अंग्रेजों की दासता से पीड़ित भारतीय जनता ने आखिरकार 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का झण्डा बुलन्द कर ही दिया. इस बगावत की चिंगारी धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गई. जिसका प्रभाव देश के सुदूर हिमालयी अंचल में बसे कुमाऊं तक भी हुआ. जिसके कारण कुमाऊं में भी लोगों के अन्दर देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए राजनैतिक चेतना जाग्रत होने लगी. इस राजनैतिक चेतना के कारण ही प्रयाग में जब 1912 में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ तो कुमाऊं से पहली बार लोगों ने इसमें भाग लिया था. (Women Freedom Fighters of Uttarakhand)
इस सम्मेलन से लौटने के बाद कुमाऊं में स्वतंत्रता आन्दोलन को तेज करने के लिए 1916 में कुमाऊं परिषद की स्थापना की गई. इसके संस्थापक सदस्यों में हर गोविन्द पंत, बंशीलाल वर्मा, पं. बद्रीदत्त पान्डे, मोहन सिंह दरम्याल, इन्द्रलाल शाह, चंदनलाल शाह, भोलादत्त पान्डे, गोविन्द बल्लभ पान्डे, प्रेमबल्लभ पान्डे, विक्टर मोहन जोशी व लक्ष्मीदत्त शास्त्री आदि लोग प्रमुख थे. कुमाऊं परिषद के गठन के तीन साल बाद बद्रीदत्त पान्डे में 1919 में कलकत्ता ( अब कोलकाता ) जाकर महात्मा गांधी से भेंट की और कुली-बेगार आन्दोलन के बारे में उन्हें जानकारी देते हुए आन्दोलन के बारे में दिशा निर्देश प्राप्त किया. इसी दौरान 1919 में ही पूरे देश में रौलट एक्ट का विरोध किया जा रहा था, तब कुमाऊं परिषद से जुड़े लोगों ने भी पूरे कुमाऊं ( तब कुमाऊं कमिश्नरी के अन्तर्गत आज के पौड़ी, रुद्रप्रयाग व चमोली जिले भी आते थे, जो उस समय गढ़वाल जिला कहलाता था ) में रौलट एक्ट का विरोध किया था. इस विरोध को मुखर करने के लिए 6 अप्रैल 1919 को गोविन्द बल्लभ पंत ने चोरगलिया ( हल्द्वानी ) से काशीपुर तक एक जनजागरण यात्रा की. इस बीच गांधी जी गिरफ्तार कर लिए गए, जिसके बाद पूरे देश में आन्दोलन और तेज हो गया.
गांधी जी की गिरफ्तारी के विरोध में कुमाऊं परिषद के झण्डे तले एक विशाल रैली अल्मोड़ा में 14 अप्रैल 1919 को निकाली गई. रैली में लोगों की संख्या को देख कर अंग्रेज सरकार के होश उड़ गए. अंग्रेजों के खिलाफ लोगों की भावना किस तरह विद्रोह में बदल रही थी, इसका विस्फोटक रुप 14 जनवरी 1921 को बागेश्वर में मकर संक्रान्ति के दिन देखने को मिला, जब बद्रीदत्त पान्डे के नेतृत्व में सरयू के किनारे खड़े होकर हजारों लोगों ने “बेगार न करने” की शपथ ली और कुली बेगार से सम्बोधित दस्तावेजों को सरयू में बहा दिया.
इसके बाद कुमाऊं में स्वतंत्रता आन्दोलन ने और तेजी पकड़ी. इसके बाद 1926 में कुमाऊं परिषद का विधिवत कांग्रेस में विलय कर लिया गया. इसके बाद स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी दो बार कुमाऊं की यात्रा पर आये थे. उन्होंने अपनी पहली यात्रा 13 जून 1929 को बरेली से हल्द्वानी होते हुये की. वे कुमाऊं की यात्रा के लिए गुजरात के साबरमती आश्रम से 11 जून 1929 को चले थे. गांधी जी नैनीताल 14 जून 1929 को पहुँचे. जिसके बाद महात्मा गांधी ने 14 जून की दोपहर को नैनीताल में एक सभा को सम्बोधित किया. उनके आगमन पर पहली बार महिलायें जुलूस और सभा में शामिल हुई. गांधी जी स्थानीय लोगों से बेहद प्रभावित हुए. सभा के लिए मल्लीताल में डिप्टी कमिश्नर से अनुमति ली गई थी. सभा के व्यवस्था की जिम्मेदारी गोविन्द बल्लभ पन्त, गंगा दत्त मासीवाल, कुँवर आनन्द सिंह, बच्ची लाल, इन्द्र सिंह नयाल, भागुली देवी को दी गई थी. सभा के बाद पहली बार ब्रिटिश सरकार ने नैनीताल के माल रोड में राजनैतिक जुलूस निकालने की अनुमति दी.
स्थानीय लोगों ने उनका बहुत ही गर्मजोशी के साथ स्वागत किया था. इस दौरान गांधी जी लाला गोविंद लाल साह के ताकुल स्थित ” मोती भवन ” में रहे. गांधी जी के व्याख्यान से प्रभावित अनेक महिलाओं ने तब आजादी के आंदोलन के लिये अपने जेवर उतार कर उनके चरणों में रख दिये. स्वतंत्रता के लिये हर रोज तेज होते आंदोलन के कारण गांधी जी को कुमाऊं की यात्रा पर आते-आते लगभग 8 साल लग गये. ताकुला ( नैनीताल ) में गांधी जी ने महिलाओं को चरखा कातने के लिये प्रेरित ही नहीं किया बल्कि उन्हें चरखा चलाने का प्रशिक्षण भी दिया. गांधी जी ने लोगों में आजादी के आंदोलन के प्रति जाग्रति भी पैदा की. कस्तूरबा गांधी ने महिलाओं को विशेष रुप से सम्बोधित किया और उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता से भाग लेने के लिये प्रेरित भी किया.
महात्मा गांधी की जन जाग्रति के कारण स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी सक्रिय भूमिका अदा करने वाली महिला स्वतंत्रता सेनानियों में एक प्रमुख नाम बिशनी देवी साह का भी है. इनका जन्म 12 अक्टूबर 1902 को बागेश्वर में हुआ था और उन्होंने केवल कक्षा – चार तक ही पढ़ाई की थी. बहुत कम उम्र में ही उनके पति का निधन हो गया था. उस समय कम उम्र में ही पति को खो देने वाली महिलाओं को समाज के अनेक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता था. ऐसा भी कह सकते हैं कि उनका जीवन बहुत ही एकाकी हो जाता था. इसी वजह से कम उम्र में पति के निधन के बाद अनेक महिलाएँ संन्यास ले लेने को भी विवश होती थी, जिन्हें तब ” माई ” कहा जाता था. बिशनी देवी ने एकाकी जीवन यापन करने की बजाय स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय होने का निश्चय किया और वह 19 वर्ष की उम्र में ही स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद गई.
अल्मोड़ा
में रहने के कारण वे नंदा देवी मन्दिर में होने वाली बैठकों में जाने लगी और इसके
साथ ही स्वदेशी का प्रचार – प्रसार भी करने लगी. गांधी जी की
पहली कुमाऊं यात्रा के बाद महिलाओं में राजनैतिक चेतना का एक
अलग ही प्रस्फुटन हो चुका था. इसका एक महत्वपूर्ण
कारण कुमाऊं यात्रा में गांधी जी की पत्नी
कस्तूरबा गांधी का साथ
होना भी था. गांधी जी की सभा में
उन्हें सुनने वाली महिलाओं को लगा कि जब गांधी जी की पत्नी
कस्तूरबा देश की स्वतंत्रता के लिए अपने पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जनजागरण
के लिए देश के कोने-कोने में जा सकती हैं तो उन्हें भी घर से बाहर निकल कर स्वदेशी
का जनजागरण करना चाहिए.
स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ही 25 अक्टूबर 1930 को अल्मोड़ा के नगर पालिका में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का निर्णय किय गया. इसके लिए एक जलूस शहर में निकाला गया. जिसमें बड़ी संख्या में महिलाओं भी शामिल थी. इस जलूस को पुलिस ने बल पूर्वक रोक दिया. पुलिस द्वारा किए गए लाठीचार्ज में मोहनलाल जोशी व शान्ति त्रिवेदी गम्भीर रुप से घायल हो गए. इसके बाद भी जलूस में शामिल महिलाएँ घबराई नहीं और कुन्ती वर्मा, बिशनी देवी साह, मंगला देवी, भगीरथी देवी, जीवन्ती देवी, दुर्गा देवी पंत, तुलसी देवी रावत, भक्ति देवी त्रिवेदी, रेवती देवी आदि महिलाओं ने आगे बढ़कर जलूस का नेतृत्व किया. पुलिस द्वारा जलूस को रोके जाने और लाठीचार्ज की सूचना मिलने पर बद्रीदत्त पान्डे व देवीदत्त पंत भी अनेक लोगों के साथ घटना स्थल पर पहुँचे. जिससे जलूस का नेतृत्व कर रही महिलाओं के हौसले और भी बढ़ गए और वे नगर पालिका में झण्डारोहण करने में सफल रही.
स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ही बिशनी देवी साह को दिसम्बर 1930 में गिरफ्तार किया गया. जेल के कष्टपूर्ण जीवन को देख कर भी बिशनी देवी साह ने खुद को स्वतंत्रता आन्दोलन से अलग नहीं किया. जेल से रिहा होने के बाद वह स्वदेशी के प्रचार-प्रसार में लग गई. खादी के प्रचार के लिए उन्होंने पांच- पांच रुपए में चर्खा खरीदकर उसे घर-घर जाकर महिलाओं को बांटना शुरु किया और महिलाओं के समूह बनाकर चरखा चलाना सिखाया. वह अल्मोड़ा से बाहर निकलकर भी यह कार्य करने लगी. बागेश्वर में जब 2 फरवरी 1931 को महिलाओं ने स्वतंत्रता की मांग को लेकर जलूस निकाला तो बिशनी देवी साह ने उसके लिए अपनी ओर से आर्थिक मदद भी दी. वह स्वतंत्रता आन्दोलनकारियों के बीच संदेश लाने व ले जाने का काम भी करती थी. आन्दोलन के लिए आर्थिक स्रोत भी वह जुटाती थी.
स्वतंत्रता आन्दोलन में लगातार सक्रिय रहने के कारण बिशनी देवी साह को 7 जुलाई 1933 को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें 9 महीने की सजा होने के साथ ही 200 रुपए का जुर्माना भी किया. जो उस समय के हिसाब से बहुत बड़ी राशि थी. उनके पास जुर्माने की राशि अदा करने लायक रुपए नहीं थे, जिस वजह से उनकी कैद को बढ़ाकर एक साल कर दिया गया. पर स्वास्थ्य खराब होने पर उन्हें जल्दी ही रिहा कर दिया गया. मकर संक्रान्ति के अवसर पर जब 1934 में बागेश्वर में उत्तरायणी का मेला लगा तो अंग्रेज सररकार ने मेले में धारा-144 लगा दी. पर बिशनी देवी साह ने धारा-144 की परवाह न करते हुए मेला स्थल पर खादी की प्रदर्शनी लगाई.
कुमाऊं में स्वतंत्रता आन्दोलन अंग्रेज सरकार के दमन के बाद भी लगातार तेज हो रहा था. आन्दोलन को तेज करने के लिए ही 1934 में ही रानीखेत में हर गोविन्द पंत की अध्यक्षता में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की एक बैठक हुई. जिसमें बिशनी देवी को कार्यकारिणी में महिला सदस्य के तौर पर निर्वाचित किया गया. अल्मोड़ा के कांग्रेस भवन में 23 जुलाई 1935 को उन्होंने तिरंगा फहराया. तब कुमाऊं में जनजागरण के लिए पहुँची विजय लक्ष्मी पंडित ने भी बिशनी देवी साह की स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका की प्रशंसा की थी. उन्होंने 26 जनवरी 1940 को अल्मोड़ा में एक बार फिर से झण्डारोहण किया और 1940-41 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी भाग लिया. जब 1942 में कांग्रेस ने ” अंग्रेजो भारत छोड़ो” का नारा दिया और पूरा देश इससे आन्दोलित हो उठा तो बिशनी देवी साह ने भी अल्मोड़ा में इस आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी की. जब 15 अगस्त 1947 को देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ तो बिशनी देवी साह ने अल्मोड़ा में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के साथ निकाले गए विशाल जलूस का नेतृत्व किया.
स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने के बाद भी आजादी के बाद उन्हें वह महत्व नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था. जीवन के अंत दिनों में उन्हें बहुत आर्थिक संकट का भी सामना करना पड़ा. घोर आर्थिक संकट के बीच ही 1974 में उनका निधन हो गया. देश की आजादी के लिए बिशनी देवी साह जैसे स्वतंत्रता के जुनूनियों ने अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया, लेकिन आज कुछ स्वार्थी लोग ऐसे बलिदानियों के ऊपर ही सवाल करने से भी हिचकिचाते. देश एक बार फिर से वैचारिक संकट के दौर से गुजर रहा है.
जगमोहन रौतेला
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जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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