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हवाई पट्टी फैलेगी खेत सिमटेंगे अभयारण्य सिकुड़ेगा

राजाजी नेशनल पार्क के समीपवर्ती “थानो वन” अपनी समृद्ध जैव विविधता के लिए जाना जाता है. ऋषिकेश से ऊपर चढ़ें तो रानीचौरी के पहले से ही हाथी कोरिडोर शुरू हो जाता है. भांति-भांति के जानवरों से भरा इलाका है यह. वनसम्पदा में गहन और सघन. अब सेवा क्षेत्र के विस्तार, अवस्थापना के निर्माण और अंतर्संरचना के निर्माण में यह इलाका सिविल एविएशन के अधीन आएगा.
(Biodiversity in Uttarakhand Thano Forest)

जंगलों से भरी कंडी सड़क पर जी ऍम ओ यू की लारियों के सरपट भागने की ख़बरें भी चर्चा में हैं. ऐसी हर परियोजना किसी न किसी का ड्रीम प्रोजेक्ट होती हैं जो इलाके के विकास को ठेलती हैं. इन पर किया जाने वाला विनियोग ‘गुणक’ और ‘त्वरक’ प्रभाव उत्पन्न करता है जिनके फायदे सकल राष्ट्रीय उत्पाद को बढ़ाते हैं जो इस प्रगति के मार्ग में आड़े आते हैं उन्हें मुआवजे से नवाज़ा जाता है. एक के बदले दूसरी जमीन दे दी जाती है.अगर जंगल कटें तो नई पौध रोपी जाती है किसी और जगह पर. एनवायरनमेंट सेंसटिविटी की गहरी पड़ताल होती है. कई कमेटियाँ बनाई जातीं हैं. पुराना शहर जलमग्न कर उसकी बिजली से नये शहर के बिजली के लट्टू जलते है. शहरीकरण की यही प्रक्रिया है. अंतर्संरचना ऐसे ही बनती है. आने जाने में कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए. बिजली के लिए बांध भी बनने हैं हर ओर जगमग रहना है.वहां दौड़भाग की रेलमपेल बनी रहे. खेतिहर ‘दो बीघा जमीन’ को छोड़ ‘शहर और सपना’ में कभी थकेंगे, पसीना पोछेंगे, खून सुखाएंगे, कुछ भी ढो लेंगे मजदूर बन लेंगे. आखिर वो उस शहर की धमनी हैं जिनमें बहता अशुद्ध रक्त उसी सिस्टम में रिफाइंड करने के पूरे तामझाम होते हैं.

ये प्रवासी अपने खून पसीने की कमाई से गाँव में अपने बंजर खेतों में हरियाली के अरमान पालते हैं. दरकते परिवार और पालतू जानवरों का सहारा बने रहते हैं.अक्सर इनकी जमीन पर कब्जे होते हैं कभी निर्माण के नाम पर कभी उद्योग अवस्थापना के लिए और कभी खनिज की मौजूदगी में.

अब आती है बात इसी धरती पर वास कर रहे जानवरों की. तो जब-जब जंगल सिमटता है और आदमी की पदचाप बढ़ती है तो पशु-पक्षी सिकुड़ते इलाके में ही सिमट लेने का जतन करते हैं. फिर उनका नैसर्गिक भोजन कम पड़ने लगता है. भूख से व्याकुल हो वह कभी कभी और अक्सर आदमी की आबादी के बीच भी आते हैं. घात लगा कर हमलावर भी बनते हैं. ये ऐसा सिलसिला है जिसके पीछे ससटेंड डेवलपमेंट की रणनीतियों की बैकवर्ड लिंकेज काम करती हैं. जानवरों के घात लगा कर हमला करने से दहशत पैदा होती है. गाँव में लोग शाम से ही घर में दुबक जाते हैं. फिर शिकारी टोह लेते हैं. कुछ आदमखोर गोलियों का निशाना बनते हैं. तो बाकी उसी रफ़्तार से फसल उजाड़ते रहते हैं. उनके लिए जंगल में कुछ बचा ही नहीं तो आबादी की तरफ आना ही होगा उन्हें. ये जंगल अवलम्बन इलाका है जहां घास, पेड़, नाना वनस्पतियां और पशु पक्षी हैं इसके नीचे बसासत है जहां लोग रहते हैं. जहां जिस जमीन में वह रहते हैं, जहां उनकी जमीन है उसकी एक धारक क्षमता है. जब यह क्षमता किसी भी कारण से कमजोर कर दी जाती है तो समूचे परिवेश में उथल पुथल होती है. असंतुलित विकास के प्रयास की बड़ी गड़बड़ी. बड़े धक्के के विनियोग का असमंजस.

बरसों पहले की बात है जब पिथौरागढ़ सोर घाटी के नैनी-सैनी सेरे में धान की फसल लहलहाती थी. बढ़िया सिंचित जमीन, चौरस पट्टी. इसमें तब बांजा पड़ गया जब ये तय हुआ कि इतनी दूर तक फैली जमीन पर तो हवाई जहाज उतर सकता है.आस-पास के पहाड़ भी संकरे नहीं. बस खुला आसमां साफ दीखता है. खेती की ये जमीन पहाड़ के किसानों की थी. इन परिवारों का जीवन निर्वाह कृषि, साग सब्जी, मसाले उगा लेने के साथ पशु पालन था. जिसके बूते वो कब से अपने बाल बच्चों को बेहतर पढ़ाई लिखाई के अपने परिवार को पालने पोसना के हर जतन कर रहे थे. इनकी राठ में सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द के सिपाही भी थे. तो कई ब्रिटिश फ़ौज का हिस्सा भी थे. स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन की कहानियाँ भी कई घरों के बुजुर्गों की आपबीती थी. मिलिट्री और पैरा मिलिट्री फ़ोर्स में भी काफी तादात थी. तब का पहाड़ मनी आर्डर इकॉनमी का मॉडल था.

फिर नैनी सैनी के इन खेतों पर हवाई पट्टी की नज़र लगी. लम्बे समय तक बातचीत, प्रलोभन दबाव, विकास की सुनहरी सोच का प्रलोभन, पूरी सोर घाटी का कायाकल्प. यहाँ के बाशिदों ने अपने खेतों का मुआवजा भले ही जेब में डाला पर ये अफ़सोस आज भी धुंधली पड़ रही आँखों में साफ झलकता है कि क्या करते? कितना विरोध किया कि बाप दादा की जमीन हवाई पट्टी बनाने के लिए नहीं देंगे. अड़े भी रहे. अखबार में भी लगातार खबर बनी. हो हल्ला भी मचा. स्कूल कॉलेज के लड़कों ने भी कई बार आवाज उठाई. प्रशासन तक पहुंचे उनसे विनती की. गुस्सा भी दिखाया. पर कौन सुने.

कोई अनूप पांडे होते थे तब डीएम. उन्होंने तो दिमाग मून दिए सबके. वैसे भी मुलायम सिंह का राज था. पता नहीं ऐसी क्या-क्या तिकड़म चलाई इन लोगों ने कि सब चुप्पे हो गए.

और एक दिन इसी नैनी सैनी में खूब बड़ा पंडाल लगा. वंदना गायी स्कूली बच्चों ने. बड़ों ने झोड़ा चांचरी पर कदम चलाये. नाच गाने हुए. कुछ अफसर अँग्रेजी भी झाड़ गए और इनके बीच मुख्यमंत्री अपनी तोतली लटपटी जुबान से हवाई जहाज के आने के पता नहीं क्या-क्या फायदे गिना गए. ये जो हो जाएगा वो जो हो जाएगा. अब कहाँ इन खेतों में साल भर की दो फसल. अब तो घेरबाड़ चारदीवारी हुई. सब देखते रहे कब आएगा उड़न खटोला. कब सोर के भाग जगेंगे. पर कहाँ, थोड़ा काम शुरू हुआ कि पता चला ये हवा पट्टी तो छोटी पड़ रही. इसपर भौत ही छोटा जहाज आएगा सो अब अगल बगल की और जमीन पर कब्ज़ा होगा. और जमीन घेरी जाएगी. फिर वही चक्कर शुरू. जितना कहो जमीन नहीं देंगे उतनी बड़ी गुड़ की डली. कई चाहते भी थे कि रकम ज्यादा मिले तो शहर में मकान डाल दें.गेहूं चावल तो सरकार राशन कार्ड में सस्ता दे ही रही. फिर ये हवा पट्टी बनने से बाकी रहे बचे नैनी सैनी, देवल, देवल समेत का क्या भला होना होगा? फैलेगा तो शहर. तो जमीन फिर ली गई, फिर ली गई. हां हो हवाई जहाज भी तब आया जब आकाश तकते सालों गुजर गए. कभी कंपनी ने काम बंद किया कभी किसी विभाग की अनुमति प्रतीक्षा में रही.आसमां को एयरोप्लेन आने की इंतजारी रही. 

पंतनगर विश्वविद्यालय की खुली जमीन जिसने हरित क्रांति के उपजाने में उत्प्रेरक की भूमिका निबाही थी, भी विकास के अगले चरण में फर्म फैक्ट्री से घिर गई. शहरीकरण की आंधी में असंतुलित विकास ऐसी ही कहानियाँ सुनाता है जिसमें तनाव दबाव और कसाव होते हैं. कृषि भूमि सिमटती है, फ़्लोरा फोना विलुप्त होते हैं.नये कल कारखाने लगते हैं.

अब देहरादून के जॉली ग्रांट हवाई अड्डे के विस्तार की बारी है. इस फैलाव के लिए जो इलाका चुना गया है उसमें खेत-खलिहान, खत्तों, पेड़ों, वनों और घास-झाड़ी-लता-बेलों के आसरे अनगिनत पशु पक्षियों का वास है. तकनीकी जानकार और पर्यावरणविद इसे जैव विविधता कहते हैं. इसे बनाये बचाये रखने के नियम कानून खेल और प्रपंच हैं. रणनीतियाँ बुनी जातीं हैं.
(Biodiversity in Uttarakhand Thano Forest)

जानकार कहने लगे हैं कि अगर इस वन में हवाई पट्टी फैली तो इस इलाके की रही बची जैव विविधता खत्म हो जाएगी. कितनी ही प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी. जंगल के साथ पशु -पक्षियों का मेल विनिष्ट हो जाएगा.आखिरकार यह हाथी कोरिडोर है. टस्कर हाथी है यहाँ. निर्द्वन्द एक बड़े इलाके में सपरिवार भ्रमण करता है. पर सरकार बहादुर की सोच साफ है कि इस जंगल में वह एक काटे पेड़ की जगह तीन पेड़ लगाएगी.

पहले किए वृक्षारोपण की सफलता दर का लेखजोखा रखने वाली नज़रें यह पातीं हैं कि अब जो ये नया वृक्षारोपण होगा, तमाम गड्डे खुदने, बाड़ लगाने खाद डालने पानी की व्यवस्था व तमाम ताम झाम के बावजूद सफलता की न्यूनतम दर तक ही सिमट जाता है. बरसों से पनप रहे जो धूरे थे लता बेल झाड़ी पेड़ का मेल था वो तो सिरे से गायब हो जाता है. फिर पेड़ पौंधों की अपनी धीमी वृद्धि प्रक्रिया है ये जब बढ़ेंगे तब तक जो काट दिए गए उनसे जुड़े संगी साथियों के ठौर ठिकाने तो उजड़ ही जायेंगे. इसे ही कहते हैं धरती का बाँझ होना.

हवाई पट्टी के विस्तार की योजना के दो भाग हैं. पहला तो यह कि अभी जो वर्तमान रनवे है उसे लगभग छै सौ मीटर आगे तक विस्तार दिया जाए और साथ ही विद्यमान रनवे में वांछित अतिरिक्त अंतर्संरचना का निर्माण किया जाए जिनकी प्रकृति निश्चय ही पूंजी गहन होगी.साथ ही यह भी सोचा जा रहा है कि जहां अभी एयर पोर्ट की बिल्डिंग व अन्य तामझाम है वहीं वन क्षेत्र के दूसरी ओर एक नये विशाल भवन व अन्य एंसिलरी को स्थापित करने की योजना बनाई जाए.

जॉली ग्रांट हवाई पट्टी के लिए नियत जो इलाका है वह सघन वन से समृद्ध भूमि पर है. इस पर दस हज़ार से ज्यादा पेड़ लहलहाते हैं जिनकी बरसों से फैलती जड़ें राजाजी वन को अभयारण्य का नाम देतीं हैं जहां हाथी हैं, नील गाय हैं, जड़यों हैं, चीतल हैं, गुनी वानर हैं. तो मौन भी तितली भी, किसम-किसम की चिड़िया भी, अजगर सर्प भी. पूरा कुनबा बसा है यहाँ.

 जैव विविधता की नीतियों के हिसाब से प्रस्तावित रनवे के विस्तार की योजना असमंजस ही उत्पन्न करेगी. वन उजाड़े तो यहाँ का समूचा तंत्र ही पलट जाएगा. इसे रोकने का एक ही प्रभावी तरीका है कि अतिरिक्त रनवे के फैलाव की महत्वाकांक्षा से मुक्त रहा जाए.

राजाजी अभयारण्य में थानो वन इलाके की इस जमीन पर पहले भी टिहरी बांध के विस्थापित बसाये गए उन्हें यहाँ मुआवजे में जमीन आवंटित की गई. सरकार अब यह बिलकुल नहीं चाहती कि उन्हें फिर से इस इलाके से बेदखल कर कहीं और ठौर देने की योजना बने. इसके माने नीति नियंता यहाँ बस गए नागरिकों की हित चिंता करने का सुयश बटोरेंगें. बस पेड़ कटे तो वह एक के बदले तीन लगा देंगे. बाकी बची जैव विविधता तो उसकी ज्यादा परवाह करना व्यर्थ ही है.

1972 के प्राणी सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत कुल जमा एक सौ तेत्तीस जीव प्रजातियां दुर्लभ घोषित की जा चुकी हैं. ये जो दुर्लभ हैं इनमें सत्तर स्तनपाइयों, बाईस सरी श्रप, तीन उभयचर और एकचालीस पक्षी प्रजातियों का लेखा जोखा सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज है. पर्यावरण शास्त्री ये भी बता चुके हैं कि ये सभी दुर्लभ प्रजातियां अब क्षेत्र विशेष यानी स्थानिक इलाके में ही सिमट रहीं हैं. इनके रहे बचे होने व इन पर समुचित प्यार दुलार करने के लिए कुछ प्रबल प्रयास हुए हैं. टाइगर प्रोजेक्ट बने हैं, अभय अरण्य बनाये गए हैं. पक्षी विहार बने हैं, गिद्ध प्रजनन केंद्र हैं, कस्तूरा मृग विहार हैं, काला हिरण प्रजनन केंद्र हैं तो हाथी कोरिडोर भी.जैव संरक्षित क्षेत्र भी बनाये गए हैं.तब से अब तक कितने विकास के काम हुए हैं.प्लानिंग कमीशन की जगह नीति आयोग ने जिम्मेदारी संभाली है.

 जैव विविधता संरक्षण कार्य परियोजनाओं और उस पर किए सरकारी और गैर सरकारी खर्च के पुलिंदे काफी भारी हैं. देश में अड़सठ से ज्यादा तो राष्ट्रीय उद्यान हैं. पचीस हज़ार से ज्यादा तो परियोजनाएं ही चल रहीं. तीन सौ सत्तर के आसपास अभ्यारण बना दिए हैं. ग्यारह बारह तो हाथी परियोजनाएं ही हैं.
(Biodiversity in Uttarakhand Thano Forest)

हाथी निर्द्वन्द घंटों खुली सड़क हाईवे पे रस्ता जाम कर देते हैं. बाघ घर में घुस गला च्याँपने लगे हैं. भरी आबादी में लोगों के घर में सबसे ज्यादा विष छोड़ने वाले सर्प घुस रहे. अजगर सरे आम मृग को निगल रहा. भालू पीछा कर रहे जिसे पहाड़ में ख्यात पड़ना कहते हैं.अब सुवर, साही, स्यार, गीदड़ के खेत उजाड़ने और गुण, बानर के टी.वी. केबल में झूला झूलने के किस्से आउट डेटेड हो गए हैं.

जैव संरक्षित इलाकों में अब निकोबार, नामदाफा, मानस, काजीरंगा, सिगलीपाल, नीलगिरी, कच्छ का रण, मन्नर की खाड़, कान्हा, नौकटेक, सुन्दरवन, व्यार का रेगिस्तान और नंदादेवी उत्तराखंड भी शामिल है.

जैव विविधता को संरक्षण व सम्मान देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने अपने-अपने राजकीय फूल, पेड़, पशु और पक्षी भी घोषित किए हुए हैं.इसी उत्तराखंड में ब्रह्मकमल का फूल, बुरांश का पेड़, कस्तूरी मृग जैसा पशु और मोनाल जैसा पक्षी राजकीय घोषित है.सीमांत इलाके में नेपाल बॉर्डर पर मोनाल के झुण्ड खूब दिखाई देते हैं. बहुत ही सुन्दर फोटोजेनिक.उन्हें खींचने में खासी भागदौड़ धैर्य व प्रतीक्षा करनी पड़ती है. ऐसे ही एक मौके पर आस पास घिर आए मुस्तण्डों में एक बोला, भारु नोट यानी भारतीय रूपया दो, हम पकड़ देते हैं मुनाल इसका मीट खाओ.भौते गरम होता स्वाद तो ऐसा की झटका, कुकड़ू सब भूल जाओगे. कस्तूरी मृगों के दुबले बदन धरम घर के मृग विहार में देखे जा सकते हैं जहां एक दशक पहले ये काफी मोटे ताजे थे और बहुत थे.

अस्कोट में गाँव वाले अभ्यारण से खार खाये झींक रहे थे. ये रिज़र्व क्या बना रस्ते बाटे ही बंद हो गए. ये न होता तो और कितने मकान दुकान दर बनते. सब चौपट कर गई ये घेराबंदी.

वहीं नीचे गोरी धौली और काली के जलागम के हिमशिखरों में अलग-अलग मौसमों में शिकारी पूरे लॉव लश्कर के साथ निकल पड़ते हैं आखेट को, कहीं भालू की पित्ती है. कहीं हिम तेंदुए की खाल है, कहीं कस्तूरी, वहीं यारसा गम्बू की खुदाई जिसकी आसमां चढ़ती कीमतें भयावह खूनी खेल और मिलीभगत से सम्पदा का दोहन कर मालामाल कर देती हैं. पोचिंग की तरह भेषज के खुदान ढुलान में बड़े आकाओं का कारटेल है. गलाकाट प्रतियोगिता हैं. इन सूरमाओं के आलीशान ड्राइंग रूम में पहाड़ के नामी फोटोग्राफरों के हिमालय टंगे हैं.
(Biodiversity in Uttarakhand Thano Forest)

ये जो जैव विविधता है और प्रकृति की रक्षा यानी पर्यावरण की सुरक्षा के साथ आदम जात, उसे बनाये बचाये रखने के जतन भी बड़े हैं. अख़बारों में काफी जगह घेरते हैं जब ऐसे ही किसी कार्यक्रम का उदघाटन माननीय कर रहे हों. सन्दर्भ के ग्रन्थ और किताबें भारी कीमत और विदेश में हुई छपाई के आकर्षक रंगों में छपती हैं. कई सितारा होटलों के साथ आकर्षक ऑडिटोरियम में बायो डाइवर्सिटी के सेमिनार और वर्क शॉप संपन्न होते हैं जिनमें विदेश से आए विद्वानों को अपने गाड़ गधेरों की दुख भरी दास्तान सुनाई जाती है. कई नामी गिरामी संस्थाएं इन हालातों की पूरी जानकारी हासिल करने के लिए ग्रांट देती हैं.

महाविद्यालय विश्व विद्यालयों और संस्थानों में ऐसे चतुर सुजान हैं जिन्हें पर्यावरण के मसलों में मदद हासिल करने की विशेष योग्यता होती है. आँचलिक संस्कृति के सोम- होम आयोजनों से वह संकट ग्रस्त प्रजातियों का उद्धार करने में समर्थ होते हैं. ऐसी गतिविधियां लगातार होती हैं जिनसे लोगों में, स्कूल के बच्चों में, कॉलेज यूनिवर्सिटी में जागरूकता बरकरार रहे कि जल प्रदूषण हुआ है इसलिए स्पर्श गंगा है इससे आगे गंगा सफाई अभियान है नर्मदा बचाओ है. 21 मार्च विश्व वानिकी के नाम है तो 22 अप्रैल पृथ्वी दिवस. विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून को मनाया जाता है तो 16 सितम्बर को विश्व ओजोन दिन.1 से 8 अक्टूबर वन्य प्राणी सुरक्षा सप्ताह और 5 अक्टूबर को विश्व प्राणी दिवस. 
(Biodiversity in Uttarakhand Thano Forest)

कुछ प्रतिक्रिया वादियों को खिलाफत में उच्च प्रतिमान भी मिलता है. वह अपने तल्ख़ तेवरों से पर्यावरण और विकास की कहानी में द्वन्द मचाये रखते हैं. कई जुनूनी सिद्ध महात्मा और सेवा निवृत अपने प्राणों की बाजी भी लगाते हैं. वन आंदोलन में गाँव के भोले भालों का चिपको क़यामत तक पहुँच फिर झपटो छीनो खिसको में बदल जाता है. मानव -प्राणी संघर्ष होते हैं. अनियोजित विकास की दुहाई दी जाती है. बढ़ती आबादी और आवास को असल खलनायक बना जैव विविधता की नई सोच का प्रसारण होता रहा है.कुछ ऐसे जुनूनी भी दिखते हैं जो अपने दम पर जंगल उगाते हैं. परंपरा से चले बीज बचाते हैं.
(Biodiversity in Uttarakhand Thano Forest)

जैव विविधता को बनाये बचाये रखने के प्रण आजादी के बाद 1952 में बनाये वन्य जीव बोर्ड के गठन से शुरू हो गए थे.1972 में वन्य प्राणी सुरक्षा अधिनियम बना जिसकी धारा -एक में दुर्लभ प्रजातियों की सूची प्रकाशित हुई. फिर जानवरों की घटती संख्या को वैश्विक महामारी की संज्ञा देते हुए इसे छटा महाविनाश कहा गया जिसका कारण बड़ी संख्या में जानवरों के भौगोलिक क्षेत्र के सिमटा दिए जाने और पारिस्थितिकी के तंत्र के बिगड़ जाने को माना गया.वैज्ञानिकों ने कहा कि दुनिया में एकचालीस हज़ार चार सौ पंद्रह पशु पक्षियों की प्रजातियों पर खतरा मंडरा रहा है. नये निर्माण से जुड़े विकास निर्णय ऐसे घातक श्रृंखला प्रभाव पैदा कर दे रहे हैं जिनकी लपेट में केवल जीव जगत की प्रजातियां ही नहीं बल्कि अनेक मानव प्रजातियां, सभ्यताएं संस्कृतियाँ और लोक थात उजड़ जा रही हैं.

अपना देश दुनिया के भू – भाग में मात्रा 2.4 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है पर दुनिया की सभी ज्ञात प्रजातियों में 7 से 8 प्रतिशत यहाँ उपलब्ध हैं. पेड़ पौंधे करीब पैंतालिस हज़ार तो जीव धारी नब्बे हज़ार से ज्यादा प्रकार के हैं. कृषि पंडित बताते हैं कि खेती में उपज बढ़ाने के लिए रसायनों उर्वरक व कीटनाशकों का प्रयोग इतना बढ़ा दिया गया है कि हर फसल उगाने काटने के दौर में पचास से ज्यादा कृषि प्रजातियां खत्म हो रहीं हैं.जिस रफ़्तार से पेड़ कटे हैं उसे देखते 2125 तक जलावन की लकड़ी भी समस्या पैदा करेगी. सड़क निर्माण में भी ग्रीन ट्रिब्यूनल के निर्णय उदासीनता दिखा ही रहे तो नवनिर्माण की राह में आई हर बाधा को सरकार हटाने पर तुली है.

देश में सबसे ज्यादा वन और जीव धारियों को संरक्षण देने वाले राज्य मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ हैं यहाँ इन इलाकों का दस प्रतिशत से अधिक उद्यानों और अरण्य हेतु सुरक्षित है. ये वन विंध्य -कैमूर पर्वत की अंतिम छोर यानी दमोह से सागर तक, मुरैना में चम्बल और कुंवारी नदियों की बीहडों से ले कर कूनो नदी की जंगल तक, शिवपुरी के पठारी इलाके, नर्मदा के दक्षिण में पूर्वी सीमा से ले कर पश्चिमी सीमा बस्तर तक फैले हुए हैं और यहाँ भी वन संरक्षण अधिनियम 1980 का खुला उल्लंघन हो रहा है.
(Biodiversity in Uttarakhand Thano Forest)

उत्तराखंड में चारधाम की आल वैदर रोड में पर्यावरण संहिता को ताक पर रखा गया. कोर्ट के भी निर्देश जारी हुए तो सामरिक महत्ता को वरीयता देनी पड़ी. प्रत्येक प्राणी का पारिस्थितिकी तंत्र इससे प्रभावित हुआ ही होगा जिसके खाद्य श्रृंखला से प्रत्यक्ष सम्बन्ध बने होते हैं. इस बात को 1907 में सर माइकल कीन ने महसूस कर लिया था. और जंगलों को प्राणी अभ्यारण्य बनाने पर विचार किया था जिसे सर जॉन हिबेट ने ख़ारिज कर दिया. फिर ई.आर. स्टेवांस ने 1916 में कालागढ़ के जंगल को अभ्यारण्य में बदल देने की बात की पर कमिश्नर विंडम ने प्रतिवाद कर दिया.1934 में गवर्नर सर मालकम हैली ने कालागढ़ के जंगल को कानूनी संरक्षण देते हुए राष्ट्रीय प्राणी उद्यान बनाये जाने की सिफारिश की. उन्होंने मेजर जिम कोर्बेट से सलाह मशविरा कर इसकी सीमाऐं तय कीं.

1935 में यूनाइटेड प्रोविन्स नेशनल पार्क एक्ट पारित हुआ. और कालागढ़ अभ्यारण्य देश का पहला राष्ट्रीय अभयारण्य था जिसका नाम ‘हैली नेशनल पार्क’रखा गया बाद में इसका नाम कोर्बेट नेशनल पार्क पड़ा.

कोर्बेट मानते थे कि आम आदमी जैव विविधता को समझता है. वह गाँव में रहने वाला जंगल और जानवर के साथ बना कर रहता है. जहां ये संतुलन भंग होता है वहां जानवर के हिंसक आदमखोर होने कि संभावना बढ़ जाती है.

यही बात 2006में उत्तराखंड के जैव विविधता बोर्ड में कही गई जो 2002 के जैव विविधता संरक्षण अधिनियम के अधीन गठित हुआ. इसमें ग्राम पंचायत स्तर पर वी.ऍम. सी यानी ग्राम जैव विविधता समितियों का गठन तो होना ही है साथ ही जनता के बीच बड़े पैमाने पर जागरूकता कार्यक्रमों का संचालन भी होना है. तब यह तय था कि आठ हज़ार ऐसी समितियों का गठन किया जाएगा. अब या तो किसी भी स्तर पर जैव विविधता के महत्व को सही मायने में समझा नहीं गया और या फिर इसके विलोप होने के खतरों को.
(Biodiversity in Uttarakhand Thano Forest)

तमाम पहाड़ी फसलों के परंपरागत बीज लुप्त हो गए सब्जी, मसाले हाइब्रिड हो गए और अब इन्हीं का चलन हो गया. खेती की जमीन सिकुड़ती गई.बसासतें बसने की भेड़चाल चलती रही. यह बात सिरे से समझ में नहीं आई कि यदि जीव विविधता है तभी खेती है, लघु और कुटीर उद्योग है. जिनका सिकुड़ते जाना ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बुरी तरह चौपट कर दे रहा है.

जमीन की धारक क्षमता इसके अवलम्बन क्षेत्र पर टिकी रहती है जहां जंगल है घास है पशु पक्षी हैं. ऐसी कोई भी गतिविधि जो मैक्रो स्तर के फायदे के लिए सूक्ष्म स्तर पर असमायोजन कर दे उससे कुछ निजी हित तो बने रहेंगे पर कई परम्पराओं के साथ जीव जंतुओं का भी विनाश होता रहेगा. हवाई पट्टी तो जरूर फैलेगी जो फिर कभी आयातित अनाज फल सब्जी के पैकेट भी आसमां से टपकायेगी. उड़न खटोले को देख बच्चे खुश हो नाचेंगे कि कितनी बड़ी चिड़िया उड़ रही है अब आसमां में.
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प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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इसे भी पढ़ें: उत्तरकाशी के जन संघर्षो का महानायक: कमला राम नौटियाल

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  • Really it's a great job. It's all a guideline to all other parts of India to save one's heritage. All the best.

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