अपने जमाने में चलन ऐसा नहीं था कि तीन साल का हो जाने पर बच्चे को तिपहिया साइकिल दिलायी जाए और छः साल का होने पर दुपहिया साइड सपोर्टर साइकिल. ड्राइविंग का शौक हमने तार और रबर के पहिये चला कर पूरा किया है. इनमें ब्रेक, एक्सलरेटर सब वर्चुअल होता था और हॉर्न का काम मुँह से चलाया जाता था. आजकल के बच्चे सिमुलेटर वीडियो गेम्स पर साइकिल क्या, हवाई जहाज भी चलाना भले ही सीख रहे हैं पर ज़मीनी अनुभव तो आखिर ज़मीनी ही होता है.
(Childhood Memoir Cycling)
तपती लू, बरसात की झड़ी और हाड़ कंपाती सर्दी में एक तार और पहिया लेकर ड्राइविंग करने के लिए जिस जज़्बे और हौसले की जरूरत होती है, उसकी कल्पना भी आज के वीडियो गेम्स खेलने वाले बच्चे नहीं कर सकते हैं. हमारे खेल में असली रोमांच होता था. भले ही कहीं लिखा या दर्ज़ नहीं होता था पर अपने भी खेल के लेवल होते थे.
पहले लेवल में घर के आँगन में ही ड्राइविंग की जाती थी. दूसरे लेवल में गली में, तीसरे लेवल में हर्डल्स वाले रास्तों पर अपना हुनर दिखाना होता था और चौथे लेवल में मोटर रोड पर असली वाहनों के साथ, रोड सिग्नल्स के ज्ञान का भी परीक्षण होता था. इनसे आगे के एडवांस लेवल में, कुछ-कुछ जीनियस ही महारत हासिल कर पाते थे. जैसे दोनों हाथों से एक साथ दो-दो पहिये चलाना, आँख बंद करके चलाना, चलते-चलते पहिये को पैरापिट जैसे ऊँचे लेवल पर ले जाना और फिर उतारना. कोई साइकिल सवार, अगर कभी आगे डण्डे पर या पीछे कैरिअर में बिठा देता तो ये तो अपनी हवाई यात्रा ही हो जाती थी.
आठवें दर्ज़े में पढ़ते थे, जब अपने कस्बे में एक नया मोड़ आया. ये मोड़ था कस्बे में किराये की साइकिल की दुकान खुलना. बचपन की नज़र से कस्बे का इतिहास लिखूं तो उस इतिहास के लैंडमार्क्स होंगे- जब कस्बे में पिक्चर हॉल खुला, जब पहला क्रिकेट क्लब बना, जब पॉलीटेक्नीक इंस्टीट्यूट खुला और जब कस्बे में पहला वीसीआर आया. कस्बे के इतिहास के इसी लैंडमार्क पर हमने भी जेबखर्ची के पाँच-दस रुपये में, किराये की साइकिल से, साइकिल चलाना सीख लिया था. सीखा क्या, बैलेंस बना लेते थे, पैडल मार लेते थे, घंटी बजा कर आगे चलने वालों को साइड होने का संकेत कर लेते थे और पीछे एक सवारी को बिठा कर भी चला लेते थे. फिर भी अभी एक्सपर्ट नहीं बने थे.
किराये की साइकिलों की एक विशेषता ये थी कि, उनकी ऊँचाई कम होती थी. इससे साइकिल सीखने के, कैंची वाले स्टेप की जरूरत नहीं रहती थी. बकौल सीनियर उस्तादों के ड्राइविंग में अभी सफाई नहीं आयी थी. हमें लगता था कि उस्ताद लोग अपनी अहमियत बढ़ाने के लिए ऐसा कहते थे, वरना किस एंगल से उन्हें हमारी ड्राइविंग में कमी नज़र आती थी. ड्राइविंग के इस लेवल तक हम मैदान में चलाया करते थे, जहाँ तेज़ गति से आते-जाते वाहनों के बीच ड्राइविंग करने की चुनौती नहीं होती थी.
जेबखर्ची में, कितने दिन, किराये की साइकिल चलायी जा सकती थी. हद से हद पाँच-सात रोज़. वो भी आधा घंटा प्रतिदिन. बाकी दिनों में साइकिल की तलब होना लाज़िमी था. तलब मिटाने के लिए हमने खुद ही उस्ताद बनने का रास्ता अपनाया. इस रास्ते में ये देखना होता था कि कौन नया-नवेला साइकिल की सवारी सीख रहा है. देखते ही उसके साथ-साथ चलते रहो. बिन मांगी सलाह देते रहो और उसके गिरते ही सँभालने के बहाने साइकिल को अपने कब्जे में ले लो. फिर डेमो के बहाने मैदान का एक लम्बा चक्कर मारकर, हवाखोरी का स्वर्गिक आनंद प्राप्त करते रहो. हालांकि, जितना आसान ये कहने-लिखने में लग रहा है उतना हक़ीक़त में था नहीं.
(Childhood Memoir Cycling)
एक सवार के साथ आठ-दस स्वयंभू उस्ताद लोग रहते थे जो सवार को प्रभावित करने का कोई मौका नहीं चूकते थे. एक उस्ताद कहता कि चलाते वक़्त नज़र पहिये पर रखोगे तो गिरोगे ही. दूसरा उस्ताद, पहले का खण्डन करते हुए कहता कि नज़र से कुछ नहीं होता है, बैठने की सही पोजीशन अधिक मायने रखती है. जितना आगे झुक कर चलाओगे, उतनी ही अधिक स्पीड बनेगी. बाज़ी तीसरा उस्ताद मार लेता था, जो कहता कि, साइकिल, अपने सवार को पहचानती है, उसका आत्मविश्वास देखती है. गिर गया, गिर गया सोच कर चलाओगे तो गिरोगे ही. फंडा ये है कि, जिधर को गिरने लगो, उधर को ही हैंडल घुमा दो. फिर, नज़र सामने और साइकिल ये चली…
ऐसा कहते-कहते वो वास्तव में, स्वयं साइकिल पर चढ़ जाता था और ध्यान से देखो, कह कर, नज़रों से ओझल हो जाता था.
ऐसे ही उस्तादों के बीच रह कर, उस्तादी के कुछ सबक हमने भी सीख लिये थे. दूसरे-तीसरे दिन कोई न कोई शागिर्द हमें भी मिल ही जाता था. ऐसे में हमें दो-दो सुखों का एक साथ आनंद मिलता था. एक मुफ़्त की साइकिल-सवारी का और दूसरा उस्तादी के उन्नत आसन का. तब, ये मालूम न था कि ज़िदगी, उस्तादी करते-करते ही गुजरनी है, पर ये मालूम हो गया था कि उस्तादी में इज़्ज़त इफ़रात में मिलती है. शागिर्द के पास, आम-अमरूद जैसे मौसमी फल हों या टॉफी-बिस्किट जैसी चीजें, वो दोस्तों के बीच, पहले आप के अंदाज़ में, सबसे पहले उस्ताद को ही पेश करता था. ऐसे ही एक शागिर्द को, साइकिल सिखाते हुए, हम दो-दो सुखों का आनंद प्राप्त कर रहे थे कि शागिर्द ने कहा, मैदान में चलाना तो आपने सिखा दिया, तो क्या अब मेन-रोड पर चलाना भी सिखा देंगे. क्यों नहीं, कल ही हम रोड पर निकल लेंगे. उस्ताद की सहमति पाकर, शागिर्द की खुशी, उसकी आँखों से टपकती हुई दिखायी दे रही थी. साथ ही हमारी बढ़ती हुई धड़कन भी हमें सुनायी दे रही थी. कारण ये कि रोड पर, तब तक हमने खुद भी, कभी साइकिल नहीं चलायी थी. शागिर्द को ना कहने का मतलब था, दो-दो सुखों से एक साथ वंचित रहना, और उस्ताद की सत्ता का, देखते ही देखते भूतपूर्व हो जाना.
(Childhood Memoir Cycling)
अगले दिन, किराये की साइकिल लेकर, शागिर्द को कैरिअर पर बिठा कर, हम मेन रोड पर, एक ऐसा सबक सिखाने निकल गये, जिसे हम स्वयं भी नहीं जानते थे. किराये की साइकिलों मे कैरिअर होता नहीं था, पर उस वाली में था. वो वाली तभी किराये पर दी जाती थी, जब दूसरी सभी साइकिलें किराये पर चली जाती थी. लगभग पाँच किमी के इस सफर में मैंने मात्र सौ-दौ सौ मीटर ही शागिर्द को साइकिल चलाने दिया. बाकी के समय में, सारे सबक मौखिक रूप में दिये गये. शागिर्द को ये विश्वास हो गया था कि मेन-रोड पर साइकिल चलाने का पहला सबक, उस्ताद के साथ कैरिअर पर बैठ कर, सड़क के रंग-ढंग देखना ही होता है. शाम को देर से निकले थे तो लौटते हुए धुँधलका हो गया था. ईश्वर को मन ही मन धन्यवाद देते हुए वापसी हो रही थी कि देखा सामने चार-पाँच लोग, बातों में मशग़ूल, लगभग पूरी सड़क को घेर कर चले जा रहे हैं. बीच में सबके साइकिल निकलने लायक गैप तो था, पर मैं ये निर्णय नहीं कर पा रहा था कि किस वाले गैप से साइकिल निकालूं. खैर, मेरे निर्णय का इंतज़ार किये बिना, साइकिल अपनी पसंद के गैप से निकल गयी. हैंडल, एक सज्जन की कुहनी से टकराया. ये पता तब चला, जब पीछे से उनकी आवाज़ सुनायी दी. अरे! आँख देख कर नहीं चला सकता. अब मैं पीछे देख कर, ये निर्णय करने की कोशिश करने लगा कि, क्या मुझे साइकिल रोक कर, अंकल को सॉरी कहना चाहिए, या तेज चलाते हुए, आगे निकल जाना चाहिए. इस बार भी, मुझसे पहले निर्णय साइकिल ने किया. वो दाहिनी ओर को जाते हुए दोनों सवारों को सड़क के नीचे की ढलान में गिरा कर, स्वयं स्थिरावस्था को प्राप्त हुई.
किस्मत अच्छी रही कि पाँच सौ मीटर गहरी खाई के ऊपरी हिस्से में ही, दोनों सवार मय सवारी के, झाड़ियों में अटक गये. फुर्ती से उठ कर सबसे पहले अपने कपड़े चैक किये जो सही-सलामत थे. फिर सवारी की जाँच की गयी. तीन-चार स्पोक छटक गये थे उन्हें सही जगह पर बिठाया गया. हैंडल टेड़ा हो गया था तो आगे के टायर को दोनों टांगों के बीच दबा कर हैंडल सीधा किया गया. टायर-रिम में भी हल्का-सा बैंड आ गया था पर उसका कोई फर्स्ट-एड हमारे पास था नहीं. झाड़ी में चैक किया गया कि सवारी का कोई हिस्सा, टूट कर तो नहीं गिरा हुआ है. ये सब इतनी फुर्ती से किया गया कि पीछे से सड़क घेर कर घूमने वाले अंकल लोगों के पहुँचने से पहले ही दोनों सवार साइकिल पर बैठ कर आगे बढ़ गये. लौटते हुए अहसास हुआ कि चैकिंग अपनी भी करनी चाहिए थी. दोनों का हर जोड़ दुःख रहा था.
19वीं सदी की साइकिल की पुरखिन, बोन-शेकर भी हड्डियों को इतना क्या ही हिलाती होगी. वही बोन-शेकर जिसके लकड़ी के पहियों पर लोहे की रिम चढ़ी होती थी. हम दोनों, एक दूसरे का, ऑल इज़ वेल का देशी संस्करण, कोई बड़ी बात नहीं, कह कर हौसला बढ़ा रहे थे. घटना, पूरी तरह अप्रत्याशित थी. न ही उस्ताद के कोर्स में इसकी कोई जगह थी, और न ही शागिर्द ने, इतने कठिन सबक की कोई उम्मीद करी थी. लौटते हुए मैं हिसाब लगा रहा था कि अगर साइकिल-मालिक ने, साइकिल को हुए नुकसान के सौ-पचास रुपये मांग लिए, तो फिर हम क्या करेंगे. पैसे न होने पर, क्या वो हम दोनों को ही बंधक रख लेगा. या नाम-पता नोट कर, घर वालों से हिसाब चुकता करने के लिए कहेगा. अँधेरा घिर आया था, और पहली बार, अँधेरे पर प्यार उमड़ आया था. आखिर, अँधेरे के कारण ही साइकिल-मालिक, जो दुकान बढ़ाने की तैयारी कर रहा था, ने साइकिल की चैकिंग किए बिना ही किराये की डायरी में नाम के आगे सही का निशान लगा दिया. दिन की बात होती, तो बीस मिनट की देरी के लिए भी एक्स्ट्रा चार्ज अवश्य ही लेता. पैदल चलते हुए, शागिर्द ने झिझकते हुए पूछा कि उस्ताद, ऐसा क्यों हुआ होगा. इसके जवाब में मैंने कहा कि तुम्हें पिछली कक्षा में पढ़े रूल ऑफ द रोड पाठ की याद तो होगी. बस वही कारण है. लेफ्ट चलने के बजाय, अगर लोग सड़क घेर कर चलेंगे, तो ऐसा ही होगा. अनाड़ी उस्ताद के इस अकादमिक उत्तर से शागिर्द के मन में उस्ताद और रूल ऑफ द रोड, दोनों के प्रति सम्मान और प्रेम, निश्चित ही उमड़ने लगा होगा.
(Childhood Memoir Cycling)
सुखांत से लगने वाले इस किस्से कि नियति में अभी कुछ और भी लिखा हुआ है. रात को सपने में, मैं पहाड़ी से लुढ़कता हुआ खाई में नीचे गिरा जा रहा था. शागिर्द भी लुढ़क रहा था. हम दोनों लुढ़कते हुए ही अपनी साइकिल को हवा में कलाबाजी खाकर गिरते हुए देख रहे थे. अगली शाम को उस्ताद के पिता द्वारा उसकी जबरदस्त क्लास ली गयी. हालांकि वे इस बात को लेकर सशंकित भी थे कि उस्ताद वास्तव में साइकिल चलाना सीख गया होगा. उनके दिगाग में शायद ये चल रहा था कि दो लड़के साइकिल के साथ मेन-रोड पर धक्का-ठेल का खेल कर रहे होंगे. खैर, उस्ताद की ऐसी क्लास ली गयी कि उसने फिर कभी साइकिल को हाथ नहीं लगाने का सोच लिया. दरअसल जिन अंकल की कुहनी उस्ताद की साइकिल द्वारा चुने गये गैप में आ गयी थी वो उस्ताद के पिताजी के जानने वाले थे. अंकल ने अतिशयोक्ति अलंकार पर अपनी पकड़ का परिचय देते हुए, उस्ताद की साइकिल-सवारी का ऐसा वर्णन पिताजी से किया कि उस्ताद के पक्ष को जानने की जरूरत ही महसूस नहीं की गयी.
मन की हजार तरंगों में से एक ये भी थी कि एक दिन कुशलता से साइकिल चलाते हुए देख कर पिता कहेंगे कि अब किराये की साइकिल चलाने की जरूरत नहीं है. तेरे लिए मैंने नई साइकिल मंगवा ली है. तरंगों का क्या है वो तो बिखरने के लिए ही बनती हैं. किस्मत में साइकिल की सवारी लिखी हुई थी और वो भी उस्तादी करते हुए तो मौके और भी मिलते रहे. एक बार एक अधेड़ गुरूजी को साइकिल सीखने का चस्का लगा तो उनकी उस्तादी करने का भी मौका मिला. स्कूल में जिन गुरूजी के अनुशासन में परिंदा भी पर नहीं मारता था, मैदान में मैं उन्हें मनचाहा नचाया करता था. गुरूजी भी अनुशासित शिष्य की तरह सब कुछ शिरोधार्य करते थे. गुरूजी, जब भी मुझे अपने बड़े होने का अहसास दिलाते तो मैं पलट के कहता- गुरूजी बड़े होने से, डर भी बड़ा हो जाता है. जो लचीलापन और दुस्साहसी प्रवृति बच्चों के पास होती है वो बड़ों के पास नहीं. दस दिन हो गये अभी तक आप बैलेंस बनाना भी नहीं सीख पाये हैं.
आधुनिक साइकिल को हैरी जॉन लॉसन, 1879 में बाज़ार में लाये थे. सनद रहे कि इसके ठीक सौ साल बाद इस किस्से के उस्ताद ने ऋषिकेश-बदरीनाथ मार्ग पर साइकिल सीखी थी. समय-समय की बात है. अब नौवीं कक्षा में लड़कियों के प्रवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी स्कूलों में साइकिल खरीदने के लिए धनराशि भी दी जा रही है. हमारे ज़माने में किराये की साइकिल से सीखने पर भी हंगामा हो जाता था. बद्रीदत्त भट्ट उर्फ़ सुदर्शन की प्रसिद्ध कहानी साइकिल की सवारी पढ़ाते हुए गुरूजी ने कक्षा में पूछा- इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है. उस्ताद ने अपनी साइकिल की कहानी को याद करते हुए कहा- पूरी तरह सीखे बिना, सड़क पर नहीं निकलना चाहिए.
(Childhood Memoir Cycling)
1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित), शोध-पुस्तिका कैप्टन धूम सिंह चौहान और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं.
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