पिथौरागढ़ जनपद के सीमान्त क्षेत्र के दर्जनों गाँवों में अधिशासित आराध्य देव छिपलाकेदार धारचूला तहसील के बरम से लेकर खेत तक के सभी गाँवों के इष्ट देव के रूप में स्थापित है. प्रति दो वर्ष में छिपलाकेदार की यात्रा का आयोजन होता उक्त सभी ग्रामों में आयोजित होती है, जिसमें ग्रामों की छिपलाकोट से दूरी के अनुसार यात्रा 3-5 दिनों की होती है.
छिपलाकेदार का निवास स्थान नाजुरी कोट के रूप में जाना जाता है. छिपला केदार यात्रा जिसे स्थानीय लोग केवला छिपला के नाम से पुकारते है सभी ग्राम अपने-अपने गाँवों से निकलकर नाजुरी कोट तक का सफर तय करती है जहाँ छिपला ताल है जिस ताल में स्नानादि करके नवयुवकों का मुण्डन इत्यादि कर्म सम्पन्न होता है. इस कुण्ड का जल प्रसाद स्वरूप वहां गये लोग घरों में लाते है. यह यात्रा कम मेला होता है जिसमें आखिरी के दिन ग्राम वापसी पर सम्बन्धित ग्राम में मेले का आयोजन किया जाता है. यह यात्रा जितने भी दिन की जिस गांव में हो नंगे पैरों से की जाती है.
अब बात करें नाजुरीकोट या छिपला केदार की तो प्रचलित जागरों के अनुसार छिपला केदार स्थायी रूप से यहां के निवासी नहीं थे. उनका प्रारम्भिक जीवन खलछाना (पत्थरकोट) जो कि नेपाल की राजधानी काठमांडु के समीप नुवाकोट में स्थित है में बीता. नुवाकोट वर्तमान में नेपाल का एक जिला है. केदार देव नौ भाई थे जो बासुकी नाग की सन्तान माने जाते है, क्षेत्र में प्रचलित जागरों के अनुसार छिपला केदार सबसे छोटे भाई थे इनके बडे़ भाईयों में उदायन, मुदायन, देव, मंगल, घ्वजकेदार, थल केदार, बूड़केदार तथा बालकेदार थे. घर में सबसे छोटे होने के कारण छिपला केदार भाभियों के लाड़ले थे, किन्तु उनके बड़े भाईयों को उनके साथ हँसना-बोलना नापसंद था. बड़े भाई छिपला केदार पर शक किया करते थे फलतः उन्होनें छिपला को मरवाने की योजना बनानी प्रारम्भ कर दी किन्तु कोई भी भाई भातृहत्या का पाप स्वयं लेने को तैयार नहीं था. अतः छिपला को अन्य विधियों से मारे जाने की साजिश शुरू हो गई.
पहली योजना उनके भाईयों ने बनाई तराई के जंगल में छोड़ आने की जहां जंगली जानवर छिपला केदार को मार डालते. दूसरी ओर छिपला केदार निष्पाप भाव से भाईयों तथा भाभियों का सम्मान करते थे. प्रथम योजना के तहत भाई उन्हें तराई के जंगलों में छोड़ आते है पर वो कुछ ही दिनों में वापस घर पहुँच जाते है. दूसरी योजना तराई क्षेत्र में आंतक के प्रयाय डाकुओं से मरवाने की थी, उन्हें मिल-बाँटकर खाने वाले राज्य कहकर वहां छोड़ दिया जाता है, किन्तु यहां से भी वे बचकर बाहर निकल पड़ते है.
इस प्रकार कई प्रकार के षड़यंत्रों के असफल होने के बाद वे बकरियों के साथ तराई पार कर काली के निकट के जंगलों की तरफ ले जाते हैं जहां यार्मी-च्यार्मी नामक दुष्ट शासक का क्षेत्र था. कहा जाता है कि वर्तमान नाजुरी कोट में तब यार्मी-च्यार्मी नामक शासक का महल था, क्रूर व अत्याचारी शासक था. छिपलाकेदार को अंततः छोड़ दिया जाता है च्यार्मी के राज्य में जहाँ 12 लड़कों, 12 बहुओं, बाहरबीसी(240) शिकारी कुत्ते जिन्हें मार्का कहा जाता था के साथ शासन करता था. उस समय च्यार्मी की सीमा पर कोई बाहरी आदमी किसी भी रूप में प्रवेश नहीं कर सकता था इतना खौफ था पूरे क्षेत्र में उसका.
छिपलाकेदार ऐसे समय में राज्य में प्रवेश करते है जबकि च्यार्मी के बेटे और शिकारी कुत्ते शिकार हेतु बाहर होते हैं तब महल में एक ब्राह्मण का वेश बनाकर छिपलाकेदार अन्दर घुसते है. च्यार्मी की पत्नी उन्हें सचेत करती है कि हे ब्राह्मण तू जो भी है जल्दी यहां से निकल जा अभी मेरे बेटे-बहु शिकार पर गये है वो आते ही होंगे अगर वे आयेंगे तो तूझे मार डालेंगे. छिपला केदार तो पूर्व से ही स्थिति से भिज्ञ थे. थोड़ी देर बाद धूल उड़ाते शिकार करे आये च्यार्मी के पुत्र एवं बारहबीसी शिकारी कुत्ते घर पहुँचते है और ब्राह्मण भेष में खड़े युवा की तरफ ध्यान जाते ही कानाफुसी शुरू करते है कि ये कौन है यहां कैसे आया \ पर चूंकि वे शिकार से भूखे आये थे और खाना तैयार था उन्होंने फैसला किया कि पहले भोजन करेंगे फिर इस ब्राह्मण को देखेंगे.
यह कहते हुए सब पाण (पहाड़ी घरों में डाइनिंग रूम का काम करता है चूंकि बनावट के हिसाब से भोजन बनाने का स्थान घर में सबसे ऊपर होता है) में गये, जो सम्भवतः तिमंजिता इमारत के बराबर की ऊंचाई पर था. उनकी मनोदशा को भांप गये थे छिपला केदार कि भोजन के पश्चात् उनकी हत्या की योजना बनाई गई है. अतः छिपला केदार ने पाण की सीढ़ियों को उलट दिया. जैसे-जैसे च्यार्मी और भोजन पश्चात् नीचे आते गये सबका वध करते गये छिपला केदार. च्यार्मी की सबसे छोटी बहु गर्भवती थी, जिसकी हत्या के समय ही बालक का जन्म हुआ और छिपला केदार से चिपट गया. जागरों के मुताबिक12 दिन तक वह नवजात केदार की छाती से चिपटा रहा.
11वीं रात को छिपला की भाभियों को सपने में दिखा कि छिपला केदार मुसीबत में है तो उन्होंने कौव्वे को भेज कर संदेश भिजवाया 12वें दिन जब कौव्वा वहां पहुँचा तो बोलने लगा ‘क्या भूलि रैछे छिपला केदार, छोलिंगा बिजौरा’ यानि कि क्या भूल रहा है छिपला बिजौरा (यह नींबू प्रजाति का फल है जो आकार में बड़ा होता है) किससे छिलता था? तब केदार को याद आता है कि उसकी पीठ में छुरी हैं जिससे वे उस नवजात को छुड़ा पाते है. उस बालक के खून के छींटे आज भी नाजुरी कोट में राता पौड़ (लाल चट्टन) के रूप में विद्यमान है. उस नवजात के टुकड़े करके छिपला ने बिखेर दिये थे, उसकी जीभ के रूप में नारायण आश्रम-तवाघाट मार्ग पर आज भी जीभ के आकार की चट्टान मौजूद है, जिसकी विशेषता है कि अमावस्या के दिन एक अंगूल से हिलाने पर हिलती है अन्यथा नहीं. इस प्रकार यहां से यार्मी-च्यार्मी के अत्याचार पूर्ण शासन का अन्त हुआ. छिपलाकेदार वापस अपने गृहनगर न जाकर यहीं बस गये.
-पान सिंह धामी
यह लेख धारचूला के रहने वाले पान सिंह धामी द्वारा लिखा गया है. उनकी पुस्तक छिपलाकेदार एक अज्ञात तीर्थ जल्द ही आने वाली है.
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1 Comments
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जय श्री हरि भाई साहब हमने आपका लेख पढ़ा बहुत ही अच्छा लगा हम पैदल यात्रा पर निकलेंगे कुछ भी दोनों में तो आपसे जरूर मिलकर जाएंगे ओम पर्वत तक जाना है हम दो आयेगी