पहाड़ को बजट से बड़ी उम्मीद बंध गईं हैं. इसे तत्पर और जिम्मेदार बजट की संज्ञा दी गयी है यह देश के हर भाग को कुछ न कुछ देगा. हर वर्ग को कुछ न कुछ बंटेगा. यह सकारात्मक होगा क्योंकि ये बताएगा कि विकास की प्राथमिकता में खेतीबाड़ी है. उसके विकास के लिए कौन सी तकनीक का प्रयोग किया जाये, खेती किसानी से ज्यादा उत्पादन कैसे बढ़े, इंद्रदेव की कृपा रहे न रहे पर उपज कैसे बढ़े सूदखोर बिचौलिए का चंगुल कैसे थमे जैसे पक्ष मुख्य बहस के होते हैं. उत्तम खेती से जुड़े खाद-बीज, यंत्र-उपकरण, गल्ला- मंडी, औरतें-बूढ़े-बच्चे, युवा-अधेड़ के साथ लोक थात से जुड़े हर पहलू, हाथ से परिवार स्तर पर या लघु कुटीर स्तर का कोई भी काम और सेवा मतलब कि हर बात हर पक्ष को ध्यान में रखे जाने का वादा है.
(Budget 2023 Uttarakhand Expectation)
अब जीवन निर्वाह ही सही या इससे भी कमतर पहाड़ की खेती सरकार की नवोन्मेष भरी जैविक खेती और स्थानीय उपज को वरीयता के प्रतिमान में लहलहाने की आस पाल गयी है. जैविक उत्पादन के साथ पर्यावरण और पारिस्थितिकी के प्रति संवेदनशील होने का प्रतिमान इस बजट को पहाड़ी इलाकों के विकास की एक नई दिशा देने की प्रस्तावना रचता है, बशर्ते फल पट्टियों पर कारखाने बना डालने जैसे फरमान लागू न हों. खेती की जमीन पर बस्तियों का जाल बिछना भी सतत जारी ही रहा.
जैविक खेती पर जोर है जो सबल हाथों की कमी पशुधन की मात्रा व गुणवत्ता के लिहाज से ह्रास की ओर जाती रही. बानर सुवर का राग पुराना हुआ तो अनुत्पादक व लावारिस जानवरों ने रही-सही खेती पर सैंध अलग लगायी. किसान के खेतों उसके अवलम्ब क्षेत्र में बेरोकटोक जंगली जानवर हिंसक हुए. वन विभाग को फेंसिंग लगानी पड़ी. वहीं खेतों में गोबर की मात्रा के गिरने से जैविकीय खेती कैसे फलेगी और साथ ही बायो गैस संयन्त्र कैसे काम करेंगे पर अभी राज्य सरकार को विचार करना है जैसे कि वह पहाड़ के घर-गोठ तक हरा चारा-साइलेज पहुँचाने के लिए कर गयी है. पी एम प्रणाम के सभी इनपुट ध्यान में रखने होंगे. खेती बाड़ी के साथ वैकल्पिक आय प्रदान करने को मीठी क्रांति यानी मौन पालन का भी सहारा है जिसे कृषि मंत्रालय ने पिछले सालों से आरम्भ कर दिया था. फिर आधुनिक तकनीक आधारित मत्स्य पालन भी है जिसके साथ पी एम मत्स्य सम्पदा योजना के साथ एक नई योजना भी शुरू की जानी है.
खेती किसानी की सारी सूचनाएं और सुविधाएं जिनमें फसल योजना, फसल के साथ ही मौसम की हालत व फसल के विविधीकरण से सम्बंधित जानकारी किसान को मिले इसके लिए डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर का प्राविधान रहेगा. नेट की सुविधा मिल जाये और हाथ में स्मार्टफोन हो तो पहाड़ के दूर दराज का किसान भी समावेशी खेती की राह आसानी से खोज सकता है और अपने घर गोठ बैठ खेती की तकनीक, उत्पादन के लिए उचित प्लेटफॉर्म व समर्थन के लिए स्टार्ट अप जैसी नई बात व खेती के लिए मिलने वाले उधार की जानकारी पा सकता है. बजट में औपचारिक ऋण प्रणाली में छोटे और सीमांत किसानों के दायरे को फैलाने के लिए रिज़र्व बैंक की गारंटी मुक्त उधार की सीमा को एक लाख रूपये से बढ़ा कर एक दशमलव छह लाख रूपये कर देने की घोषणा हुई है. पढ़े लिखे नौजवानों को खेती के साथ आजीविका मिले तो कृषि आधारित नवाचार चाहिए सो बजट इसके लिए कृषि त्वरक कोष स्थापित करेगा. साथ ही जो कृषि ऋण समितियां हैं उनका कंप्यूटरीकरण कर दिया जाना है. हर गांव से जुड़ा राष्ट्रीय डाटा बेस होगा और साथ में बड़े पैमाने पर विकेंद्रीकृत भंडारण क्षमता.
खेती के प्रकट अधिमान में शीर्ष पर मोटा अनाज “श्री अन्न “है और इससे मिलने वाले पोषण और इसे उगा कर किसान की आय के बढ़ने जैसी सम्भावनाओं पर हैदराबाद में एक “सेंटर फॉर एक्सीलेंस”बनाया जायेगा. मोटे अनाज के साथ पहाड़ में परंपरागत बीजों का चलन तो बड़ा पुराना रहा था जो कब हाशिये पर पहुँच गया पता ही न चला. साथ में अनेक स्थानीय प्रजातियां भी विलुप्ति की कगार में आती रहीं. एक जमाने में बोसी सेन प्रयोगशाला और विवेकानंद अनुसन्धान शाला ने पहाड़ी उपज को बढ़ाने में खूब नाम कमाया था. पद्मश्री माधवाशीष भी पहाड़ी खेती के व्यवहारिक प्रदर्शन मिरतोला आश्रम पनुआनौला में करते रहे. वह भारत सरकार के कृषि सलाहकार भी रहे. उनके साथ पंत नगर विश्वविद्यालय के क़ृषिवैज्ञानिक डॉ शंकर लाल साह की संगति भी रही. वहीं के वैज्ञानिक डॉ वीर सिंह आम किसान और उसकी खेती पाती का जिक्र उस किसान तक पहुँचाने की मदद करते रहे हैं जो रसायन और विदेशी खाद बीज से अक्सर दुविधा में रहा.डॉ जैक्सन ने धारक क्षमता यानी कैर्रीइंग कैपेसिटी का मॉडल रचा जो गाँव घर शहर की संरचना को ध्यान में रख माइक्रो लेवल प्लानिंग की बात करता था. स्थानीय उपज और लोकथात से जुड़ा था.
मोटे अनाज को अब “श्री अन्न” की संज्ञा दी गयी है. यह कम पानी और कम खाद में उग जाता है और उगाने में ज्यादा मेहनत भी नहीं मांगता. पहाड़ के लिए इसलिए भी इसकी प्रसंगिकता बढ़ जाती है कि पलायन-प्रवास से मशक्कत भरे काम अब पहाड़ के खेतों में करे भी तो कौन? मडुआ-झुंगरा, भट्ट-गहत, चुवा-तिल यूँ ही कम मेहनत व सस्ती लागत से उग जाएं तो मुनाफे की बड़ी गुंजाइश दिखती है. मोटा-झोटा खा कोलेस्ट्रॉल फ्री रहने पर दुनिया सहमत है. उस पर यह वही अन्न है जिसकी नराई हर प्रवासी को देश-विदेश में रहते लगी रहती है. ऑनलाइन पर इसे ब्रांड बना, लागत से कई कई गुनी ऊँची ऍमआरपी पर बेचना नया मार्केट ट्रेंड है. इस श्री अन्न को उगाने, उत्पादन बढ़ाने, कृषि कोष बनाने और परंपरागत खेती को किसान सहित डिजिटल और हाईटेक बनाने की घोषणा है. सरकार की मंशा है कि मोटे अनाज के सन्दर्भ में अपना देश वैश्विक हब बने. आमीन.
जैविक खेती के साथ अब प्राकृतिक खेती बजट की प्राथमिकता सूची में है. इसका विधान यह है कि लगातार तीन साल तक प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों को सहायता राशि मिलेगी. उत्तराखंड सरकार ने 11 जिलों में 6400 हैक्टेयर भूमि प्राकृतिक खेती के लिए चिन्हित की है जिसमें 128 प्राकृतिक खेती क्लस्टर बनाए जाने हैं. एक क्लस्टर में करीब 90 किसान शामिल होंगे जो स्थानीय फसलों को उगाते हुए किसी रासायनिक खाद व कीटनाशक का प्रयोग नहीं करेंगे. इसमें केवल गोबर की खाद का उपयोग होगा. खेती की जमीन की गुणवत्ता सुधरे, वह अधिक पोषण देने में समर्थ हो इसके लिए पीएम प्रणाम, गोवर्धन यानी “गेल्वनाइजिंग आर्गेनिक बायो-एग्रो रिसोर्सेज” योजना बनी है जिसमें 10 हजार करोड़ रूपये से पूरे देश में 500 नये सामुदायिक अवशिष्ट केंद्र बनेंगे जिनमें से 200 सीबीजी यानी कंप्रेस्ड बायोगैस प्लांट व 300 सामुदायिक संयन्त्र होंगे.
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क्या हुआ कि हरितक्रांति के बाद से बीज-खाद, सिंचाई-जुताई व रोग उपचार में वाहय महंगे इनपुट का प्रयोग बढ़ते गया. माना तो गया कि ये जैविक खेती की धारा के विरोधी हैं और किसान पर ऋणों का बोझ भी लादते हैं. बजट में अब कृषि ऋण की सीमा बढ़ा दी गयी है. देश की कुल कृषि ऋण राशि का लक्ष्य 20 लाख करोड़ रखा गया है. कृषि की प्राथमिक ऋण समितियों का कंप्यूटरीकरण भी किया जाना है जिसके लिए राष्ट्रीय डाटाबेस तैयार किया जा रहा है. इस बात पर भी जोर है कि बड़े पैमाने पर विकेंद्रित भंडारण क्षमता स्थापित हो जाये. वहीं कृषि त्वरक कोष भी होगा जिसके द्वारा नई पीढ़ी को खेती के माध्यम से आजीविका से जुड़ने व खेती सम्बन्धी नवाचार को बढ़ावा मिलने का अवसर तो जुटे. उम्मीद यही कि ऐसा कर खेती पाती की कठिनाइयों का नया सा किफायती हल मिले.
खेती की तकनीक में बेहतर और कारगर तकनीक यानी ‘इंटरमीडिएट टेक्नोलॉजी’ का जिक्र कर जर्मनी के नामचीन अर्थशास्त्री ई. एफ शूमाखर ने अपने सन्दर्भ “स्माल इज ब्यूटीफुल” में प्रस्तावित कर श्रम प्रधान देशों के किसानों की आय व उत्पादकता बढ़ाने का हल सामने रखा था. पहाड़ के किसान भी इसी प्राविधि पर चले जिसे स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों से स्थानीय कारीगर की मदद से चलाया जाता था. पहाड़ का किसान कम वर्षा वाली जगहों में मोटे अनाज उगाते ही रहा. अब बजट की घोषणाओं में पहाड़ के जैविक उत्पादन, मोटे अनाज, दाल, मसाले की फिक्र तो है ही, साथ में माइक्रो फ़र्टिलाइजर व कीटनाशक के उत्पादन हेतु देश भर में 10 हजार बायो इनपुट रिसोर्स केंद्र बनाने कि योजना भी. देश भर में बागवानी के लिए 22 करोड़ की आत्मनिर्भर स्वच्छ पौँध कार्यक्रम भी आरम्भ होगा तो मत्स्य सम्पदा योजना के लिए 6000 करोड़ की नई योजना प्रस्तावित है. ये श्रृंखला प्रभाव पहाड़ की खेती से सीधे जुड़ता है. ग्रीन ग्रोथ में श्री अन्न से उत्पादन बढ़ाने की प्राथमिकता तो साफ है पर इस पर निजी निवेश के लिए कोई घोषणा नहीं दिखती. खेती के ऐसे जरुरी विविधीकरण तो निजी निवेश से ही असरदार बनते है.कृषि बागवानी के साथ इनके प्रसंस्करण की जो सक्सेस स्टोरी हैं वह निजी प्रेरणा और अपने उपक्रम से ही आगे बढ़े भले ही भगत जी हों या चड्ढा साब.
बजट में ऐसी प्राथमिकता फिर रखी गईं हैं जिनसे ग्रामीण उत्पाद अधिक वृद्धि करने में सक्षम रहें और ऐसी वृद्धि विविध उत्पादनों के क्लस्टर जोन बना कर हो. याद रहे शासन में वरिष्ठ नौकरशाह डॉ आर एस टोलिया ने पहाड़ के अनाज, दाल -मसाले के गुणात्मक विकास हेतु इसी तरीके को सबसे बेहतर माना था. हर जिले में दो विशिष्ट उत्पाद की योजना उत्तराखंड में लागू की गयी है जिनमें कई विसंगतियाँ भी हैं. जैसे कि जनपद चम्पावत में लोहे के बर्तन व स्थानीय उपयोग के यँत्र-उपकरण बनाए जाने की प्राथमिकता तो है पर वहां कौन से आगर से कच्चा लोहा मिलेगा पर उद्योग विभाग असमंजस में है.
वहीं बजट में मनरेगा की कटौती साफ झलकती है और ये स्थिति भी साफ है कि जब गाँव -गांव व बाजार में दिहाड़ी पांच-छ सौ रूपये हो तो मनरेगा में साल के कुछ अनियत दिन कौन काम करेगा? वैसे भी दिहाड़ी पर काम करने वालों में उत्तरप्रदेश और बिहार से आए श्रमिकों का भाग तराई भाबर के साथ पहाड़ में बढ़ता ही जा रहा है जबकि पहाड़ में पहले नेपाली डोटियाल ज्यादा होते थे. बोझा भी ढोते थे पल्लेदारी भी करते थे. ईमानधर्म वाले भी माने जाते थे पर अब वो जमाना फरक गया. कामगारी ने रूप बदल लिया. सीमांत के शहरों कसबों तक में राजस्थान के ल्वार सकुटुंब पधार लोहे की कढ़ाई, तवा,आँसी, बढ़याट बेच रहे. पहाड़ की पत्थर की चिनाई, लकड़ी के काम व लोहे ताँबे के शिल्पी सब पुरानी पीढ़ी के साथ मर खप रहे. संख्या में धटते जा रहे.
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इधर पहाड़ में अनाज का रकबा सिकुड़ना चिंता का विषय बना है. गेहूं धान का उत्पादन कमोबेश स्थिर रहा है तो कई जगह गिरता हुआ. कई जगह से यह जवाब मिलता है कि जब सस्ती दर और राहत में यह राशन कार्ड में मिल रहा तो बोने कि जहमत कौन उठाये. फिर इतनी मेहनत कर गयी पीढ़ी भी अब बूढ़ी हो गयी. तब से तमाम असंतुलनकारी धचकों के साथ यहाँ के सीढ़ी दार खेत और तलाऊं की जमीन ऐसे किन्ही सरकारी प्रयासों की बाट जोहती है जिससे निरन्तर होता पलायन थम सके. कोविड काल में जो हृष्ट पुष्ट अपने आशियाने में पधार कुछ कर गुजरने के दिवा स्वप्न में रहे उनसे कुछ समय यह आस उभरी कि पहाड़ की खेती इसके उद्योग धंधे यहां की शिल्पकारी के दिन फरकेंगे पर जैसे जैसे सेहत के बाहरी खतरे खतम हुए, भाबर-देश-मैदान-शहर-महानगर की ओर जाने वाली गाड़ियां भर-भर बाहर गईं. राज्य सरकार की कई कई योजनाओं से जो पूर्व का दोहराव ही थीं पलायन आयोग की रपट पॉजिटिव बन न पाई.खुद इसके आकाओं ने पौड़ी के बजाय राजधानी में अड्डा जमा लिया वहां सारे आगत -निर्गत एकबट्या दिए जाते हैं, तमाम लॉजिस्टिकस, सारी इन्वेंट्री तो बस राजधानी में ही सिमटती है.
लगता है कि सप्तर्षि बजट पहाड़ के काफी करीब होते उसे छूता है. पहाड़ में मोटा अनाज होता है, पहाड़ के फल ज्यादा रसीले होते हैं, यहाँ की सदानीरा नदियों के साथ गाड़ गधेरों में खूब मछली होती है जिनमें महाशेर के तो कहने ही क्या? अंग्रेज भी झीलों के किनारे बैठ यहाँ खूब झख मार गए हालांकि बाद में इस पर रोक लगा दी गयी. डायनामाइट की बत्ती फोड़ और ब्लीच डाल मीन हत्या बदस्तूर जारी रही. खेतिहर को सारी सुविधा दे उसे डिजिटली समृद्ध करने के नवप्रवर्तन अब जा के हुए. जिन्हें पुनः मोटे अनाज यानी श्री अन्न से जुड़ना है. और जिस पर हमारी परंपरागत खेती टिकी थी.
परंपरागत खेती के दर्शन लाभ अभी पहाड़ में आसानी से होते है क्योंकि तराई भाबर की धरती आसानी से कृषि यंत्रीकरण से बड़े फार्म हाउस को मुनाफा देने में समर्थ है. यहाँ पैदा धान गेहूं कायदे से पैक हो लालकिला, राजधानी, पिल्सबरी ब्रांड नाम भी पाता है और दाम भी. हल-बैल, जुआ-नाली को पुर्नजीवन तो तलाऊं-उपरांउ के सीढ़ीदार खेतों में ही मिलेगा.अब बजट के प्रोत्साहन से यह जाँच जरुरी हो जाती है कि खेती के स्टार्ट अप को बढ़ाने के लिए कृषि त्वरक कोष के बनने -जुटने, जैविक खाद के लिए पी एम प्रणाम योजना और डिजिटल आधुनिक खेती को चमकाने जैसी कई सौगात पहाड़ किस तरह से पचा पाता है.
अन्नदाता की आय भी बढ़नी है, इलाके के पर्यावरण पारिस्थितिकी को बनाए बचाए भी रखना है. फिर ये हरित खेती और मोटे अनाज को मिला जुला कर “श्री अन्न “उपजाना है जिसके लिए खेती बाड़ी हेतु मिले उधार को ग्यारह प्रतिशत बढ़ाने की घोषणा भी बजट में कर दी गयी है. साथ में डिजिटल तकनीक का वादा भी है. मछली पालन व पशु सम्पदा की वृद्धि वाली अनुपूरक योजनाओं के सहारे हैं, सहकार से समृद्धि के लक्ष्य भी. मकड़ जाल यानी सर्वाँगीण विकास हेतु यह बजट राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन यानी एन एफ एस एम की योजना से भी भरा पूरा है जिसे केंद्र सरकार प्रायोजित करेगी.
खेतिहर की आय दुगनी बढ़े इसके लिए खेती से जुड़ी रिसर्च और पढ़ाई-लिखाई के लिए अलग से बजट दिया गया है जिससे ऐसा ज्ञान उपजे जो मिलने वाली उपज को ज्यादा गुणवत्ता वाला बनाए. जो फसल उगे उसमें रोग व्याधि न हो, उन्नत किस्म के बीज खोजे जाएं और इनके प्रसंस्करण पर अधिक ध्यान दिया जाए. संभवतः इतनी सुविधा मिलने के बाद उन परंपरागत बीजों के टिकने व फिर से फलने फूलने के दिन भी बहुरेंगे जिन्हें बचाने -संरक्षित रखने के लिए कई पहाड़ प्रेमियों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया.
अब जरा आवागमन यानी अंतरसंरचना की ओर भी देखें. इसमें कोई संदेह नहीं कि हर गाँव घर तक सड़क बिछा देने की अति महत्वकांक्षी योजना से चार धाम परिपथ के समस्त देवी-देव, ईष्ट-पितर तृप्त हो गए. कई साल तक लोग आपदाओं का ठीकरा ऐसे समावेशी विकास पर फोड़ते रहे पर होना वही था जो नियत किया गया. सड़क की चौड़ाई भी कैसे घटे सीमावर्ती प्रदेश है ऊपर पडोसी भाई लगातार ख्यात पाड़ने झसक लगाने में उस्ताद बना फिर रहा है. विकास के कई अजूबे भी सामने आए. एक दशक से सुरंग खोद बिजली बना रहे राष्ट्र के थर्मल विभाग की गोल बंदी होती रही अब जब दरारों से शहर ही पट गया और कई जगह अपने संकेत दिखा गया तब फौरन विस्थापित कार्यवाही पर प्रबल प्रयास की रुपरेखा बनी. अभी बद्री नाथ की यात्रा तो इसी शहर से गुजरती सड़क से होगी. वहीं अलकनन्दा नदी के पाट पर स्थित देवी मुख मंदिर ऊर्जा के अविरल प्रवाह के लिए कई सौ मीटर ऊपर प्रतिष्ठित कर इसे दर्शनीय बना दिया गया. अभी पंचेश्वर की कोई खबर नहीं और न ही इस बात का कोई जिक्र कि खूब समृद्ध जल की धार से कितने घराट चल आटा भी पीसेंगे और बिजली भी बनाएँगे.
आपदाओं को न्योता देने वाली परियोजनाओं का घातक प्रभाव अब बहुत मुखर हो चुका सो वित्त आयोग ने राज्य आपदा प्रबंधन न्यूनीकरण निधि के अधीन अनुदान में भी वृद्धि कर दी है. केंद्र के द्वारा एन.डी.आर.एफ व एस. डी.आर. एफ में वृद्धि की गयी है.
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चली आ रही परिपाटी से इतर इलाका विशेष में रोजगार की व्यवस्था करने और अकुशल श्रम को अर्ध कुशल व फिर सिद्धहस्त बनाने में पहाड़ की महिलाओं का समग्र योगदान स्वयं सहायता समूहों के द्वारा संभव होने के पक्ष पर पर्याप्त ध्यान बगैर बजट अधूरा ही रहता. स्वदेशी उत्पादन के वरीयता क्रम में स्थानीय शिल्प व दस्तकारी की मांग निरन्तर बढ़ती हुई दिखी है तो जरुरत इस बात की है कि इनके समुचित प्रशिक्षण को गुणवत्ता युक्त बनाया जाए. उत्तराखंड में भी नाबार्ड पोषित ऐसी योजनाओं का लगातार विस्तार हुआ है. इनमें सबसे बड़ी रोक तब आती है जब प्रशिक्षण के बाद की कागजी कार्यवाही में सबसे बड़ी टोक उन बैंकों द्वारा लगाई जाती है जो लाभार्थी की परियोजना को नियत ऋण प्रदान करेंगे. पूर्व की कार्यवाही में जिला स्तर के अधिकारी, जिला उद्योग केंद्र के साथ प्रशिक्षक व एन जी ओ मौजूद रहते हैं तब बैंक द्वारा कोई असहमति प्रकट नहीं होती पर फिर कभी लाभार्थी के स्थायी वास या फिर मौजूदा काम और बनाए गए माल की फीजिबिलिटी व विपणन में कोई न कोई भूलचूक निकाल दी जाती है. स्वयं सहायता समूह में कई स्वयं स्फूर्ति अवस्था तक जा पहुंचे हैं जिसके पीछे उनकी उपक्रम शीलता मुख्य कारक है बाकी किसी सरकारी आयोजन व मेले ठेले की बाट जोहते हैं. वहां भी आम जन की क्रय शक्ति से बाहर इनकी वही कीमतें तय होती हैं जिनके फंदे में पूरा ऍमआरपी जगत है.ऑनलाइन ने छूट का झांसा दे लोकल दुकानदारी वहां लुप्त कर दी है जहाँ तक स्मार्ट फोन पहुंचा है. श्री अन्न की हर वैरायटी इनके पास मौजूद है.
बजट की और भी कई खास बातें हैं जो पहाड़ से सीधे जुड़ी हैं. जैसे कि इस वित्तीय वर्ष में बीस लाख करोड़ रूपये खेती के उधार की तरह खेतिहरों को मिलेंगे. पर यह जान लें कि कर्ज देना तो बैंक के अधीन है. सरकार ने कभी दबाव में आ समूचा या कभी कर्ज का कुछ हिस्सा माफ जरूर किया है, साथ ही उधार के ब्याज में सीमित छूट तो दी ही है है.बजट ग्रामीण इलाकों में स्टार्टअप का पक्ष भी सामने रखता है. देश के गाँवों की तरह पहाड़ के बाशिंदो के पास विविध उत्पादों की कमी है साथ ही व्यापार के अन्य संसाधनों की कमी भी. पहले भी कभी एफ.पी.ओ यानी किसान उत्पादक संगठन बने और उनकी हालत पतली ही बनी रही.
खेती और पर्यटन रोजगार के साथ शहरीकरण के लिए नवीन योजनाओं और इनके लिए किये बजट आवंटन से राज्य को बहुत उम्मीद नजर आ रही है. केंद्र सरकार ने अवस्थापना विकास के लिए विशेष सहायता योजना को जारी रखते हुए इसके लिए बजट भी बढ़ाया है. यह पूंजीगत व्यय है जिससे संसाधनों का आवंटन और इनकी गति नियत लक्ष्य प्राप्त करने में उन परियोजनाओं की तरफ होती है जिससे रोजगार सृजन संभव होता है. केंद्र की ओर से पचास साल के लिए ब्याज रहित ऋण के रूप में यह पूंजी प्राप्त होनी तय रही. अभी राज्य को इसमें 1150 करोड़ रूपये मिले हैं. केंद्र सरकार प्राकृतिक खेती, मछली पालन और मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ावा देने पर जोर दे ही रही है जो उत्तराखंड के लिए बेहतर सम्भावना रखता है.
नई बात यह कि खेती किसानी में नवाचार का विचार व कृषि क्षेत्र के स्टार्ट अप को प्राथमिकता देने हेतु पृथक से निधि बनाई गयी है तो पर्यटन के क्षेत्र में बजट ने “देखो अपना देश” का प्रोत्साहन दिया है. स्वदेश दर्शन और पचास नये पर्यटन स्थल विकसित करने जैसी परियोजनाओं के साथ एयर सफारी की बढ़ती सुविधा उत्तराखंड के पर्यटन को अधिक प्रोत्साहित करेगी क्योंकि अब चार धाम यात्रा और एडवेंचर टूरिज्म के साथ मुख्य पर्यटन स्थलों में पर्यटकों की आवाजाही वर्ष भर बनी रहती है.सीमांत के गांवो तक पर्यटन सुविधा स्थापित करने पर जोर है जिसमें होम स्टे से स्थानीय परिवार लाभान्वित हों,पर जोर बना रहेगा. मुख्य शहरों में पर्यटन व यूनिटी मॉल्स के विकास से राज्य का रियल स्टेट सेक्टर भी उत्साह प्राप्त करेगा. इसके साथ ही 157 नये कॉलेज व फारमेसिटिकल क्षेत्र में रिसर्च व नवप्रवर्तन से कौशल निर्माण व उच्च शिक्षा बेहतर गुणवत्ता की ओर उन्मुख होगी.
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बजट के संकेतो के साथ गृह मंत्रालय ने सैद्धांतिक रूप से हिमालयी शोध व अध्ययन संस्थान खोलने पर सहमति दी है जो बढ़ती हुई प्राकृतिक आपदाओं से जूझने सम्बन्धी समस्याओं के निदान में सहायक होगा. गौरतलब है कि ऐसे संकटोँ व खतरों से आगाह करने वाली कई विशेषज्ञ समितियों व ऐसे इलाकों में स्वतंत्र रूप से काम कर रहे लोगों की चेतावनी को लगातार नजरअंदाज भी किया जाता रहा है. अब उत्तराखंड में पहले से विकसित शहर धारक क्षमता से अधिक बोझ वहन करने लगे हैं जिससे प्रति व्यक्ति नागरिक सुविधाओं में कमी का दबाव व तनाव उभरने लगा है. बजट में प्राप्त चार हजार करोड़ के द्वारा नये शहरों को विकसित करने में राज्य सरकार को इससे मदद मिलेगी. दूसरी ओर शहरों में सुधार के लिए शहरी अवस्थापना विकास निधि से वित्त जुटना संभव हो गया है.
केंद्र से “हरित वृद्धि “के जिन बहु विध तरीकों को सूक्ष्म व व्यापक अलग- अलग इलाकों में क्रियान्वयन हेतु लागू किया जाना है वह वायु प्रदूषण की समस्याओं के निराकरण के लिए सुविचारित दिशा प्रस्तावित नहीं करती. उत्तराखंड के शहरों में भी प्रदूषण की समस्यायें लोगों के स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डाल रहीं हैं. अपशिष्ट पदार्थों के ढेर जलने के लिए खुले छूटे हैं राजमार्ग व समीप की बस्तियों में कूड़े की सड़ाँध से लोगों का जीना मुहाल है जिनके संक्रमण से कितनी जटिल बीमारियों का प्रसार हो रहा है पर इसे कहीं गंभीरता से सोचा नहीं गया है. उत्तराखंड के व्यस्त शहरों में भी कार टैक्सी की भरमार व बढ़ते परिवहन से वायु गुणवत्ता खतरे के स्तर को पार कर गयी है.
बजट में हिमालयी राज्यों के द्वारा चिर प्रतीक्षित “ग्रीन बोनस” की मांग पर भी घ्यान नहीं दिया गया है. पहाड़ी राज्यों में असम 37 प्रतिशत, हिमाचल 69 प्रतिशत,अरुणाचल 80 प्रतिशत मेघालय 86 प्रतिशत तो उत्तराखंड 71 प्रतिशत हरित पट्टी से युक्त है. ये सभी राज्य दूरस्थ व भंगुर टोपोग्राफी वाले हैं जहां अंतरसंरचना निर्माण की भारी कीमत चुकानी पड़ती है. पर्यावरण मंत्रालय द्वारा तय मानकों का भी सदैव उल्लंघन होता रहा है. हिमालय केवल इन राज्यों हेतु ही महत्वपूर्ण नहीं बल्कि पूरे देश की आबोहावा अनुकूल रखने हेतु वरदान है. 2007 में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ फारेस्ट मैनेजमेंट (आई आई एफ एम ) ने हिमालयी पहाड़ी राज्यों के द्वारा हरी पट्टी के संरक्षण व संवर्धनसे प्राप्त सेवाओं का मुद्रा अनुमान लगाया था जो अकेले उत्तराखंड के लिए ही 98,924 करोड़ रूपये वार्षिक ठहरता था. पहाड़ द्वारा झेली जा रही आपदाओं और अनियंत्रित विकास गतिविधियों के लिए उन्हें ग्रीन बोनस का लाभ मिलना तर्क संगत माना गयापर यह मिला नहीं.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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