हमारे गांव में मन्नाण – गांव में सार्वजनिक स्थल अर्थात पंचायती चौक के उत्तर, दक्षिण व पूरब दिशा में आबादी है तथा पश्चिम में सीमेण्ट गारे से बनी हुयी ढालदार छत वाली पानी की टंकी है. यह टंकी सन 1959 में गाँव के बाशिंदों के आर्थिक सहयोग से निर्मित है. ऐसा उस पर अंकित है. खेलने का एकमात्र स्थान मन्नाण गांव की घनी आबादी के बीच में स्थित होने के कारण छोटे-छोटे लड़कों का जमघट वहीं पर रहता था और टंकी से लगा मन्नाण खेल का मैदान होता. (Childhood Memoir by Shoorvir Rawat)
पैंतालीस-पचास साल पुरानी बात है. मन्नाण पर आज की भांति तब अतिक्रमण नहीं हुआ था इसलिये वह आकार में पहाड़ के गांव के हिसाब से ठीक-ठाक था. आज की तरह तब टी. वी. और मोबाइल फोन का जमाना नहीं था, इसलिये गांव के लड़के घरों में कम ही रुकते थे. फुर्सत मिलते ही सारा जमघट वहाँ पर होता. मेरा घर ही मन्नाण से लगभग साठ मीटर ऊंचाई और दो सौ मीटर दूरी पर पूरब दिशा में है.
कंचा, गुत्थी, पंचापथरी, गुल्लीडण्डा या फुटबाल ही तब हमारा खेल होता. कंचा और गुत्थी तो मन्नाण के दायरे के भीतर होती लेकिन पंचापथरी, फुटबाल और गुल्ली डण्डा ऐसा खेल था जिसमें गेंद या गुल्ली अक्सर आसपास के घरों के आंगन में गिर जाया करती थी. पंचापथरी और फुटबाल की बॉल के नाम पर कपड़े की बॉल ही हमारे पास होती. कपड़ा – अर्थात किसी पुराने जुराब के अन्दर कपड़ा भरकर या कई बेकार कपड़ों को गोलाई में लपेट कर सुतली से कसकर बाँधते थे और बॉल तैयार. लाख सावधानियों के बाद और खेल के नियम सख्त करने के बाद भी प्रायः बॉल या गुल्ली खेलते-खेलते कहीं किसी के घर के आंगन में चली ही जाती. जो दो-चार बातें सुनकर वापस भी मिल जाती थी. लेकिन यह मन्नाण के दक्षिण में नत्थू सिंह खरोला जी के घर में गिर गयी तो फिर खैर नहीं.
नत्थू सिंह खरोला हालांकि मेरे पिताजी से दो-चार साल ही बड़े रहे होंगे परन्तु गांव के रिश्ते में वे मेरे दादा लगते थे. नत्थू दादा स्वभाव से चिड़चिड़े थे, बहुत ही चिड़चिड़े. हमारी गुल्ली या बॉल उनके आँगन में गिरी तो फिर किसी की क्या मजाल कि उनसे वह माँग ले और माँगने पर भी वे देने वाले नहीं थे. वे बड़ी निर्दयता से उन्हें सीधे पानी की टंकी के आगे की ओर ढलान पर बनी चाल, गन्दे पानी के तालाब, में फेंक देते थे. तालाब में टंकी के नल पर नहाने, बर्तन व कपड़े धोने का मैला पानी जमा होता था और सामान्य भाषा में उसे गन्दा पानी ही कहते थे. लम्बे समय तक सफाई न होने पर तालाब की तलहटी में पांग जम जाती थी. नत्थू दादा द्वारा बॉल या गुल्ली तालाब में फेंक देने पर बॉल या गुल्ली हम येन-केन-प्रकारेण निकाल तो लेते परन्तु कपड़ों से तैयार की गयी बॉल भीग जाने के बाद खेलने लायक नहीं रहती थी. नत्थू दादा को फुसफुसाते हुये गाली देते हुये हमें उस दिन का खेल निरस्त करना पड़ता था. हाँ, गुल्ली धो-धाकर फिर खेल सकते थे. कल्पना ही की जा सकती है कि तब हम बच्चों को कितना गुस्सा आता होगा.
नत्थू दादा का स्वभाव जितना चिड़चिड़ा था उनकी आवाज भी उतनी ही कर्कश थी. वे जब चिल्ला कर हम लड़कों को डांटते तो हमारी घिग्घी बंध जाती थी. उनके रोब-दाब को देखते हुये किसी बड़े-बुजुर्ग ने उन्हें नाम दे रखा था नत्थू कमाण्डिंग अर्थात कमाण्डेण्ट नत्थू सिंह. यह बात हम तब नहीं समझ सके कि उनके इस रोब-दाब के लिये गांव वालों ने उन्हें कमाण्डिंग की उपाधि से क्यों महिमामण्डित किया होगा. जबकि हम लड़कों के हिसाब से वे हौलदार लायक भी नहीं थे.
बड़े होने पर ही मालूम हुआ कि टिहरी रियासत की फौज में कमाण्डेण्ट रह चुके ग्राम-गुल्डी, पटटी-मनियार, चम्बा निवासी नत्थू सिंह सजवाण एक चर्चित व रसूखदार व्यक्ति थे. नत्थू सिंह सजवाण टिहरी रियासत में एक सिपाही के तौर पर भर्ती हुये थे और अपनी मेहनत, ईमानदारी और लगन के बलबूते जनरल तक के सर्वोच्च पद पर पहुँचे थे. वे सम्भवतः अकेले ऐसे शख्स रहे जो अंग्रेजों की ओर से दोनों विश्वयुद्धों में लड़े. उनकी वीरता के किस्से तब टिहरी के घर-घर में थे. हर व्यक्ति की जुबां पर नत्थू सिंह कमाण्डिंग साहब का नाम था. नाम में समानता और स्वभाव में अक्खड़ता के कारण ही मेरे गांव के नत्थू दादा का नामकरण भी गांव वालों ने मजाक ही मजाक में ‘नत्थू कमाण्डिंग’ कर दिया.
नत्थू दादा को गुजरे हुये आज वर्षों बीत गये. बॉल या गुल्ली जब्त करने या तालाब में फेंकने पर तब उन्हें देखकर बहुत गुस्सा आता था, चोरी छुपे उनकी खूब चुगली करते और नकल उतारते थे. लेकिन आज जब उम्र के इस पड़ाव पर हूँ तो उनकी मनःस्थिति समझ सकता हूँ. उनकी परिस्थितियों के बारे में सोचते हुये अपने उस बचकानेपन पर आज पछतावा भी होता है. आज यदि वे जीवित होते तो मैं एक बार उनसे अवश्य माफी मांगता.
वे अपने माँ-बाप की इकलौते लड़के थे. माँ-बाप का साया उनके सिर से जल्दी उठ गया था परन्तु दुर्भाग्य ने साथ नहीं छोड़ा और उनकी पत्नी भी तीन लड़कों को जन्म देने के बाद स्वर्ग सिधार गयी थी. छोटा लड़का जो मेरे साथ का था, उसकी माँ उसे दूध पीता ही छोड़ गयी थी. जिस उम्र में लोग आज शादी कर रहे हैं उस उम्र में नत्थू दादा विधुर हो गये थे.
स्त्री के प्यार से वंचित नत्थू दादा को चूल्हा चौका ही नहीं अपितु उन कठिन परिस्थितियों में बच्चों के लालन-पालन के साथ-साथ आजीविका के लिये खेती-बाड़ी भी करनी पड़ती थी. जब आय का कोई निश्चित स्रोत न हो, बच्चों का लालन-पालन स्वयं करना पड़ रहा हो अर्थात बाहर-भीतर खुद ही पिसना पड़ता हो तो ऐसी परिस्थितियों में किसी के भी स्वभाव में चिड़चिड़ापन आना स्वाभाविक है. परन्तु कभी दूसरे पहलू से सोचता हूँ. सम्भवतः बच्चों के प्रति अपना लाड़-प्यार जताने का नत्थू दादा का यही अन्दाज रहा हो. बच्चों के कोलाहल से ही उन्हें प्रेम हो, इसलिये भी ऐसा व्यवहार करते हों और हम उन्हें तब गलत समझते रहे. कैसी विडम्बना है यह. बहरहाल जो भी हो, नत्थू दादा के प्रति मेरे मन में आज पूरी श्रद्धा है.
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देहरादून में रहने वाले शूरवीर रावत मूल रूप से गाँव सान्दणा, धारमंडल पट्टी, प्रतापनगर, टिहरी गढ़वाल के हैं. शूरवीर की आधा दर्जन से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपते रहते हैं.
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