भारतवासी होने का सौभाग्य तो आम से भी बनता है
आम के बाग़ -आलोक धन्वा आम के फले हुए पेड़ों के बाग़ में कब जाऊँगा? मुझे पता है कि अवध, दीघा और मालदह में घने बाग़ हैं आम के लेकिन अब कितने और कहाँ कहाँ अक्सर तो उनके उजड़ने की ख़बरें आती रहत... Read more
रामी बुढ़िया ( लोककथा )
एक गांव में रामी नाम की बुढिया रहती थी, उसकी बेटी का विवाह दूर एक गांव में हुआ था जहाँ जाने के लिये घना जंगल पार करना पड़ता था. रामी का बहुत मन हो रहा था कि वह अपनी बिटिया से मिल कर आये. (Fol... Read more
कितनी-कितनी लड़कियां भागती हैं मन ही मन
भागी हुई लड़कियां -आलोक धन्वा एक घर की जंजीरें कितना ज्यादा दिखाई पड़ती हैं जब घर से कोई लड़की भागती है क्या उस रात की याद आ रही है जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी जब भी कोई लड़की घर से भग... Read more
पतंग – आलोक धन्वा 1. उनके रक्तों से ही फूटते हैं पतंग के धागे और हवा की विशाल धाराओं तक उठते चले जाते हैं जन्म से ही कपास वे अपने साथ लाते हैं धूप गरुड़ की तरह बहुत ऊपर उड़ रही हो या फ... Read more
फ़र्क़ -आलोक धन्वा देखना एक दिन मैं भी उसी तरह शाम में कुछ देर के लिए घूमने निकलूंगा और वापस नहीं आ पाऊँगा ! समझा जायेगा कि मैंने ख़ुद को ख़त्म किया ! नहीं, यह असंभव होगा बिल्कुल झूठ होगा !... Read more
बेपरवाह बच्ची
बेपरवाह बच्ची -पद्मिनी अबरोल ”ये देख लो रश्मि मैडम, इस बच्ची का हाल ! मैंने तीन दिन पहले इसे अच्छे बच्चे की कॉपी फोटोस्टेट करवा के दी थी,मगर इसने इनका भी ये हाल कर दिया !” मैंने... Read more
क्षितिज तक फ़सल काट रही औरतें
आलोक धन्वा की यह कालजयी कविता कई कई बार सार्वजनिक मंचों पर पढ़े जाने की दरकार रखती है. भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों खासतौर पर ग्रामीण और सुदूर इलाकों में रहने वाली स्त्रियों के... Read more
एक युवा कवि को पत्र – 5 – रेनर मारिया रिल्के
“एक युवा कवि को पत्र” महान जर्मन कवि रेनर मारिया रिल्के के लिखे दस ख़तों का संग्रह है. ये ख़त जर्मन सेना में भर्ती होने का विचार कर रहे फ़्रान्ज़ काप्पूस नामक एक युवा को सम्बोधित... Read more
एक डग भीतर जाने के लिए सौ डग बाहर आना पड़ता है
अपनी नई कविताओं की रोशनी में कवि लीलाधर जगूड़़ी -शिवप्रसाद जोशी लीलाधर जगूड़ी अपनी ही कविता में एक नवागंतुक की तरह दाखिल हो रहे हैं और भीतर जितना पड़े हैं उससे कहीं ज़्यादा बाहर खड़े हो गए... Read more
मैं शायद अमर हो जाऊं
अमरता के अहसास की भयावनी रात -शरद जोशी कल रात जब सोया तो एकाएक मैंने अनुभव किया कि हिंदी साहित्य का मोटा इतिहास मेरे सीने पर रखा है और उस पर एक स्कूल मास्टर बैठा बैंत हिला रहा है. एकाएक मेरे... Read more