उनका असली नाम क्या था, यह कोई नहीं जानता था, और नाम में क्या रखा है, को सब मानते थे. जब बिना नाम जाने काम चल जाए तो नाम की क्या जरूरत. बहरहाल उनकी काया की रूप सज्जा के आधार पर सब उन्हें पंडितजी कहकर बुलाते थे. Cannabis Products in Hills Vivek Saunakiya
आबकारी दफ्तर के बाहर साढे़ तीन बाई पौने पांच के तखत जो कि संभवतः किंग जार्ज पंचम के जमाने का रहा होगा पर विराजमान पंडित जी को अपने राजपूत होते हुये भी पंडित जी पुकारे जाने पर कोई उज्ऱ न था, अलबत्ता जब कोई उन्हें नेगी जी पुकारता तो वह जरूर चैंक पड़ते. खैर. Cannabis Products in Hills Vivek Saunakiya
उनके पास कचहरी के रोजमर्रा के काम के नक्शे, टिकट, स्टांप, फाइल कवर, ऑल पिन, गोंद, कारबन, रसीदी टिकट से लेकर हस्तरेखा, लाल किताब, सात दिन में हारमोनियम सीखें, घर का वैद्य, गुप्त रोगों की चिकित्सा आदि किताबें मिलने का सुभीता आम आदमी को रहता.
बहुत कम लोग इस बात से नावाकिफ थे कि पंडित जी एक दुर्लभ बूटी भी बेचते थे, जिसे दुनिया में कानून के बदनाम शोहदे चरस कहते थे.
पंडित जी के लिए चरस के लिए चरस शब्द का प्रयोग अपमानकारी एवं दोयम दर्जे का था. यह प्रयोगकर्ता की घटिया कल्पनाशीलता का सर्टिफिकेट होता. बकौल उनके जो इस मुक्तिदा, ज्ञानदा तत्व को चरस कहता है, वह कभी अच्छा लेखक, कलाकार और इंसान नहीं बन सकता, इसलिये वह इसे बूटी कहते पाए जाते. कभी-कभी बूटी के लिए एक कूट शब्द का प्रयोग और किया जाता. इसका ज्ञान तब हुआ जब ज्ञान शब्द का प्रयोग सामान्य ज्ञान के स्थान पर इस धूलधूसरित पदार्थ के लिये प्रयोग होता पाया गया. Cannabis Products in Hills Vivek Saunakiya
बकौल उनके “जंगलों में, गेंदे की पत्ती जैसा एक पौधा पाया जाता है जिसे दुनिया भांग कहने वाली हुयी. संस्कृत में उसी को विजया कहा जाता है.“
पंडित जी भांग के आकार प्रकार का शास्त्रीय वर्णन करते करते किसी अबूझ तरंग में जाते दिखे.
“भांग के पौधे की पत्ती को दोनों हाथों से रगड़ कर उसका मैल निकाला जाता है, और हां चरस हर किसी के हाथ में नहीं निकलती, इसका भी मान हुआ. यह किसी किसी के हाथ को ही मानती है. इसकी बत्ती बनाकर बाजार में बेची जाती है इसे हत्थू चरस कहते हैं लाला, यह देखो.“
कहते ही उन्होंने अपनी नेहरू जैकेट में हाथ डाला और दो बार बायें, दो बार दाऐं देखकर धूपबत्ती की तरह दिखने वाली गहरे धूसर रंग की बत्ती निकाली और कहा “एकदम पक्का माल है खास बदियाकोट का“
बदियाकोट बागेश्वर जनपद के पिंडारी ग्लेशियर मार्ग के बाएं तरफ पड़ने वाला छोटा सा गांव है. जिसे विजया और उसके उत्पादों के क्षेत्र में विस्तृत अनुभव होने के कारण बड़े सम्मान पूर्वक देखा जाता है. हालांकि बदियाकोट में भांग के पौधे से चरस प्राप्त करने में हाथ का प्रयोग न करके एक कदम आगे का नवाचारी प्रयोग होता है जिसे कलालकर्म “अर्क खींचना“ कहा जाता है, पर इसमें आसवन कर्म का अभाव रहता है. केवल उतराते रेज़िन का संग्रह किया जाता है.
हालांकि अल्मोड़ा शहर और उसके आसपास के अंचलों में थोड़ी कम आसानी से मिलने वाली हत्थू चरस के स्थानीय स्तर पर उपभोक्ता पाए जाते हैं. जो इसे सूखे नशे की संज्ञा देते हैं, कुछ इसे गोल नशा भी कहते हैं . Cannabis Products in Hills Vivek Saunakiya
पंडित जी ऊपर दी गई समस्त परिभाषाओं के आधिकारिक मर्मज्ञ थे, सो काफी श्रद्धालु उनके आसपास दिनभर मंडराते और काफी चिरौरी करने के बाद एकाधा भरी सिगरेट उनके प्रसाद स्वरूप पाते.
भांग यानी कैनेबिस इंडिका नाम का पौधा वास्तव में पहाड़ी अंचलों में खरपतवार के रूप में आता है. इसके पौधे से रेशे, बीज और पत्तियों से एक रेज़िन प्राप्त होता है. अमूमन हर घर में भांग के बीज की चटनी बनाई जाती है जिसे मूली प्याज के ऊपर डालकर बड़े चाव से खाया जाता है.
इसके रेशों से मानवीय प्रयोग की अन्यान्य चीजें जैसे रस्सी, धागा, वस्त्र, पेपर, बोर्ड, गत्ता आदि बहुत कुछ बनता है. भांग के बीज से एक तेल भी निकाला जाता है जिसे हैम्प आयल कहते हैं.
भांग से उत्पन्न चरस के कई किस्से पहाड़ में प्रचलित हैं. किंवदंतियों की तरह. अल्मोड़ा के हिप्पी मूवमेंट से लेकर वर्तमान में कसार देवी के इलाके में आने वाले विदेशी सैलानी चरस के स्थानीय स्तर पर उपभोक्ताओं के अतिरिक्त बाजार बन गए हैं. मुख्य रूप से इजरायल और कई अन्य देशों में मिलने वाले जीवन निर्वाह भत्ते की राशि रुपए में परिवर्तित होने पर दो तरफा निर्वाह का साधन बन जाती है. एक तरफ यह चरस के स्थानीय पैडलर को बाजार उपलब्ध कराती है, तो दूसरी तरफ के खरीददारों को एक सुरक्षित ठिकाना.
हालांकि उत्तर भारत में चरस की सबसे बड़ी मंडी बरेली है, पर बरेली में चरस की आपूर्ति का एक बड़ा भाग बदियाकोट, धूर, सौंग, मुनार, कर्मी और बागेश्वर जिले की कई अन्य ग्रामीण इलाकों तथा अल्मोड़ा के ग्रामीण इलाकों से पहुंचता है. कुछ हिस्सा उत्तरकाशी, देहरादून के विकासनगर, सइया, त्यूनी आदि इलाकों से भी आता है, आगे यह फैलाव मंडी, कसोल, सोलन, से होकर चंडीगढ़ तक पहुंचता है पर वहां तक जाते जाते चरस मल्हाना क्रीम में तब्दील हो जाती है.
असल मुद्दा यह नहीं है कि चरस या उसके अन्य परिष्कृत उत्पाद कैसे बनते है, कहां बनते हैं, कितने में बिकते हैं, कहां से आते हैं. बल्कि असल मुद्दा यह है कि जो चरस पूरे समाज को धीरे-धीरे घुन की तरह खाकर खोखला कर रही है उसकी इतनी स्वीकार्यता क्यों है. ग्रामीण क्षेत्रों में पचीस पचास रूपये में बिकने वाली चरस की एक बत्ती हल्द्वानी उतरते पंहुचते सैकड़ों की हो जाती है.
नवयुवक, छात्र, मजदूर, कामगार और तमाम निम्न तबके के लोग जाने अनजाने इसकी गिरफ्त में आ कर छूट नहीं पाते. और खो जाते हैं सदा के लिए उन तंग गुमनाम गलियों में जिनमें जाने का तो रास्ता है पर आने का नहीं. Cannabis Products in Hills Vivek Saunakiya
इस भूलभुलैया को तोड़ने का जिम्मा समाज को खुद लेना होगा. उसे अपना उन्मूलन कार्यक्रम अपने स्तर पर खुद बनाना होगा. शासन, सरकार की जिम्मेदारी कहकर समाज बच नहीं सकता, अपना मुंह छुपा नहीं सकता.
–विवेक सौनकिया
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं
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शानदार जबरदस्त जिंदाबाद,
बहुत ही सधी भाषा, शैली में लिखा है, कहीं भी क्रम नहीं टूटता दिखा और मैं इस लेख को पूरा पढ़ने से नहीं रोक पाए। आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं
**ज्ञान**की महिमामंडन प्रोसेस में जितनी तल्लीनता और गहराई की आवश्यकता थी,वह आपकी लेखनी ने पूरी शिद्दत से निभाया है,पाकीजा फ़िल्म की अभिनेत्री के मात्र पैरों को देखकर अभिनेता ने मुहब्बत को जिस चरम शिखर तक पहुंचाया था,वही पाकीजा मुहब्बत की ताकत उप्पर नीली छतरी वाले ने आपकी लेखनी को भी बख्शी है ,,,बिषय कोई भी हो ,,आपकी कलम को अपना किदार निभाना बाखूबी आता है।
जय हो
Beautifully written... It has clear message for society.