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जलवायु परिवर्तन प्रत्यक्ष रूप से मानव स्वास्थय को प्रभावित करता है. उदाहरण के लिए डायरिया, मलेरिया, दमा इत्यादि को तापमान एवं वायुमण्डल की आद्रता तथा जल प्रदूषण से जोड़ा जा सकता है. जलवायु परिवर्तन का प्रत्यक्ष रूप से कई वेक्टर जनित रोगों पर प्रभाव पड़ता है. जैसे-मलेरिया का फैलना, बारटीनेलिसिस, बोर्न टिक रोग, वायरल बुखार और अन्य महामारी रोग तापमान वृद्धि से जुड़े हुए हैं जो पैथोजेन की वृद्धि में सहायक होते हैं. हाल के वर्षों में मच्छरों की ऊँचें पर्वतीय इलाकों में उपस्थिति इसी वायुमण्डलीय तापमान बढ़ने का उदाहरण है.
एयरोसोल्स को प्राथमिक रूप से वायुमण्डल में प्रदूषण वृद्धि का कारक माना जाता हैं. संस्थान द्वारा हिमाचल प्रदेश में किए गए अध्ययन ने ज्ञात हुआ कि जाड़ों में इसके सान्द्रण में वृद्धि एवं वाहनों के धुएँ से वायुमंडल की दृष्य क्षमता प्रभावित होती है. वायुमण्डल में नाइट्रोजन आक्साइड तथा ओजोन का बढ़ता हुआ स्तर स्वाँस से संबंधित बीमारियों को बढ़ावा देता है. इसके अलावा विशाल मात्रा में शहरों से उत्पन्न कूड़ा-कचड़ा से स्वच्छता और स्वास्थय से जुड़ी गंभीर समस्याएँ पैदा हो रही हैं. इस दिशा में ज्ञान और मानव जीवन पर पड़ने वाले दुष्परिणाम के आकड़ें सीमित है, किन्तु यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निर्धन वर्ग पर ज्यादा असर पड़ेगा जो कि पूर्ण रूप से प्राकृतिक संसाधनों पर आजिविका हेतु आश्रित है.
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जलवायु परिवर्तन के मानव जन-जीवन एवं पर्यावरण पर पड़ने वाले उपरोक्त व्यापक असर एवं इससे निपटने की प्रभावी रणनीति के मध्य नजर कुछ सुझाव निम्नवत हैं –
(1) मौसम से संबंधित आकड़ो का संग्रह एवं जन-सामान्य को उपयोगी जानकारी सरल रूप में उपलब्ध कराना.
(2) सूखा, बाढ़ चक्र एवं अन्य वायुमण्डलीय घटनाओं का विस्तृत अध्ययन करके उपयुक्त फसलों व वनस्पतियों का वृक्षारोपण हेतु चयन.
(3) जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु फसलों एवं वनस्पतियों व वनों की अनुकूलन क्षमता की रणनितियों की बेहतर समझ विकसित करना.
(4) जलवायु परिवर्तन (कार्बन डाइआक्साइड और वायुमण्डलीय तापमान वृद्धि) का महत्तवपूर्ण खाद्य फसलों, इमारती लकड़ी, औषधीय पौधों पर अध्ययन एवं बचाव रणनीति विकसित करना.
(5) ग्लोबल वार्मिंग के फलस्वरूप हिमनदों के सिकुड़ने, पिघलने, बर्फबारी में कमी व बर्फानी नदियों के जलस्तर में उतार-चढ़ाव का अध्ययन.
(6) पौधों और जीव-जन्तुओं के गर्म वायुमण्डल के परिणामस्वरूप प्रवर्जन लिए प्राकृतिक वास की आवष्यकताओं की जानकारी एकत्र करना.
(7) जल संरक्षण उपायों (वर्षा जल संग्रहण, आदि) एवं जल एवं वायु गुणवत्ता पर कार्यक्रम.
(8) खर-पतवारों का उन्मूलन
(9) जलवायु परिवर्तन के सापेक्ष स्थानीय निवासियों का मुकाबला करने एवं प्रभाव न्यूनीकरण उपाय के पारंपरिक ज्ञान का प्रलेखन जो कि रणनीति बनाने हेतु महत्वपूर्ण साबित होगा.
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डॉ. गिरीश नेगी का यह लेख हमें काफल ट्री की ईमेल आईडी पर प्राप्त हुई है. डॉ. गिरीश नेगी से उनकी ईमेल आईडी negigcs@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.
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