जिन्दगी में तीन सम्बन्ध कभी नहीं मिटते
17 जुलाई, 1969 को ठीक पचास साल पहले, आज ही के दिन. Tara Chandra Tripathi Memoir by Batrohi डिग्री कॉलेज के इन्टर सेक्शन के प्रिंसिपल कुद्दूसी साहब ने मुझे एक रजिस्टर थमाते हुए कहा, ‘त्रिपाठी... Read more
‘साह’ जाति-नाम पर कुछ नोट्स
राजीव लोचन साह की ओर शायद मैं आकर्षित नहीं होता अगर वह उसी सरनेम वाला नहीं होता, जो मेरी बुआ का था और जिनकी शरण में रहकर मैं नैनीताल में पढ़ रहा था. इसका मतलब यह नहीं है कि वह मेरा रिश्तेदार... Read more
जब से मैंने शेरदा की किताब ‘मेरि लटि पटि’ अपनी यूनिवर्सिटी में एमए की पाठ्यपुस्तक निर्धारित की, एकाएक पढ़े-लिखे सभ्य लोगों की दुनिया में मानो भूचाल आ गया. यह बात किसी की भी समझ में नहीं आई क... Read more
देशभर में बच्चों के प्यारे देवेन दा आज से जीवन के 77वें साल में प्रवेश कर रहे हैं
देवेन मेवाड़ी की किताबों में उनकी सर्टिफिकेट जन्मतिथि 7 मार्च 1944 दर्ज है अलबत्ता उनकी माताजी के हिसाब से देवी का जन्म चार गते ज्येष्ठ मास को हुआ था सो इसी दिन को अर्थात 17 मई को उनका जनमबार... Read more
शैलेश मटियानी से पहली मुलाकात
यह किताब मैंने 2001 में मटियानीजी की मृत्यु के फ़ौरन बाद लिखनी शुरू की थी और इसके न जाने कितने ड्राफ्ट तैयार किये. हर बार लगता था कि मैं जो लिखना चाहता था, उसे न लिखकर कुछ और लिखने लगता था.... Read more
लॉक डाउन के दिनों में सुल्ताना डाकू और जिम कॉर्बेट की धरती पर बने अपने फार्म हाउस में
आजकल मैं अपने गाँव फतेहपुर में हूँ. हल्द्वानी से सात किलोमीटर दूर कालाढूंगी रोड में नया उभरता हुआ एक क़स्बा है फतेहपुर. आज से पचास-साठ बरस पहले यह जगह क़स्बा तो क्या, गाँव भी नहीं थी. जिम कॉ... Read more
तनावहीन चेहरे वाला एक लेखक : पंकज बिष्ट
पहली मुलाक़ात में ही मैंने महसूस किया था कि हम दोनों के बीच कई चीजें समान होते हुए भी वह मुझसे बड़े हैं. हमारा सरनेम एक था, जन्म वर्ष एक था, मेरी तरह वह भी कहानी लिखते थे; पारिवारिक पृष्ठभूम... Read more
औपनिवेशिक मूल्यों की तलछट पर बिछा एक लाचार समाज भारत को आज़ादी तो 1947 में मिल चुकी थी; मगर आज लगता है, आम आदमी तक पहुँचने में उसे पूरे सात दशक लग गए – 1950 से लेकर 2020 तक. दो-चार साल इधर य... Read more
काले कव्वा : एक दिन की बादशाहत
मकर संक्रांति से ठीक एक दिन पहले ‘घुघते’ आदि पकवान बनाकर दूसरी सुबह बच्चों के द्वारा कव्वों को खिलाये जाते हैं. उसके पीछे अनेक लोक विश्वास हैं. जिन्हें अपने मूल रूप से विकृत करके भुला दिया ग... Read more
नया साल और गहरे अवसाद का बीच हम लोग
हम लोग, जो आजादी के आस-पास पैदा हुए हैं, सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि हमारे समाज का किसी दिन इस तरह बटवारा हो जाएगा कि हम अपने ही दुश्मन हो जाएंगे. हमें किसी ने बताया नहीं, मगर हम जानते थ... Read more