हम भारतीयों को एक सामान्य बात जो जोड़ कर रखती है वह चमत्कार पर विश्वास. हमें हमेशा चमत्कार पर विश्वास रहा है. उदाहरण के लिए रामायण को ही ले लिया जाय तो रावण को मारने के लिए राम के अवतार की आवश्यकता पड़ी. पूरी रामयाण में राम बिना किसी चमत्कार के भी चमत्कार कर जाते हैं. आदमियों का वानर सेना से हार जाना भी एक चमत्कार ही है.
हम भारतीयों को हमेशा एक चमत्कार का इन्तजार रहता है. आजादी के बाद हमें इस चमत्कार की उम्मीद कांग्रेस से थी. लोकतंत्र होने के बावजूद 1952 के पहले चुनाव में लोगों ने अपने प्रतिनिधि को नहीं कांग्रेस को वोट दिया था. इस अगले चुनाव में चमत्कार की उम्मीद कांग्रेस से हटकर जवाहर लाल नेहरु की ओर सिफ्ट हो गयी.
पहले और दूसरे चुनाव में कांग्रेस की सीटों का अंतर साफ़ बताता है कि लोगों का कांग्रेस से मोहभंग शुरु हो चुका था और नेहरु नये मोह थे. अपनी मृत्यु तक नेहरु भारतीय जनमानस में यह मोह कायम रखने में कामयाब रहे. 1964 तक लोगों ने कांग्रेस छोड़ नेहरू के नाम पर वोट देना शुरु कर दिया था. यह भारतीय लोकतंत्र में करिश्माई राजनीति की नींव थी.
भारत में आम चुनाव में हमेशा जनता ने उसे चुना है जिसने करिश्माई राजनीति को भुनाया है. नेहरु के बाद इस करिश्माई राजनीति को आगे बढ़ाया इंदिरा गांधी ने. इंदिरा के करिश्मे को तोड़ने में विपक्ष को दशक भर लगा. 1977 में जनता दल ने इस करिश्मे पर सेंध जरुर मारी. जनता दल की सरकार के बाद चुनाव प्रचार में इंदिरा गांधी के भाषण सुनिये वह साफ कहती हैं कि इस देश को केवल कांग्रेस चला सकती है और इसी चुनाव में इण्डिया इस इंदिरा का नारा भी मुखर होता है.
जनता दल के भीतर अंतर्विरोधों के अलावा उसके दुबारा न चुने जाने का एक कारण यह भी था कि उन्होंने इंदिरा के करिश्मे को तोड़कर पहला चुनाव जीता था. जनता दल कभी अपना कोई करिश्मा क्रियेट ही नहीं कर पायी.
राजीव गांधी के बाद से लेकर मनमोहन सिंह तक कोई भी अपना व्यक्तिगत करिश्मा न गढ़ सका. इस दौर की कमजोर गठबंधन वाली सरकारें इस बात का सबूत हैं कि लोगों ने इन दशकों में आम-चुनाव में रूचि लेना ही कम कर दिया था. एक बड़ा वर्ग इन दशकों में चुनाव से दूर ही रहा.
अगर 1991-92 का आम चुनाव लिया जाय तो इसमें पिछले 25 सालों में मतदाताओं का प्रतिशत न्यूनतम रहा. 2014 तक के आम चुनावों में मतदाता प्रतिशत तो बढ़ा लेकिन उस अनुपात में नहीं जिस अनुपात में मतदाताओं की संख्या बढ़ी.
2014 में नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर राजनैतिक करिश्मा गढ़ने वाली राजनीति खेली जिसे वह एक दशक से गुजरात में खेलते हुए आ रहे थे. यह करिश्माई राजनीति में परांगत हो चुके नरेंद्र मोदी की करिश्माई राजनीति का परिणाम था कि इस वर्ष मतदाताओं का प्रतिशत रिकार्ड 66.3% रहा. नरेंद्र मोदी ने स्वयं, उनकी पार्टी और मिडिया ने उन्हें चमत्कारिक पुरुष की तरह गढ़ा. जैसा की पहले से भारतीय राजनीति में किया जाता रहा है.
भारतीय मतदाता हमेशा एक चमत्कारी करिश्माई की खोज में रहता है. भारतीय सड़कों पर मदारी, जादूगर, तीन पूंछ वाली गाय, पांच पैर वाले बैल, तीन सींग वाले बकरे के सामने खड़ी भीड़ इसका एक अच्छा उदाहरण हैं.
वर्तमान लोकसभा चुनाव भी उसी करिश्माई छवि पर लड़े जा रहे हैं. नरेंद्र मोदी का चौकीदार कहलाना, राहुल गांधी का मंदिर में जाना, प्रियंका गांधी में इंदिरा की छवि गढ़ना, केजरीवाल का मफ़लर ओढ़ कर आना आदि इसी करिश्माई राजनीति का हिस्सा हैं.
भारत संसदीय लोकतंत्रात्मक पद्धति पर चलने वाला देश है. जिसका अर्थ है प्रत्येक लोकसभा सीट का एक प्रतिनिधि. यह प्रतिनिधि अपनी पार्टी से पहले अपने संसदीय क्षेत्र के प्रति जिम्मेदार होता है. वह संसद में अपने लोगों की बात रखता है. अपने क्षेत्र की समस्या को राष्ट्रीय स्तर पर उठाता है.
करिश्माई राजनीति, लोकतंत्र के लिए बहुत घातक है. इसमें किसी एक गढ़ा जाता है जबकि लोकतंत्र के मूल भाव में ही सबका प्रतिनिधित्व होता है. मजबूत लोकतंत्र के लिए मजबूत प्रधानमंत्री से ज्यादा मजबूत प्रतिनिधि आवश्यक है. एक प्रधानमंत्री अपने प्रतिनिधियों के चलते मजबूत होता है न कि व्यक्तिगत कारणों से. उसके निर्णय और कार्य सामूहिक होते हैं व्यक्तिगत नहीं.
– गिरीश लोहनी
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