क़ीमती सलाह : कुमाऊनी लोककथा
एक अमीर आदमी के दो बेटे थे, जब वे बड़े हुए तब उसने दोनों को अपना व्यापार शुरू करने के लिये चार हज़ार रुपए दिए. बड़ा बेटा व्यापार करने चल दिया लेकिन छोटे बेटे ने उन रुपयों से एक जानेमाने फ़क़... Read more
खोल दो: सआदत हसन मंटो की कहानी
अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची. रास्ते में कई आदमी मारे गए. अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए. (Saadat Hasan Manto Khol Do) सुबह दस बजे कैंप की... Read more
‘साधो, करमगती किन टारी…’ – मिरदुला कानी, सीढ़ी के पथरौटे पर बैठी, मंजीरा कुटफुटा रही थी – ‘कोस अनेक बिकट बन फैल्यो, भसम करत चिनगारी… साधो…... Read more
बुर्क़े : सआदत हसन मंटो की कहानी
ज़हीर जब थर्ड ईयर में दाख़िल हुआ तो उस ने महसूस किया कि उसे इश्क़ हो गया है… और इश्क़ भी बहुत अशद क़िस्म का. जिस में अक्सर इंसान अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है. (Story of Saadat Hasan... Read more
मकड़ू पधान की कहानी
अतीत पहाड़ों में वेगवान पवन और जलधाराओं के अतिरिक्त कुछ भी तो गतिमान नहीं है. सूरज तो उगता है पर कलियां उदास सी है. चिडियों की चह-चहाट भी कुछ कम सी हो गई है. जीवन स्तर उठा तो घिन्दूड़ियां भी... Read more
सिंगलत्व की तीन श्रेणियां
सिंगल होना ब्रह्माण्ड का डिजाइन है. आदमी सिंगल पैदा होता है, सिंगल ही मरता है. चूंकि ये दोनों ही जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधायक तत्व हैं लिहाज़ा आदमी सिंगलत्व की भावना से उम्र भर दग्ध रह... Read more
घायल वसंत – हरिशंकर परसाई
कल बसंतोत्सव था. कवि वसंत के आगमन की सूचना पा रहा था – प्रिय, फिर आया मादक वसंत. मैंने सोचा, जिसे वसंत के आने का बोध भी अपनी तरफ से कराना पड़े, उस प्रिय से तो शत्रु अच्छा. ऐसे नासमझ को... Read more
उनचास फसकों की किताब ‘बब्बन कार्बोनेट’
बब्बन कार्बोनेट: द हो, अशोक पाण्डे की क्वीड़ पथाई के क्या कहते हो! पहाड़ की मौखिक कथा परम्परा में ‘क्वीड़’ कहने का भी खूब चलन है. जब फुर्सत हुई, दो-चार जने बैठे तो लगा दी क्वीड़. किस्सागोई त... Read more
मार्कण्डेय की कहानी ‘गरीबों की बस्ती’
यह है कलकत्ता का बहूबाज़ार, जिसके एक ओर सरकारी अफ़सरों तथा महाजनों के विशाल भवन हैं और दूसरी ओर पीछे उसी अटपट सड़क के पास मिल मज़दूरों तथा दूसरे प्रकार के श्रमजीवियों की बस्ती है.(Gareebon K... Read more
‘चाकरी चतुरंग’ की समीक्षा
बहुत सारे मुखौटे हैँ एक दूसरे से अलग -थलग. सबकी सोच भी जुदा-जुदा सी. इनके पीछे छिपे चेहरे व्यवस्था की बागडोर संभालते हैं. चाकर हैं तो सबकी जिम्मेदारी कहीं न कहीं कुछ मान्यताओं और संकल्पनाओं... Read more