चौंरीखाल से चलें तो तकरीबन 5 किमी. आगे पैठाणी से आने वाली सड़क हमारी सड़क से जुड़ गयी है. ललित बताते हैं कि पैठाणी वाली सड़क भी बिट्रिश कालीन ऐतिहासिक मार्ग पौड़ी-रामनगर का ही हिस्सा है. कैन्यूर बैंड पर नीचे की ओर दिख रहे थलीसैंण के लिए एक सड़क मुड रही है. थलीसैंण यहां से 10 किमी है.
(Chandra Singh Garhwali Village Travelogue)
कैन्यूर बैंड के पास वाला कैन्यूर गांव कत्यूरी राजाओं का प्राचीन गांव माना जाता है. भरा-पूरा और जीवन्त गांव. इस इलाके की सम्पन्नता और खुशहाली इसी बात से दृष्टिगौचर होती है कि पौड़ी से चलते-चलते करीबन 100 किमी. हो गए हैं और हमें न तो कोई टूटा/खंडहर घर/इमारत मिली और न ही कहीं बंजर जमीन या छूटे हुए खेत. पुरुष हों या स्त्रियां अपने-अपने काम-धन्धों में है. सड़क के किनारे मिट्टीतेल के ड्रम के ऊपर कैरम खेलते युवा और चाय की दुकान के पिछवाड़े ताश खेलते सयाने यहां सिरे से नदारत हैं. इस पूरे परिदृश्य पर ‘ये तो पहाड़ी पहचान के बिल्कुल विपरीत बात हो गयी’ सीताराम बहुगुणा का जुमला था.
जंगलों में लगी आग के निशान जरूर जगह-जगह पर हैं. पर उस भयावहता में नहीं है जैसा अन्य पहाड़ी इलाकों में देखने को मिलते हैं. ललित का कहना है कि ‘जंगल और लोगों के रिश्ते यहां अभी उतने दूर नहीं हुए हैं जितना कि शहरी इलाकों के आस-पास हो गए हैं. जंगलों की भरपूरता ने यहां के लोगों के पुश्तैनी कार्यों को कमजोर नहीं होने दिया है. जगलों में जंगली जानवरों का आधिपत्य है तो खेत-खलिहानों में मानवों का. दोनों अपनी-अपनी जगह अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ बेफिक्र हैं. जंगली जानवरों को अपनी जरूरतों का भोजन जंगल में आसानी से मिल जाता है. फिर क्यों वो मानव आबादी में आने का जोखिम उठायेंगे. दूसरी तरफ सभी गांव लोगों से आबाद हैं तो जंगली जानवरों के कभी-कभार के हमलों पर नियंत्रण रखना उनके लिए ज्यादा मुश्किल नहीं होता है. चौंरीखाल में दुकानदार का यह कहना कि बाघ हमारा दोस्त है इसी बात की पुष्टि करता है, क्योंकि बाघ और स्थानीय आदमी के रास्ते तथा जरूरतों में टकराहट की गुजांइश दूधातोली इलाके में बहुत कम है’.
कैन्यूर बैंड से 20 किमी. चलकर हम पीठसैंण पहुंचे हैं. पीठसैंण (समुद्रतल से 2250 मीटर ऊंचाई) एक ऊंची धार पर एकदम पसरा है, ग्वाले की तरह. जैसे कोई ग्वाला ऊंचे टीले पर अधलेटा आराम फरमाते हुए नीचे घाटी में चरते अपने जानवरों पर भी नजर रख रहा हो.
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‘पहाड़ी भाषा में ‘सैंण’ का मतलब ‘मैदान’ होता है और ‘सैंण’ में ‘ई’ की मात्रा लगा दो तो पहाड़ी में ‘सैंणी’ ‘महिला’ को कहते हैं’. अब तक बिल्कुल चुप रहने वाले अजय ने अपनी चुप्पी इस ज्ञानी बात को कहकर तोड़ी है. सपकपाया अजय कहता है पीठसैंण नाम पर उसे यह याद आया. अजय की इस बात पर केवल मुस्कराया ही जा सकता है.
पीठसैंण की वर्तमान पहचान उत्तराखंड के जननायक स्वर्गीय वीर चंन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’ जी से है. (ज्ञातव्य है कि चन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’, सेना में 2/18 रायल गढ़वाल में हवलदार थे और 23 अप्रैल, 1930 को पेशावर में देश की स्वाधीनता के लिए शान्तिपूर्वक प्रर्दशन कर रहे निहत्थे पठानों पर कम्पनी कमाण्डर के ‘गढ़वाली तीन राउण्ड गोली चलाओ’ के आदेश को उन्होने ‘गढ़वाली गोली मत चलाओ’ कह कर मानने से मना कर दिया था. तब यह घटना विश्व चर्चा का विषय बनी और इसको भारतीय सेना का विद्रोह माना गया था. चन्द्रसिंह और उनके साथियों को तकरीबन 11 साल कालापानी की सजा हुई. सजा से छूटने के बाद चन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’ एक कम्यूनिष्ट नेता के रूप विख्यात हुए).
सड़क के एक किनारे पर टीन शैड़ से ढ़के चबूतरे पर चन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’ जी की मूर्ति खड़ी है. पास ही उनके साथियों के नाम और पेशावर घटना के विवरण का शिलापट्ट है. गढ़वाली जी की मूर्ति देखकर एक तो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का उसमें कहीं साम्य नजर नहीं आता, फिर लोगों के कुसंस्कारों ने जिस तरह से उसे जगह-जगह पर खंरोचा है, उससे तो अच्छा था कि यहां पर यह मूर्ति लगती ही नहीं. ये मूर्तियों का प्रचलन भी अजीब है.
जीवन में अब तक हजारों मूर्तियां देख ली होगीं पर उनको देखकर उन जैसा बनने की कभी प्रेरणा मिली हो मुझे ऐसा तो याद नहीं आता है. पास ही एक जेसीबी पहाड़ी टीले को उधाड़ने में लगा है. पता चला कि एक भव्य स्मारक बनाने के लिए इस मैदान को और लम्बा-चौड़ा किया जा रहा है. मन में आया कि चन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’ जी के जीते-जी तो कभी कद्र की नहीं की न समाज ने और न ही तत्कालीन सरकार ने अब उनके नाम पर जो कर लो, उनकी बला से.
पीठसैंण की उत्तर दिशा में 30 किमी. पर प्रसिद्ध तीर्थ ‘विनसर महादेव, समुद्रतल से 2480 मीटर ऊंचाई) है. ऐसी मान्यता है कि मन्दिर के पास एक प्राचीन नगर भूमिगत है. पीठसैंण से ‘विनसर महादेव’ होते हुए गैरसैण जाने का पैदल मार्ग है. पीठसैंण से उडियार खरक 6 किमी. वहां से कोदियाबगड़ 6 किमी. और वहां से 15 किमी. गैरसैंण है.
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पीठसैंण पर 3 चाय-पानी की दुकानें हैं. चाय की दुकान हो और सामने साक्षात हिमालय का परिदृश्य हो, तो चाय पीने के बहाने कुछ देर और रुकने मन है. दुकानदार सज्जन सिंह जी हैं, नाम से ही नहीं स्वभाव से भी. बताऊं कैसे? चाय बनाने के लिए बोला भी नहीं था कि चाय से पक्क (लबालब) भरा लम्बा पीतल का गिलास मेरी खिदमत में पेश कर दिया उन्होने. भाई, पूछ तो लेते कि मैं चाय पीता हूं कि नहीं? मैने कहा तो मुस्कराते हुए बोले, ‘साहब इस जगह पर तो चाय न पीने वाले भी दो गिलास पी जाते हैं.’
सज्जन सिंह बताते हैं कि वो बर्फीली चोटी मूसाकोठ (समुद्रतल से 10,217 फिट ऊंचाई) और वो कोदियाबगड़ (समुद्रतल से 10,183 फीट ऊंचाई) का क्षेत्र है. कोदियाबगड़ में चन्द्रसिंह जी की छः फीट की समाधि सरकार ने बनाई है. ललित ने पूछा ‘इधर कोई नेता लोग भी आते हैं’.
‘हां साब, आते ही रहते हैं. पर हमारी चाय तो आप जैसे लोगों से बिकती है. नेता मंत्री आते हैं और बड़-बड़ करके चले जाते हैं. पर साब, 23 अप्रैल, 2005 को मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी आये थे यहां. भौत, बड़ा कार्यक्रम हुआ था तब. गजब का किस्सा हुआ साहब, उस दिन. स्कूल के बच्चों ने उस समारोह में नाचना-गाना किया. नाटक करते हुए एक बच्चे पर चन्द्रसिंह ‘गढ़वाली’ पहाड़ी देवता के रूप में अवतरित हो गया. फिर तो नाचते-नाचते देवता बनकर बोलते हुए उसने सरकार की जो पोल खोली उसको देखकर नेता तो भुनभुना रहे थे पर पब्लिक खूब मजे ले-ले कर हंस कर लोट-पोट हो रही थी.
नाटक में उस देवता ने धै (जोर की आवाज) लगा कर सबसे पूछा ‘क्यों नहीं बनाई उत्तराखंड की राजधानी ‘गैरसैंण’ में, शराब और खनन से बरबाद कर रहे हो पहाड़ को, बच्चे बेरोजगार हैं, उनका रोजगार कहां गया, लोग बीमार हैं और तुम मजे कर रहे हो, शर्म नहीं आती तुम सबको और भी साब भौत भौंकुछ (कुछभी) बोला उस देवता ने.
साब, उस दौरान सारा सरकारी अमला हकड़क (स्तब्ध) हो गया. क्या जो करें, उस समय तो वो बच्चा देवता हुआ, उसे रोक भी नहीं सकते थे. बड़ी मुश्किल से धूप-पिठाई देकर उस देवता को शांत किया गया’.
‘बाद में मुख्यमंत्री तिवाड़ी जी ने क्या कहा’? अजय ने पूछा.
‘अरे साब, नारायण दत्त तिवारी जी हुए वो बहुत होशियार, पूरे टैम उस देवता की ओर नतमस्तक रहे और कहते रहे ‘सब्ब है जलि, सब्ब है जलि, (सब हो जायेगा, सब हो जायेगा).
पीठसैंण से अब सड़क ढ़लान पर हो गयी है. पूर्वी नयार के इस पार (किनारे) वाले क्षेत्र के 80 गांव चौथान पट्टी में शामिल हैं. चार गाड़ों (छोटी नदी) का सम्मलित भू-भाग चौथान कहलाया. ये गाड़ हैं मासों गाड़, अंगगाड़, बसौली गाड़ और डड़ौली गाड़. चौथान क्षेत्र जड़ीबूटी और चारागाहों के लिए प्रसिद्ध है. जड़ीबूटी संग्रहण और दूध उत्पादन में यह इलाका अग्रणी है.
चन्द्रसिंह ‘गढवाली’ जी के पुस्तैनी गांव मासों पीठसैंण से 10 किमी. पर है. चौथान पट्टी के रौणींसेरा मासों गांव में जाथली सिंह भण्डारी के घर 25 दिसम्बर, 1891 को चन्द्रसिंह का जन्म हुआ था. वे नजदीकी स्कूल बूगींधार से प्राइमरी में पढ़ने के बाद घर से भागकर गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हुए थे. अब उनके परिवार का तो कोई गांव में रहता नहीं है.
लिहाजा, पास के ही गांव की दिक्खा देवी जो भागवत कथा सुनने की जल्दी में है से चलते-चलते बात होती है. वे बताती हैं कि मासों भण्डारियों का गांव है. खेती सिंचित और ऊपजाऊ है इसीलिए चारों ओर आबाद खेत नजर आते हैं. गांव के ऊपरी छोर पर बांज-बुरांस का घना जंगल है. आलू बहुत होता है. गढ़वाली जी के पैतृक घर के पास ही गुलबहार का मोटा ताजा पेड है जिसे गढ़वाली जी कोटद्वार से लाकर लगाया था. बताया गया कि उत्तराखंड में चकबंदी के शुरुवाती प्रयास मासों ग्राम में भी हुए थे. आज तो उत्तराखंड में चकबंदी का चक्रचाल बस बातों में ही सांसे ले रहा है.
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मासों से जगतपुरी है 8 किलोमीटर यहां से हमें मेन सड़क छोड़कर देघाट वाली सड़क की ओर जाना है. मेरा मानना है कि जहां पर दो सड़कें जुड़ रही हो वहां पर अपनी मंजिल वाली सड़क की पुख्ता जानकारी लेने में ही अक्लमंदी होती है. और जब अक्ल का इस्तेमाल करोगे तो परेशानी होगी ही. परेशानी यह है कि थोड़ा आगे आने के बाद मैंने कहा चलो किसी से पूछ लेते हैं कि हम सही सड़क पर चल रहे हैं की नहीं. तुरंत ललित ने कहा कि गाड़ी से उतर कर ये नेक काम आप ही कर लीजिए क्योंकि बताने वाले तो दुकानों के अन्दर हैं. ‘चल खुसरो, पूछ आते हैं’ के भाव से एक सज्जन से पूछा तो उसने छूटते ही कहा- आप सामने के बोर्ड में देघाट का ऐरो नहीं देख रहे हैं क्या?
ओह, सचमुच, खिसयाया सा मैं अब अपनी गाड़ी में थोड़ी देर में जाना चाहता था. सोचा और क्या जो पूंछू इनसे, मुहं से निकला ‘वाह ! भाई सहाब, जगतपुरी के सारे घर नये और चमचमाते हैं. बड़ा खूबसूरत गांव है यह.
हां भाई सहाब ‘नई बसावत वाला गांव है यह. हमारे दादा जी का नाम था ‘जगत सिंह’ उन्होने सबसे पहले यहां पर घर बनाया और रास्ते में बड़ा सा लिख दिया ‘जगतपुरी’. बस, पहले लोगों ने मजाक में इस जगह को ‘जगतपुरी’ कहा अब नाम ही पड़ गया ‘जगतपुरी’.
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मैने कहा ‘भाई अगर उनका नाम जगन्नाथ होता तो जगन्नाथपुरी हो जाती ये जगह’. उस पर क्या प्रतिक्रिया हुई ये देखे बगैर मैं तेजी से अपनी गाड़ी में बैठते ही बोला, चलो हम ठीक रास्ते पर हैं.
‘जगतपुरी से आगे 5 किमी. के बाद देघाट के लिए एक शार्टकट है, उसमें 2 किमी. की सड़क कच्ची है लेकिन उसके बाद तो सड़क पर गाड़ी सायं-सायं करती आगे बढ़ती है, ऐसा पीठसैंण में किसी मार्गदर्शक ने बताया था.
यात्रा में शार्टकट का लालच तो होता ही है. ‘उसी सड़क से चलो चलते हैं’ की राय के बाद चलती गाड़ी में हिचकोले खाना जो शुरू हुआ वो पाठक बन्धुओं 10 किमी. तक जारी रहा. मुश्किल ये कि पीछे भी नहीं जा सकते. सड़क के ऊपर की ओर चट्टान जैसे बड़े-बड़े पत्थर ऐसे लगते कि बस, सड़क पर जैसे लुड़कने के समय के लिए हमारे आने का ही इंतजार कर रहे हों.
सीताराम बहुगुणा का ये विचार कि सरकार को नदी किनारे खनन कार्य कराने के बजाय सड़क के आस-पास के चट्टानी पत्थरों को तोड़ने की इजाजत दी जानी चाहिए. इन पत्थरों का कहीं कोई उपयोग तो होता नजर आता नहीं. विचार तो विचारणीय है पर फिलहाल समस्या यह है कि इन चट्टानी पत्थरों के आस-पास तक कोई गांव तो क्या आदमी भी नजर नहीं आ रहा है. हां, पहली बार इस ओर बंदरों के उछलते-कूदते झुंड जरूर हैं. मुसीबत में जब आदमी होता है तो उसको दूसरे सभी उस पर हंसते हुए नजर आते हैं. चाहे वो जानवर ही क्यों न हो. ऐसी हालात में बंदरों को भी मैं इसी नजर से खुश देख रहा हूं.
संयोग यह कि गाड़ी मित्र सीताराम चला रहे हैं और मैं किसी अनहोनी से बचने और माहौल को हल्का करने के लिए सीताराम-सीताराम जपने लगा हूं. अजय सबसे छोटा है लिहाजा बार-बार सड़क के पत्थरों को हटाने का जिम्मा उसी का है. ललित ने कहा कि ये बात समझ में नहीं आती कि लोग अक्सर अच्छी खासी लम्बी दूरी को भी यहीं पर बस एक लतड़ाग (कदम) क्यों जो कहते होंगे?
यही तो आनंद है जीवन का, वरना फिर नपी-तुली जिन्दगी तो केवल चलने वाली हुयी जीवंत जीने वाली ज़िन्दगी तो ऐसी ही ऊबड़-खाबड़ होती है. मैने जो ये कहा- तो फिर जाओ गाड़ी के आगे की सड़क के पत्थर उठाओ, जीवंत जिदंगी जीने के लिए. ललित ने मुस्कराते हुए आदेश दिया है.
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यात्रा के साथी- अजय मोहन नेगी, सीताराम बहुगुणा और ललित मोहन कोठियाल
नोट- ‘संभावना प्रकाशन’ से प्रकाशित यात्रा पुस्तक ‘चले साथ पहाड़‘ का एक अंश. किताब को यहां से मंगा सकते हैं- ‘चले साथ पहाड़‘
– डॉ. अरुण कुकसाल
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वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.
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