एक थी पुष्पा दीदी
यह विशेषता बुआ जी के परिवार की ही नहीं, उस दौर में लगभग सार मध्यवर्गीय परिवारों की थी कि चूल्हे-चैके की सीमारेखा के बावजूद आपस में लोग सगे-संबंधियों की तरह रहते थे. हर आदमी एक दूसरे से जुड़ा रहता. आपस में मन-मुटाव होता, एक-दूसरे को व्यंग्य-उलाहने देते मगर कठिन समय में एक दूसरे का सहारा बनने में जरा भी नहीं चूकते.
एक के घर में कोई भी नई चीज आती तो लोग उसका उपयोग मिल-बाँट कर करते. मुहल्ले में रहने वाली लड़की सबकी बेटी होती, और लड़का सबका बेटा. किसी की उपलब्धि पर पूरा बाज़ार जश्न मनाता और बदनामी होने पर सब शर्म अनुभव करते और सामूहिक रूप से उसका निदान सोचते. अपवाद भी होते, मगर उन्हें कभी नियमों की गरिमा नहीं दी जाती.
उस दौर में फिल्मों का जूनून
पुष्पा दीदी को फिल्में देखने और फिल्मी दुनिया में जीने का पागलपन की हद तक शौक था. फिल्मों के नाम पर कोई भी उसको बेवकूफ बना सकता था. वह साठ के दशक का दौर था, जब फिल्मी अभिनेत्रियों में मधुबाला, मीना कुमारी, माला सिन्हा, निम्मी और नरगिस की तूती बोलती थी.
उस दौर की अधिकांश लड़कियाँ अपने जीवन-साथी के रूप में देवानंद, शम्मी कपूर, दिलीप कुमार और राजेंद्र कुमार की कामना करती थीं. प्राण से नफरत करती थीं और सपने देखती थीं कि कोई नौजवान पहाड़ों के उस पार से जुल्फों से टपकते पानी के साथ ‘ज़िदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात’ गाता हुआ उसे संबोधित करता हुआ आए.
पुष्पा दीदी ने भी इसी मोहपाश में फँस कर अपने जीवन को तबाह कर डाला था. पता नहीं उनकी नजर में वह तबाही थी या नहीं, क्योंकि कितने ही लोगों ने उन्हें सावधान किया, भावी संकटों का उसके सामने खाका खींचा मगर उसने सुना ही कहाँ? सुर्ख रंग के कपड़े पहनने और तेज मेकअप के साथ उमंगों से भरी हुई घूमने के लिए जब वह निकलती थी तो बड़े रहस्यमय ढंग से मुहल्ले के लड़कों को अपने चारों ओर खोजती थी और हर खूबसूरत लड़के में अपने जीवन-साथी की छवि देखती.
दिन रात उसी ट्रांस में जीती थी. अपने चारों ओर फैले हुए रमणीक नजारे यथार्थ में उसे आकर्षित नहीं करते थे; घर से बाहर कदम निकालते ही उन नजारों के बीच फिल्मों में देखे गए दृश्य उसे दिखाई देने लगते और वह सटाक्-से माल रोड या ठंडी सड़क में अपने अंतःकरण के संसार में शम्मी कपूर या देवानंद के साथ चहकने लगती.
अपने साथ घूमने वाले हीरो के बारे में वह कोई समझौता नहीं करती थी. पहले नंबर पर देवानंद, फिर शम्मी कपूर, उसके बाद राजेंद्र कुमार … और बिलकुल मजबूरी में ट्रेजेडी-किंग दिलीप कुमार. विश्वजीत, अभिभट्टाचार्य वगैरह को तो वह घास भी नहीं डालती थी.
ठंडी सड़क का एकांत
ठंडी सड़क में अब तो तालाब के किनारे रेलिंग लग गई है, पुराने दिनों में, खासकर बरसात में, तालाब की लहरें रास्ता चलते लोगों के पाँव चूम रही होतीं. उन लहरों के चुंबन का अधिकार पुष्पा दीदी सबको नहीं देतीं. उसकी अपनी दुनिया थी, और उसके हर हिस्से बटवारा उसने अपने पसंद के अभिनेताओं को किया हुआ था.
ठंडी सड़क के एकांत में वह खुद के साथ कुछ ही अभिनेताओं को घूमने का अधिकार देती थी, बाकी की हैसियत वह इस लायक भी नहीं समझती थी कि वे उनके नमस्ते का जवाब दें. फिल्मी नायकों की मज़ाक उड़ाने के लिए तर्कों की उसके पास कोई कमी नहीं थी. माल रोड या लोअर-अपर चीना माल में ही नहीं, घर आने युवकों में भी वह अपना हीरो तत्काल खोज लेती थी और फौरन उसे सुझाव दे डालती, जिससे कि वह ऐन उसके पसंदीदा हीरो की तरह दिखाई दे.
मगर यह जुनून आठ-दस सालों तक ही चल पाया. उन्तीस-तीस की उम्र में उसे अपने सपनों का शहजादा मिल ही गया और उसके साथ सात फेरे लेकर वह बंबई का माया नगरी भी पहुँच गई, मगर जब लौटी तो अपनी पुरानी छवि की एकदम विपरीत … ऐसा नहीं था कि जिंदगी के प्रति उसका जुड़ाव नहीं था, वह कोई असफल या निराश नायिका की तरह अपने मायके लौटी हो, मगर इन आठ-दस सालों में उसके अंदर से एक दूसरी ही पुष्पा दीदी रूप ले चुकी थी.
आधी सदी बाद एक याद
इतने साल … लगभग आधी सदी बीत जाने के बाद, मेरे दिमाग में पुष्पा दीदी की छवि जाड़ों में टीन की छत के किनारे पर तेल से चीकट गद्दे के ऊपर सुबह से शाम तक सोई हुई एक यक्ष्मा रोगिणी की है जिसे सुबह उठाकर धूप में सुला दिया जाता था और शाम को वापस भीतर के कमरे में सुला दिया जाता.
घर का कोई सदस्य मशीनी ढंग से यह काम संपन्न करता, जैसे कि सुबह उठते ही अस्तव्यस्त कमरे को ठीक कर दिया जाता है, या बाल्टी या गगरी में पीने का पानी भर दिया जाता है … पुष्पा दीदी दिन भर छत के उस कोने पर लगभग एक ही करवट सोई दिन ढलने का इंतज़ार करती रहती और बीच आकाश में दिखाई देने वाले अतीत के बिंबों को दिमाग से हटाने की कोशिश करती रहतीं …
बीच में कभी प्यास लगती या पेशाब जाना होता, वह हम लोगों के सामने ऐसे गिड़गिड़ाती जैसे उस छोटी-सी मदद से उसका जीवन धन्य हो जाएगा. दोपहर को अमूमन घर पर बच्चे नहीं होते, बड़े सदस्य भी घर के काम में व्यस्त रहते. वह अपनी क्षीण पतली आवाज में कराहती हुई जो-कुछ कहती, वह सुनाई तो नहीं देता, मगर उसका आशय सब लोग सुन लेते थे, फिर भी उसकी वह इच्छा पूरी नहीं हो पाती. लगता, उसके मुँह से निकलने वाली ध्वनि-तरंगें मानो उसकी आखिरी आवाज़ हो. मानो, इस अस्पष्ट वाक्य का उच्चारण करने के बाद वह हमेशा के लिए मौन हो जाएगी.
उस दौर का साक्षी
मगर मैं तो उस दौर का साक्षी था जब पुष्पा दीदी छलछल बहते झरने और उड़ती तितली की तरह जीवंत और उमंग से भरी हुई थी. शायद ही कोई फिल्म हो, जिसे वह न देखती हो. निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में हर फिल्म को देखने के लिए पैसा जुटा पाना आसान नहीं होता, न अकेले सिनेमा हाल में जाने की अनुमति मिलती. ऊपर से मध्यवर्गीय वर्जनाएँ. उम्र में मैं उनसे काफी छोटा था, इसलिए अपनी उमंगों को तो वह मुझसे बाँट नहीं सकती थी, मगर कभी-कभी अनायास वह अपने सपने उजागर तो कर ही देती, और तब उसके सपनों का अंदाज़ लगा पाना मुश्किल नहीं होता.
उसने कहा था
सुंदरता का पैमाना उसकी नजर में गोरी चमड़ी और बिना किसी दाग-धब्बे के धुला-पुँछा जीवंत चेहरा हुआ करता था. गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ पर फिल्म बनी थी और उसमें लहना सिंह को सिख नहीं, बल्कि क्लीनशेव युवक के रूप में दिखाया गया था. घर में ही इस पर बहस चल रही थी, और अधिकांश लोग इस बात पर आपत्ति जता रहे थे कि फिल्म निर्माता को यह अधिकार नहीं है कि वह मनमाने ढंग से किसी पात्र की छवि गढ़ दे. फिर तो लेखक की अपनी दृष्टि का कोई मतलब ही नहीं रह जाता.
‘‘छि-च्छी… कैसा लगेगा सुनीलदत्त दाढ़ी-मूँछ और पगड़ी में! … कौन देखेगा ऐसी पिक्चर! … मैं तो मर के भी न देखूँ ऐसे हीरो का मुँह.’’
‘‘लेकिन दीदी, सरदार को मौना कैसे दिखाया जा सकता है? जिस जमाने की यह कहानी है, उन दिनों तो बिना केश के सरदार की कल्पना ही नहीं की जा सकती. आज भी नहीं है, लेकिन आज शायद इक्का-दुक्का बिना पगड़ी के सरदार मिल जाएँ. बिना दाढ़ी-मूँछ के तो आज भी नहीं मिलेंगे.’’
‘‘फिर भी, दाढ़ी-मूँछ के साथ कैसा लगेगा पिक्चर का हीरो…!’’
‘‘पिक्चर को कहानी के मुताबिक ही तो बनाओगे भय्या…. इतना ही शौक है तो दूसरा करेक्टर गढ़ लो. बने-बनाए पात्र को क्यों बरबाद कर रहे हो?’’
दाढ़ी-मूँछ से ढके हुए चेहरे को कौन करेगा प्यार
गुस्से से बिफर पड़ी पुष्पा दीदी, ‘‘तब तो तुम ये भी कहने लगोगे कि भगवान राम को भी दाढ़ी-मूँछ पहनाई जानी चाहिए. आखिर वो भी तो कौशल्या माता के पेट से दाढ़ी-मूँछ के साथ नहीं बाहर निकले होंगे.’’
सब लोग हँसने लगे थे, मगर पुष्पा दीदी पूरी तरह गंभीर थी. उनके इस विश्वास से ही संस्कृत आचार्यों के साधारणीकरण के सिद्धांत के पीछे छिपी भावना की पुष्टि होती थी.
ठुल-दा ने ही प्रतिवाद किया, ‘‘भय्या, रियलिटी तो रियलिटी है. किसने कह दिया कि दाढ़ी-मूँछ से आदमी भद्दा ही लगता है. इसे तो मर्दों का आभूषण माना जाता है. बिना मूँछ के आदमी में और औरत में क्या अंतर रह जाता है ?’’
‘‘पिक्चर में तो फर्क पड़ता है ठुल-दा. दाढ़ी-मूँछ से ढके हुए चेहरे को कौन करेगा प्यार.’’
‘‘तुमसे किसने कहा कि हीरो से प्यार करो?’’
‘‘बिना इसके हम पिक्चर देखने ही क्यों जाएंगे? एक तो पिक्चर हॉल में एक ही ढंग से बैठ कर अपने तीन घंटे बरबाद करो, ऊपर से दाढ़ी वाले का चेहरा देखो. नहीं जी, हम तो नहीं देख सकते ऐसी पिक्चर.’’
पुष्पा दीदी के तर्कहीन पूर्वाग्रह
ऐसी बहसें अमूमन घर में हुआ करती, हमेशा ही पुष्पा दीदी के अपने तर्कहीन पूर्वाग्रह होते, शायद वह इसे जानती भी थी, मगर अपनी रुचियों के साथ समझौता करना उसे किसी भी हालत में मंजूर नहीं था.
बीस-बाईस साल की उम्र में उसके लिए बहुत अच्छे रिश्ते आए. सभी सजातीय और आर्थिक दृष्टि से संपन्न न सही, मगर खाते पीते परिवार. मगर सारे रिश्तों को वह सुनने से पहले ही नकार देती. आखिर देवानंद जैसी शक्ल और नेहरू जैसी अकल एक साथ कैसे संभव थी, वह भी पुष्पा दीदी के लिए. वह खुद भले ही धाराप्रवाह अंग्रेज़ी नहीं बोल पाती थी, मगर अपने पति से यह अपेक्षा रखती थी वह खूब अच्छी अंग्रेज़ी बोल लेता हो. परिणाम वही हुआ जो ऐसी हालत में होता है. तीस तक पहुँच कर भी वह कुँआरी ही थी.
इसी बीच एक सजातीय रिश्ता आया. लड़का तो नहीं कह सकते उसे, चालीस साल का प्रौढ़ था, मगर उसकी विशेषता यही थी कि वह बंबई में था और फिल्मों से जुड़ा हुआ था. कुछ फिल्मों में उसने छोटे-मोटे सहायक रोल किए थे, जैसे हीरो के साथ चलने वाला उसका चमचा या हीरो का कोई एक भाई जो फिल्म में कुछ पलों के लिए ही दिखाई देते हैं. पुष्पा दीदी से उन फिल्मों को देखने के लिए कहा गया. पूरे मन से उन्होंने वह फिल्म देखी…
एक देवानंद और एक पति
संभव है, उसकी नजर भी अपने उस भावी अभिनेता पति पर न पड़ी हो, मगर वह फिल्म की इसलिए दीवानी हो गई क्योंकि उसका हीरो देवानंद था. कई दिनों तक वह उसी हीरो की याद में खोई रही, उसके लिए यही कम सौभाग्य की बात नहीं थी कि वह व्यक्ति कुछ क्षणों के लिए ही सही, उसके हीरो के साथ था. उसने खुद ही प्रस्ताव रखा कि वह उसके साथ शादी करेगी. इस बीच उसका भावी पति कुछ दिनों के लिए नैनीताल आया था, या शायद उसे बुलाया गया था.
वह कुरूप तो नहीं था, मगर सुंदरता या कुरूपता कोई बाहरी लक्षण तो होते नहीं, वह तो व्यक्ति के अंतःकरण के आधार पर ही तय होते हैं; पुष्पा दीदी उस आदमी के सौंदर्य पर तो फिदा नहीं थी, उस पर तो उस आदमी के ऊपर बिछी हुई देवानंद की छवि का जादू सवार था, इसलिए एक पल के लिए भी वह व्यक्ति उसके दिमाग में नहीं आया.
बंबई में नैनीताल की त्रासदी
पुष्पा दीदी तब जागी जब वह बंबई के उस कमरे में पहुँची जहाँ उसे अपनी सुहाग रात मनानी थी. वह छह गुणा आठ का चाल का एक कमरा था, जिसे सोने और रसोई के कमरे के रूप् में उपयोग में लाया जाना था. चाल की उस मंजिल का गोसल सामूहिक था और कपड़े सुखाने के लिए हर परिवार की अपनी एक रस्सी थी, जिसके अलावा दूसरे की रस्सी का उपयोग करने पर रोज सिर-फुटौवल होती रहती थी.
नैनीताल की ठंडी सड़क, माल रोड, अपर चीना और लोअर चीना माल के बीच निद्र्वंद्व घूमने वाली और आर से पार तक फैले बड़ा बाज़ार का अपना परिवार समझने वाली पुष्पा दीदी कैसे वहाँ एडजस्ट कर पाती.
वह व्यक्ति एक विधुर था, जिसके बच्चे तो नहीं थे, मगर जिसकी पहली पत्नी कभी उसके साथ नहीं रही. पैतृक संपत्ति भी ऐसी नहीं थी कि पुष्पा दीदी उसे यह सुझाव दे पाती कि पहाड़ लौट कर अपना कोई नया कारोबार ही शुरू करते. चूँकि इस शादी के बारे में सारी पहल उन्हीं की थी, बावजूद इसके कि कई अच्छे-अच्छे रिश्ते उन्होंने खुद ठुकराए थे; पुष्पा दीदी घर भी लौटती तो किस मुँह से?
अपने जैसी अकेली नहीं थी पुष्पा दीदी
मगर एक दिन दहेज में मिले जेवर और पैसे को एक दिन खत्म तो होना ही था, और बंबई की उस घुटनभरी कोठरी में सारी ज़िंदगी गुजार पाना असंभव, पुष्पा दीदी को अवसाद के दौरे पड़ने लगे और जिस दिन उसका पति उसे बुआ जी के बत्तीस, बड़ा बाजार, मल्लीताल के घर पर पहुँचा गया, पुपा दीदी सींक की तरह पतली हो गई थी और उसकी देह से सचमुच मांस-मज्जा गायब हो चुकी थी.
घर लौटने के दिन से ही पुष्पा दीदी के आवास छत और रसोई की बगल वाली कोठड़ी के कोने तय हो गए जिसमें वह अगले पाँच सालों तक रही और एक दिन वहीं पर से उसकी छीजती चली गई आवाज़ की तरह प्राण भी नैनीताल के वायुमंडल में विलीन हो गए.
और पुष्पा दीदी नैनीताल की अकेली लड़की नहीं थी. छोटे शहरो-कस्बों की इस नियति के अभिशाप को जीने के बाद जब वह लौटीं तो अगली पीढ़ियों ने उससे कोई सबक नहीं लिया. ‘मैं माधुरी दीक्षित बनना चहती हूँ’ तो मानो उन्हीं की कहानी थी, फर्क यह है कि ‘माधुरी…’ एक फिल्म थी और पुष्पा दीदी एक जीती-जागती सच्चाई.
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं.
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