भारत सरकार ने 1994 में उनकी फोटू वाला एक डाक टिकट जारी किया और नामकरण किये जाने से छूट गईं एकाध सड़कों के नाम उनके नाम पर रख दिए. उत्तराखंड बनने के बाद जब राज्य सरकार को अपने स्थानीय नायकों की आवश्यकता पड़ी तो इतिहास के पन्ने पलटे गए और चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम खोज निकाला गया क्योंकि अनेक सरकारी योजनाओं का नामकरण करने को एक नाम की ज़रुरत थी.
अप्रैल 1930 में पेशावर के किस्साखानी बाज़ार में खां अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में हजारों लोग सत्याग्रह कर रहे थे. इसे कुचलने के लिए अंग्रेज़ हुकूमत ने रॉयल गढ़वाल राइफल्स को तैनात किया गया था. यह भारत के इतिहास के उस दौर की बात है जब गांधी के दांडी मार्च को बीते तीन-चार हफ्ते ही बीते थे और सारा देश आज़ादी के आन्दोलन में हिस्सेदारी करने को आतुर हो रहा था. 24 दिसंबर 1891 को गढ़वाल की थैलीसैण तहसील के एक सुदूर गाँव में जन्मे चन्द्रसिंह भी पेशावर में तैनात टुकड़ी का हिस्सा थे. बहुत कम पढ़ा-लिखा होने और अंग्रेज़ फ़ौज में नौकरी करने के बावजूद पिछले दस से भी अधिक वर्षों में चन्द्रसिंह ने देश में चल रहे स्वतंत्रता आन्दोलन से अपने आप को अछूता नहीं रखा था और फ़ौजी अनुशासन की सख्ती के होते हुए भी जब-तब आज़ादी की गुप्त मीटिंगों और सम्मेलनों में शिरकत की थी और देशभक्ति के सबक सीखे.
एक किस्सा यूं है कि जब 1921 में गांधी कुमाऊँ आये और बागेश्वर में उनकी सभा चल रही थी. चन्द्रसिंह अपनी प्रिय गोरखा टोपी पहने थे. गांधी ने उन्हें देखकर कहा – “गोरखा हैट पहने मुझे डराने को यह कौन बैठा है?” चन्द्रसिंह तुरंत खड़े होकर बोले – “सफ़ेद टोपी मिले तो मैं उसे भी पहन सकता हूँ.” यह सुन कर सभा में मौजूद किसी आदमी ने चन्द्रसिंह की तरफ सफ़ेद गांधी टोपी फेंकी. चन्द्रसिंह ने वही टोपी गांधी की तरफ उछालते हुए कहा – “अगर ये बुड्ढा अपने हाथ से देगा तभी पहनूंगा!” गांधी ने चन्द्रसिंह की इच्छा पूरी की. गांधी ने बाद में कहा कि अगर उन्हें चन्द्रसिंह जैसे चार लोग मिल जाएं तो देश बहुत जल्दी आज़ाद कराया जा सकता है.
पेशावर में चल रहे सत्याग्रह की गूँज दूर तक पहुँच रही थी और अंग्रेज़ उसके दमन के लिए कुछ भी करने को तैयार थे. अपने हुक्मरानों की मंशा भांप चन्द्रसिंह पेशावर की हरिसिंह लाइन की अपनी बैरक में देश और स्वतंत्रता जैसे विषयों पर अपने साथियों के साथ लगातार चर्चा करते रहे थे. 23 अप्रैल 1930 के दिन पेशावर में हज़ारों सत्याग्रही जुलूस निकाल रहे थे. एक मोटरसाइकिल सवार अंग्रेज़ सिपाही इस भीड़ को चीरता हुआ निकला – कई लोग घायल हुए. गुस्साई भीड़ ने सिपाही को दबोच कर पीटा और मोटरसाइकिल को आग लगा दी. इस घटना से मौके पर मौजूद अंग्रेज़ अफसरान घबरा गए और रॉयल गढ़वाल राइफल्स के सिपाहियों को किस्साखानी बाज़ार के काबुली फाटक पर तैनात कर दिया गया. कमांडर ने लाउडस्पीकर पर लोगों को घर जाने का आदेश दिया लेकिन भीड़ की उत्तेजना बेकाबू हो चुकी थी.
कमांडर ने अंततः गोली चलाने का आर्डर जारी करते हुए चिल्लाते हुए कहा – “गढ़वाली ओपन फायर!” कमांडर की ऐन बगल से उससे भी तेज़ एक निर्भीक आवाज़ आई – “गढ़वाली सीज़ फायर!” यह चन्द्रसिंह गढ़वाली थे जिनकी बात मानते हुए 67 सिपाहियों ने अपनी बंदूकें ज़मीन पर रख दीं.
1857 के ग़दर के बाद यह भारत के इतिहास में घटी सैन्य विद्रोह की सबसे बड़ी घटना थी. बौखलाए अंग्रेजों ने गोरे सिपाहियों को कत्लेआम का आदेश दिया. बड़ी संख्या में जानें गईं और चन्द्रसिंह गढ़वाली और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया. जब अंग्रेज़ कप्तान टकर ने बगावत की वजह जाननी चाही तो चन्द्रसिंह गढ़वाली का उत्तर था – ” हम हिंदुस्तानी सिपाही हिंदुस्तान की हिफाजत के लिए भर्ती हुए हैं, न कि अपने भाइयों पर गोली चलाने के लिए!” कोर्टमार्शल के बाद सभी सिपाहियों को सज़ा हुई. आजीवन कारावास के रूप में सबसे बड़ी सजा चन्द्रसिंह को मिली.
चन्द्रसिंह की वीरता पर गांधी की प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक थी. उन्होंने लिखा – “जो सिपाही गोली चलाने से इनकार करता है, वह अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है. अगर में आज उन्हें हुक्मउदूली करना सिखाऊंगा तो मुझे डर लगा रहेगा कि शायद कल को मेरे राज में भी ऐसा ही करे.” ये वही गांधी थे जो चन्द्रसिंह जैसे चार लोगों को लेकर देश को जल्दी आज़ाद करा देने की बात सार्वजनिक रूप से कह चुके थे. जवाहरलाल नेहरू ने उनके साहसिक कृत्य को फ़क़त “भावना से उपजा काण्ड” बताया.
चन्द्रसिंह गढ़वाली ने तमाम यातनाएं सहते हुए अपनी सज़ा पूरी की. उनकी संपत्ति पहले ही कुर्क कर ली गयी थी. भारत-छोड़ो आन्दोलन में शिरकत करने पर उन्हें फिर से जेल में डाल दिया गया. 1947 में आज़ादी मिलने के बाद भी स्वतंत्र भारत में इस योद्धा को अपने साम्यवादी विचारों के कारण कई बार जेल जाना पड़ा. शर्म की बात है कि आज़ाद भारत में जब उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया तो वारंट में पेशावर काण्ड करने को उनका अपराध बताया गया था. 1957 में उन्होंने विधानसभा चुनाव भी लड़ा लेकिन उसमें वे बुरी तरह परास्त हुए.
आजीवन संघर्ष करते और भीषण आर्थिक अभावों से जूझते हुए चन्द्रसिंह गढ़वाली की 1 अक्टूबर, 1979 को दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में मृत्यु हुई.
-अशोक पांडे
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अंग्रेजों के बाद जिन्हें विरासत मिलनी थी उन्हें ऐसे सिपाही चाहिए थे जो आंखों मूंदकर सिर्फ "उनके" ऑर्डर्स फॉलो करे, सत्य-असत्य की परख में अपनी बुद्धि का जरा भी हिस्सा जाया न करें। ऐसी बुनियाद पर जैसी व्यवस्था बननी थी वही आज हमारे सामने है। पुलिस और प्रशासन राजनैतिक आकाओं के बंधुआ मालूम होते हैं। ताज्जुब तो इस बात की है कि सत्य-असत्य पर इतना शोध करने के बाद गांधीजी ने किस तरह ऐसी बात कही होगी!