साल 1964 का जुलाई का महीना रहा होगा, जब भवाली के गोबिन्द बल्लभ पन्त हायर सेकेन्डरी स्कूल में दर्जा 6 में दाखिला लिया और शुरू हुआ भवाली से नजदीक से रूबरू होने का सिलसिला. यों हमारा मुख्य बाजार भवाली ही हुआ करता, लेकिन उस वक्त विशेष रूप से बाल कटवाने के बहाने महीने-दो महीने में छुटपन में भवाली आने का मौका मिलता अथवा रामलीला के मौके पर अपने गांव से रामलीला देखने रात को ही भवाली पहुंचते, उत्सुकता से स्ट्रीट लाइट की दूधियां ट्यूब लाइटों व टिमटिमाते बिजली के बल्बों का दीदार करते और रात में ही रामलीला देखकर घर को वापस निकल पड़ते.
(Bhowali After Independence)
बताते चलें कि भवाली में विद्युत आपूर्ति सन् 1954 में हुई, तभी बनबसा से आने वाली हाईटेंशन लाइन पहाड़ों की ओर खींची गयी. भवाली हमारे गांव कैंची से 5 मील (8किमी) की दूरी पर था. 10 वर्ष की उम्र में 8 किमी आना व इतना ही वापस लौटना, उसके बाद दिनभर स्कूल में इधर-उधर की दौड़ा-भागी, लेकिन कभी थकान का अनुभव ही नहीं होता था. लगभग डेढ़ घण्टे में हम यह सफर तय कर लेते और यदि कभी किसी ट्रक वाले ने लिफ्ट दे दी, तो एक घण्टे का बोनस समय हमें भवाली के बाजार घूमने अथवा चिल्ड्रन पार्क में खेलने को मिल जाता.
बाजार घूमना मतलब दुकानों को निहारना क्योंकि जेब खाली होने से खरीददारी का तो कोई सवाल ही नहीं बनता था. पैदल आने पर थकान की उतनी चिन्ता नहीं थी, जितना रास्ते में डाकरौली नामक स्थान पर दुर्गन्ध से गुजरने की. सड़क के जिस मोड़ से डाकरौली का गधेरा दिखता, जब तक दूसरी मोड़ पर जाकर वो ओझल नहीं हो जाता, इस सौ-डेढ़ सौ मीटर के टुकड़े को नाक को हाथ से ढककर तेज दौड़कर ही पार करना होता. पैदल ही नहीं वाहनों से आने पर भी भवाली शहर की इस सौगात से दो चार होना ही पड़ता. यह बदबूदार जगह भवाली कस्बे के मल निस्तारण का स्थान हुआ करता था, जिसे सफाइकर्मी बड़े ड्रम में हाथ गाड़ी में लाते और कच्ची मिट्टी में खोदे गढ्ढों में डम्प कर दिया जाता.
गर्मी व बरसात के दिनों में गड्ढों के बहने से बदबू चरम पर होती, कभी-कभी तो गड्ढों से मल बज-बजाकर बाहर बहने लगता. तब नोटिफाइड एरिया द्वारा संचालित भवाली में पॉट सिस्टम था, फ्लैश सीट तथा सोख्ते नहीं बने थे. कालान्तर में नये व पुराने भवनों में फ्लैश व्यवस्था व सोख्ता बना लिये जाने से मल ढोकर डाकरौली फैंकने पर तो विराम लगा लेकिन डाकरौली कूड़ा निस्तारण का स्थान बदस्तूर जारी रहा. पिछले वर्षों में शिप्रा कल्याण समिति के अध्यक्ष व समाजसेवी जगदीश नेगी के प्रयासों से यहां कूड़ा फैंकने पर रोक लगी.
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नोटिफाइड एरिया कमेटी भवाली की आय का एक मुख्य स्रोत नगर में प्रवेश करने वाले वाहनों से लिया जाने वाला टौल टैक्स हुआ करता. नगर के प्रवेश के मुख्य मार्ग रामगढ़ तथा भीमताल की ओर से प्रवेश करने पर लल्ली कब्र (जिसे अब लल्ली मन्दिर कहा जाने लगा है) के पास तथा हल्द्वानी और नैनीताल की ओर से कस्बे में प्रवेश करने वाले वाहनों से सेनेटोरियम के पास जब कि पहाड़ की ओर से आने वाले वाहनों पर टीकापुर चुंगी के पास टौल टैक्स वसूला जाता. यहां पर एकमात्र टीकाराम भट्ट जी का पुश्तैनी मकान होने से जगह का नाम टीकापुर पड़ा था, जो आज भी इसी नाम से जाना जाता है. टीकापुर टौल चैकी पर टोल वसूली का कार्य चैंबीसों घण्टे होता, कर्मचारियों की शिफ्टवाइज ड्यूटियां होती. हम टोल टैक्स कर्मियों से दोस्ती गांठने में कोई कसर नहीं छोड़ते, क्योंकि घर लौटते समय गाहे-बगाहे वे हमें किसी ट्रक आदि में लिफ्ट दिला देते. उस समय टोल में जो लोग बैठा करते उनमें त्रिलोचन जोशी, भीमसिंह बोरा, उदय प्रकाश कन्नौजिया जो ’बैन्टू’ उपनाम से ज्यादा चर्चित थे तथा नवीन चन्द्र जोशी का नाम मुझे याद है, दुर्भाग्य से पहले के तीन अब इस दुनियां में नहीं रहे. घर की तरफ से भवाली आने पर भी अगर किसी वाहन में लिफ्ट मिली तो हमें इसी चुंगी पोस्ट पर उतार दिया जाता.
श्मशान घाट के पास के मोड़ पर पहुंचते ही हमें अपने स्कूल जी.बी.पन्त हायर सेकेण्डरी स्कूल की घण्टी की आवाज साफ-साफ सुनाई देती. इस विद्यालय की स्थापना 1952 में की गयी थी और 1972 में इन्टर की मान्यता मिलने पर वर्ष 1974 में मुझे इन्टर के पहले बैच का छात्र होने का सौभाग्य मिला. स्कूल के चौकीदार जहां तक मुझे याद है खड़क सिंह और अम्बा दत्त थे, हम इस हुनर में माहिर थे कि घण्टी की आवाज से ही बजाने वाले शख्स को पहचान जाते कि घण्टी खड़क सिंह बजा रहे हैं या अम्बादत्त. कभी-कभी आवाज पहचानने में बाजी लगाने की नौबत आ जाती. पहली घण्टी 9.30 बजे टन-टन, टन-टन, टन-टन यानि दो ’बीट’ के बाद अल्पविराम जब कि दूसरी घण्टी 10 बजे बजती, जिसमें टन-टन-टन, टन-टन-टन, टन-टन-टन यानि तीन ’बीट’ के बाद अल्प विराम होता.
घड़ी तो छात्रों पास बहुत दूर की बात थी, चलते राहगीरों से टाइम पूछकर काम चला लिया करते. अंग्रेजी बोलने का ऐसा शौक था कि अगला भले अंग्रेजी से वाकिफ न हो हम कम से कम ’टाइम प्लीज ’ बोलकर अपनी तथाकथित भद्रता का अहसास तो करा ही देते. देर होने पर विद्यालय के मुख्य प्रवेश मार्ग से हटकर जंगल के बीच हमने शार्टकाट पगडण्डी बनायी थी, जो वक्त-बेवक्त हमें समय की बचत में राहत देती.
प्रधानाचार्य मोहन लाल वर्मा जी हुआ करते तथा उनके कुशल नेतृत्व में परिश्रमी अध्यापकों की पूरी टीम काम करती. प्रधानाचार्य का आवास विद्यालय के करीब ठीक सामने नाले के उस पार था. हमारा प्रधानाचार्य आवास पर वर्ष में तभी एक बार जाना होता जब नये सत्र के आरम्भ में फीस माफ की अर्जी उनसे स्वीकृत करानी होती अन्यथा अति गंभीर अनुशासनीनता पर ही प्रधानाचार्य कार्यालय में तलब किया जाता. प्रधानाचार्य वर्मा जी के पुत्र ओमप्रकाश ऊर्फ ’ओम्पी’ जो इसी विद्यालय का छात्र था, उससे दोस्ती गांठने की जुगत में हरेक छात्र रहता, ताकि दोस्ती के बूते प्रधानाचार्य आवास तक पहुंच बन सके.
उप-प्रधानाचार्य हीरा बल्लभ डालाकोटी की अनुशासन की तूती बोलती थी. के.सी.भट्ट, चन्दन सिंह बिष्ट, आचार्य घनानन्द शास्त्री, शिव लाल मास्साब, गोबिन्द बल्लभ भट्ट, डी.पी.साह पुराने शिक्षकों में थे. शिवलाल मास्साब का काष्ठकला का सैद्धान्तिक व प्रैक्टिकल का पीरियड तथा सदी लाल मास्साब का सामाजिक विषय का पीरियड सबसे ऊबाऊ लगता. ऐसा नहीं था कि वे ढंग से पढ़ाते न हों, बल्कि इन विषयों में अपनी रूचि नहीं थी. संस्कृत व हिन्दी ही मेरे प्रिय विषय हुआ करते.
आचार्य घनानन्द शास्त्री जी ने इन्टर कक्षाओं तक जो पढ़ाया, चाहे वह संस्कृत व्याकरण हो अथवा हिन्दी से संस्कृत में अनुवाद का शिक्षण, आज भी ताजा है. संस्कृत के गद्य एवं श्लोकों का अन्वय के साथ तोड़कर समझाने में उनका अध्यापन कौशल बेहतरीन था. बाद के वर्षों में एन.सी. मास्साब, श्याम सुन्दर गुर्रानी, एम. डी. जोशी , गुर्रानी मास्साब ,एन. एल. साह, ए.पी.साह, लक्ष्मण सिंह कड़ाकोटी आदि भी विद्यालय में आ चुके थे. कड़ाकोटी सर का हर वाक्य के साथ ’’महै’’ का तकिया कलाम, गोबिन्द बल्लभ भट्ट जी की दांतों को कीटते हुए पूरी ताकत से हथेली पर बेंत मारना, जिसके दर्द का अहसास बेंत पड़ने के बाद महसूस होता और हाथ सूज जाता, एन.एल.साह मास्साब का नागरिक शास्त्र के वादन में विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका को तीन अंगुलियों को खड़ा कर शक्तिपृथक्करण सिद्धान्त को समझाना भला कैसे भूल सकते हैं. लक्ष्मण सिंह कड़ाकोटी तो बाद में विद्यालय के प्रधानाचार्य भी कई वर्षों तक रहे.
विद्यालय भवन का लम्बा सा बरामदा प्रार्थना मंच हुआ करता तथा नीचे छोट मैदान में प्रार्थना सभा हुआ करती. कक्षा-कक्ष में छात्रों के प्रवेश से पूर्व परिचारक वर्ग डेस्क में ही बनी धातु की दवात, में नियमित रूप से रोशनाई डाला करते. शिक्षण के बीच कक्षा में जाकर सूचना पंजिका अक्सर चपरासी घुमाते रहते, लेकिन छुट्टी के रजिस्टर का बूंटेदार कवर अलग से पहचाना जाता और चपरासी के हाथ में बूंटेदार रजिस्टर देखकर छात्र मन ही मन खुश हो जाते. के.सी.भट्ट मास्साब तथा कुछ अन्य शिक्षक ऐसे थे, जो छुट्टी की सूचना आने पर पढ़ कर हस्ताक्षर करते और चपरासी को लौटा देते, शायद बीच में व्यवधान से अध्यापन का विषय तारतम्य गड़बड़ाये न, इस वजह से उस समय छात्रों को छुट्टी की सूचना नहीं देते तो छात्रों की बेकरारी बढ़ जाती और पीरियड की समाप्ति पर छुट्टी की खुशखबरी जब वे देते तो बांछें खिल जाती.
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प्रार्थनासभा में यदि शोक सभा होनी हो तो भावनात्मक रूप से अपरिपक्वतावश कई शरारती छात्र पीछे से खित्त की हंसी की आवाज निकालते तब भिन्न-भिन्न घ्वनियों में यह बेहूदी हरकत पूरी शोक सभा में उपस्थित छात्रों के बीच तेजी से महामारी की तरह फैलती और 2 मिनट के वे क्षण हंसी रोकने में मुश्किल साबित होते. यों तो छात्रों द्वारा शिक्षकों के सटीक नामकरण करने की परिपाटी तब भी थी, लेकिन तब बचपना था, आज उन गुरूजनों के प्रति उपहासात्मक शब्दों को दुहराना घृष्टता ही होगी.
शिक्षकों के अध्यापन का सम्प्रेक्षण इतना सशक्त था कि एक बार कक्षा में बताई गयी बातें परीक्षा तक याद रहती, बशर्ते की ध्यान कक्षा के बाहर न हों, अन्यथा कक्षा के अन्दर से दिखने वाली नैनीताल-हल्द्वानी रोड पर आती जाती गाड़ियों पर भी कभी ध्यान भटक जाता. कम से कम आठवें पीरियड में तो छुट्टी की घण्टे की प्रतीक्षा रहती, घण्टी बजती और छात्रों का रेला कच्ची पगडंडियों को फांदता इस कदर दौड़ पड़ता, मानो जेल से छूटे हों. जो ऐसे स्फूर्तिवान छात्रों से स्पर्घा नहीं कर पाते वे फील्ड से नीचे झांककर सबसे पहले पहुंचने वाले छात्र का जायजा वहीं खड़े खड़े ले लिया करते. पुल के पास नीचे सड़क पर पहुंचकर प्रतिस्पर्घा का यह सिलसिला खत्म होता.
साठ के दशक में ही दूध डेरी के पास बना पुराना ब्रिटिश कालीन पुल बरसात की भेंट चढ़ गया. च्यूंकि यह पुल पूरे पहाड़ को जोड़ने वाले नेशनल हाईवे पर था, इसलिए यातायात सुचारू करने हेतु एमईएस परिसर से शिप्रा नदी में उतरता हुआ, अस्थाई कच्चा मोटरमार्ग बनाया गया, जो कई महीनों तक चालू रहा. पुल के पास ही लालकुंवा सहकारी दुग्ध संघ का भवन साठ के ही दशक में बना तथा तत्कालीन उ.प्र. की मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी से इसका उद्घाटन किया. इसी के समीप कभी केमू स्टेशन के नाम से जाना जाने वाला प्रेम सिंह बिष्ट जी का बहुमंजिली भवन तब भवाली की शान हुआ करता था. प्रेम सिंह बिष्ट जी स्वयं बाल्मीकि बस्ती के दूसरी छोर पर स्थित अपने दूसरे घर में रहते थे, तब उनके आवास पर क्षेत्र के सिद्ध सन्त नानतिन महाराज भी कभी कभार रहा करते थे. वर्तमान बाल्मीकि मन्दिर तब अस्तित्व में नहीं था, लेकिन इसके ठीक नीचे प्राईमरी पाठशाला तब भी थी तथा उससे लगता हुआ आलू विकास केन्द्र का कार्यालय/गोदाम हुआ करता था.
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आज भी बाल्मीकि कालोनी की ओर नजर दौड़ाते ही कालोनी में रहने वाले श्यामलाल का स्मरण हो आता है. पेट के आगे बड़ा सा ढोल लटकाये, सिर में काली टोपी, माथे पर लम्बा-चैड़ा लाल तिलक, खाकी वर्दी, लम्बी रौंबीली मूछें, बड़ी-बड़ी आंखें, छः फुटा व्यक्ति जब भवाली चौराहे पर अवतरित होता तो कोई नई सूचना के ऐलान का बेसब्री से इन्तजार रहता. ढोल को तीन बार डण्डी से पीटते हुए दमदार आवाज में ’’सर्वसाधारण को सूचित किया जाता है’’ से उद्घोषणा करने वाला ये व्यक्ति होता था – टाउन एरिया कमेटी की ओर से मुनादी (डुगडुगी) पीटने वाला श्याम लाल. बच्चे सुनने के लिए चारों तरफ घेरा लगा लेते और ढोल की आवाज के बाद डुगडुगी के शब्दों को बाद में हूबहू दोहराने की मिमिक्री किया करते. बाद में श्याम लाल से श्यामा बाबा बने, इस शख्स की एक और पहचान बनी – वो थी, तंत्र विद्या के बल पर लोगों का भूत-भविष्य बताने की.
मां काली के उपासक श्यामा बाबा के दरबार में सदैव किसी भी तरह की परेशानी से त्रस्त लोगों का तांता लगा रहता. भूत-भविष्य जानने का तरीका भी उनका अजीबो-गरीब था. प्रश्नकर्ता से वह उसका गांव अथवा शहर का नाम पूछते और फिर उनके क्षेत्र से संबंधित श्मशान घाट की परालौकिक शक्तियों से सम्पर्क साधते और उन श्मशानी शक्तियों हुक्म देते कि अमुक नाम के व्यक्ति के घर जाकर पूरा हाल दें. ठीक वैसे ही जैसे टेलीफोन पर तांत्रिक का संबंधित परालौकिक शक्तियों के बीच लम्बा संवाद चलता, उपस्थित लोगों को तो केवल श्यामा बाबा के प्रश्न ही सुनाई देते, लेकिन उनके हाव-भाव से लगता कि दूसरी तरफ से भी बराबर उत्तर मिल रहा है. उनका यह संवाद उपस्थित जनसमुदाय के लिए कौतुहल का विषय रहता.
आज की भाषा में इसे श्यामा बाबा, पराशक्ति एवं आगन्तुक प्रश्नकर्ता के बीच टेली कान्फ्रेंसिंग कह सकते हैं. हालांकि इसमें प्रश्नकर्ता की पहुंच सामने बैठे श्यामा बाबा तक ही होती जो बीच-बीच में उससे पूछते फिर परालौकिक शक्ति से अन्य जानकारी हासिल करते रहते.
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सारी जानकारी परलौकिक शक्ति के माध्यम से हासिल करने के बाद वे प्रश्नकर्ता को उसकी घर की स्थिति, यहां तक की घर के कमरों की संख्या, कहां पर कौन सा पेड़ है़, घर का पूरा भौगोलिक विवरण आदि तथा परिवार में कौन-कौन सदस्य हैं, किसको क्या परेशानी है, आदि का हूबहू बखान उपस्थित प्रश्नकर्ता व श्रद्धालुओं के बीच कर देते. जिसे प्रश्नकर्ता शत-प्रतिशत सही बताते थे. फिर समस्या के निराकरण का रास्ता बताते, जिसमें विभूति, कुछ आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों के सेवन की सलाह तथा कभी श्मशान घाट की इन परालौकिक शक्तियों को खुश करने के लिए मुर्गा व शराब की भी मांग होती. लोग बताते कि श्यामा बाबा इसे अर्द्धरात्रि में श्मशानघाट में जाकर उन्हीं परालौकि शक्तियों (प्रेतात्माओं) को ये भेंट करने जाते हैं.
संभवतः नब्बे के दशक में श्यामा बाबा परलोक सिधार गये. अभी भी बाल्मीकि बस्ती के शुरूआत में मां काली का मन्दिर तथा उसके अन्दर श्यामा बाबा का आसन आदि विधिवत् लगा है तथा श्यामा बाबा की एक मात्र पुत्री श्रीमती ललिता उनके आवास पर रहती हैं तथा प्रातः सायं मां काली के मन्दिर तथा श्यामा बाबा के आसन में दीया-बाती करती हैं.
– भुवन चन्द्र पन्त
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
लछुली की ईजा – भुवन चन्द्र पन्त की कहानी
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