मेरे बचपन की सुनहरी यादों में से कई गर्मियों के सालाना प्रवास से जुड़ी हैं. उन दिनों सभी प्रवासियों के लिए गर्मियों की छुट्टियों में अपने परिवार को गाँव भेजा जाना जरूरी हुआ करता था. पुश्तैनी घरों और उनमें रह रहे बुजुर्गों तथा उनके साथ रह रहे ‘कम सफल’ परिजनों की वैसी कुकुरगत नहीं हुई थी जैसी की आज है. सो सफल शहरी अपने परिवार को लम्बी छुट्टियों में गाँव भेज दिया करते थे. इस स्वस्थ परम्परा से बच्चे अपनी जड़ों से जुड़े रहते और इस दौरान मिलने वाला अनुभव उनके भीतर लोक की समझ भी पैदा करता. मुझे भी इन मौसमी प्रवासों से बहुत सीखने को मिला. इन्हीं सबकों में एक था सिसूण से परिचय. सिसूण से हर पहाड़ी बच्चे की तरह मेरा पहला परिचय भी खौफ के पर्याय के रूप में ही हुआ. गाँव में चाचा-ताऊ समेत सभी परिजन इस दौरान इकट्ठा हो गए बच्चों की गैंग के उत्पात से निपटने के लिए सिसूण की झपाक लगाने की धमकी दिया करते थे. इस दौरान गाँव के निर्मम अभिभावकों को इसके सफल प्रयोग करते देखने का मौका भी मिल जाता था. धमकी मिलते ही इस टार्चर से पीड़ित बच्चे की सीत्कार, चीत्कार और भयाक्रांत चेहरे सभी की आँखों के आगे घूम जाते और चिल्लर गैंग तात्कालिक तौर पर काबू हो जाया करता था.
सिसूण से दूसरा परिचय असावधानीवश इसकी चपेट में आ जाने से ही हुआ, पहले और दूसरे अनुभव के बीच भी गहरा सम्बन्ध बन जाना लाजमी था.
सिसूण से मेरा तीसरा परिचय तब हुआ जब एक दिन चाची ने मौसम के ज्यादा ठंडे होने का हवाला देकर इसका साग बनाने की घोषणा करने के साथ ही इसे इकट्ठा करने में मेरा योगदान भी चाहा. हॉरर फिल्मों से भी ज्यादा डरावने इस झाड़ की सब्जी बनाने मात्र के विचार से सभी बच्चे भयाक्रांत हो गये. मेरा भय बहुत ज्यादा इसलिए था कि मुझे इसको बटोरे जाने की प्रक्रिया का भी हिस्सा बनाया जा रहा थी. खैर, मुझे चाची के साथ होना पड़ा. चाची इसकी झाड़ी की ऊपरी नयी और मुलायम कोंपलें चिमटे से तोड़कर मुझे थमाई गयी एक टोकरी में भरती रहीं. इस दौरान वहां से गुजरने वाले हर शख्स ने इस बाबत चाची से संवाद भी किया और हर बार मैं शर्मिंदा महसूस करता रहा कि वह शख्स हमारे इस बेशर्म झाड़ की सब्जी जाने के विचार का मन ही मन कितना उपहास बना रहा होगा. मैं इस बुरे अनुभव से नहीं गुजरना चाहता था, सो इस दौरान चाची से मैं जानकारी भी लेता रहा. उन्होंने आश्वस्त किया कि उबलने के बाद इसके रोंये घुल जायेंगे और नुकसान नहीं करेंगे. उन्होंने यह भी बताया कि जाड़ों में इसे खाना फायदेमंद है. उनसे बातचीत में मुझे सिसूण की किसी अन्य विशेषता की जानकारी नहीं मिली, शायद उन्हें इसका कोई ज्ञान भी नहीं था. पीढ़ियों से प्राप्त अनुभव से वह बस इतना जानती थीं कि यह जाड़ों में फायदेमंद है. कापा खाने से मुझे जलन का अनुभव भी हुआ, जिसका कारण दिमागी ही था. बहरहाल सभी को चाव से खाते देख मुझे भी इसके स्वाद का मुरीद होना पड़ा. उस दिन के बाद तो जब भी मुझे मौका मिलता मैं इसका कापा खाने की मांग करता और इस प्रक्रिया में होने वाले झंझट की वजह से ऐसे मौके कम ही बन पाते थे.
सिसूण से मेरा अगला परिचय तब हुआ जब मैं थोड़ा बहुत इधर-उधर का भी पढ़ने लगा. मुझे जानकारी हुई कि भय का प्रतीक यह पौंधा बहुत गुणकारी भी है और ऐसा मानने वाले अमेरिका व यूरोप तक में हैं.
उत्तराखण्ड के कुमाऊँ में सिसूण, गढ़वाली में कनाली या कंडाली नाम से जाना जाने वाला यह पौधा दुनिया में बिच्छू घास, स्टीनगींग नेटल, कॉमन नेटल और नेटल नामों से जाना जाता है. इसका वानस्पतिक नाम अर्टिका डाईओका है, यह अर्टिका प्रजाति के 205 पौधों में से एक है. गर्म तासीर वाला यह पौधा विटामिन, मिनरल, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, सोडियम, कैल्शियम, आयरन और मैगनीज की खान है. इसमें इतनी तरह के विटामिन पाए जाते हैं कि इसे मल्टीविटामिन युक्त भी कहा जाता है. इसके रोयेनुमा काँटों में मौजूद हिस्टामीन नामक तत्व की वजह से इसके शरीर में छूने पर जलन हो जाया करती है. उबलने पर इसका यह तत्व जाता रहता है लिहाजा इसका साग हमें किसी किस्म का नुकसान नहीं पहुंचाता है. भारत के साथ ही अन्य देशों के हिमालयी क्षेत्रों में इसे खाया जाता है. उत्तरी अमेरिका, यूरोप और अफ्रीका में भी इसे किसी न किसी रूप में खाया जाता है. विदेशों में तो नेटल सूप ख़ासा लोकप्रिय है.
इस खौफनाक झाड़ी को इसके औषधीय गुणों के कारण भी जाना जाता है. शरीर में सूजन आ जाने पर इसकी सूजन वाली जगह में इसकी झपाक लगा देने से सूजन जाती रहती है. इसके अलावा यह पित्त दोष और शरीर की जकड़न में भी कारगर है. इसके बीज खा लेने से पेट साफ़ होता है और इसका साग पीलिया में काफी फायदा पहुंचाता है. यही नहीं सिसूण मलेरिया की बीमारी से लड़ने में भी सक्षम है. बुखार में कमी लाने के इसके गुणों की वजह से आयुर्वेद में इसे पैरासिटामौल से भी ज्यादा उपयोगी बताया गया है. इससे बुखार की दवा बनाने के लिए कई तरह के अध्ययन और प्रयोग इस समय चल रहे हैं. इस पौधे के इतने ज्यादा औषधीय गुणों के चर्चा ही कि उन्हें बताने पर लगेगा कि बात बढ़ा-चढ़ाकर कही जा रही है.
दुर्भाग्य से आज पहाड़ों में तिरस्कृत रहने वाला सिसूण विदेशों में काफी गुणकारी माना जाता है. इस पौधे के चिकित्सकीय गुणों के देखते हुए विदेशों में इसके रेशों से बने कपड़ों तक की भी भारी मांग है. उत्तराखण्ड के कई नए स्टार्टअप इसके रेशों से बने जैकेट, साड़ी, शाल, स्टोल, स्कार्फ और बैगों का निर्यात कर रहे हैं. हाल ही में अल्मोड़ा के चितई के पंत गाँव से सिसूण की बनी चाय निर्यात करने की खबर ने अख़बारों में सुर्खिया बटोरी हैं. इस चाय के 50 ग्राम के पैकेट के विदेशों में 120 रुपये तक मिल जा रहे हैं.
इससे बुरा क्या हो सकता है कि सिसूण का पहाड़ के खान-पान में अब वह दर्जा नहीं रहा जैसा की पिछली पीढ़ियों के दौर में हुआ करता था. अब इसे गरीबों का भोजन मानकर हिकारत से देखा जाता है. हमारी कई लुप्त होती जा रही भोजन परम्पराओं में से एक सिसूण से बनाये जाने वाले व्यंजन भी है.
–सुधीर कुमार
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