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2 Comments

  1. Abhay Pant

    पहाड़, पहाड़, रे पहाड़। कोटि कोटि नमन है जाति व्यवस्था और सड़ी गली, अतार्किकता का प्रतिनिधित्व करने वाली परम्पराओं, प्रथाओं और ऐसी कुत्सित सोच को पुष्पित पल्लवित करने वाले पहाड़ को। उस सोच ने, जिसने आदमी की प्राकृतिक और अन्तर्निहित प्रतिभा से अधिक महत्व, उसकी जाति और जन्म/पैदाइश को दिया, उसने 2022 में भी पहाड़ का साथ नहीं छोड़ा है और यहां के गांव गांव, शहर शहर में सख्त ढंग से चिपक कर अगले 500 वर्षो तक भी चिपके रहना है। एक बार फिर नमन है जाति व्यवस्था के गोबर में सने हुए पहाड़ को।

  2. vijender

    Abhay pant ji,

    क्या लिख रहे आप!?

    आपके लिखे शब्दों से ‘आयरीन पंत’ का स्मरण होता हमें।

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