(पिछली क़िस्त से आगे) सिनेमा की टिकटों के लिए खिड़की खुलने से काफी पहले ही लम्बी क़तार लग जाया करती थी. टिकट क्लर्क सरकारी बाबुओं की तरह कुछ देर से आकर आसन ग्रहण करता और बड़े इत्मीनान से टिकट... Read more
जिस तरह पुराने हीरो अब हीरो नहीं रहे, एक दम ज़ीरो हो गए हैं या दादा-नाना बनकर खंखार रहे हैं, उसी तरह अपने शहर के दो सिनेमाघरों में भी एक वीरान पड़ा है तो दूसरा मॉल बन गया है. अपने को पुराने... Read more
साहिर लुधियानवी ने लिखा था – “ये बस्ती है मुर्दापरस्तों की बस्ती”. ताज़िन्दगी आदमी इस मुगालते में जीता है कि उसकी इच्छाएं पूरी होंगी, लेकिन आखिरकार वह खाली हाथ यहाँ से चला जाता है. उसक... Read more