1875 ईस्वी में एक रूसी भारतविद इवान पाव्लोविच मिनायेव अल्मोड़ा आया जहाँ वह तीन महीने रहा. इन तीन महीनों में उसने कुमाऊनी भाषा सीखी और स्थानीय लोगों से यहाँ की लोक कथाएं और दन्त-कथाएं सुनी. 1876 में रूस लौटने के बाद उन्होंने उन कहानियों का रूसी अनुवाद प्रकाशित किया. Bhimsingh Narsingh and Harsingh Story
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में रूसी भाषा के पूर्व-अध्यक्ष डॉ. हेमचन्द्र पांडे 1968 में अपने शोध के दौरान जब मास्को गए तो उन्हें वहाँ के बुकस्टाल में ये किताब दिखाई दी. अपने इलाके का नाम देखकर कौतूहलवश उस किताब को वह भारत ले आये और उसका रूसी से हिंदी में अनुवाद किया. Bhimsingh Narsingh and Harsingh Story
किताब में हमारे इलाके के पैकों (पहलवानों) से जुड़ी बेहद रोमांचक कथाएं हैं. 1875 में लिखी ऐसी ही एक कहानी को प्रस्तुत है रूसी भाषा में लिखी गई इस कहानी का नाम है ‘भीमसिंह, नरसिंह, हरसिंह’. अनुवाद डॉ. हेमचन्द्र पांडे का है जो उनकी किताब ‘कुमाऊनी की लोककथाएं और दंतकथाएं’ से साभार ली गयी है.
चम्पावत में भीमसिंह, नरसिंह और हरसिंह नाम के तीन पहलवान रहते थे.
एक दिन भीमसिंह ने अपनी माँ से कहा – “ओ इजा! हमें अपने पुरखों का श्राद्ध करना चाहिए. हमने कभी किया ही नहीं है.”
माँ बोली – “बेटा! पंडित जी आ गए हैं. वह श्राद्ध करवाएंगे.”
भीमसिंह ने कहा – “ईजा, यह तो पंडित के वेश में दानू कुमेरा है.”
माँ ने बेटे की बात नहीं मानी. भीमसिंह दानू कुमेरा को स्नान करवाने ले गया. स्नान करवाकर वह दानू कुमेरा को घर वापस ले आया. तीनों महाबली श्राद्ध के लिए बैठ गए. दानू कुमेरा ने तीनों के हाथों में कुशा रखी और उनके ऊपर जाल डाल दिया. दानू कुमेरा ने भीम सिंह की ओर देखा और डर गया. उसने उसे भल्य के पेड़ का पत्ता लाने के लिए भेज दिया. जब भीमसिंह घर वापस लौटा तो पूरा घर खाली मिला. वह पालथी मारकर बैठ गया और कहने लगा – “मैं पेट भरकर खाऊँगा, पीऊंगा.”
भीमसिंह ने पेट भर भोजन किया. फिर बाहर आकर हाथ धोये और आगे निकल गया. रास्ते में उसे एक आदमी मिला.
“कहाँ जा रहे हो?” भीमसिंह ने उस व्यक्ति से पूछा.
उसने कहा – “कल दानू कुमेरा के वहाँ पनुवा पक्षी की बलि दी जा रही है. वहां भोजन मिल जाएगा इसलिए वहां जा रहा हूँ.”
भीमसिंह ने उसके हाथ-पांव काटकर उसके मुँह में ठूँस दिए और कहा – “रांड के बच्चे, ले खा.”
वहां से भीमसिंह आगे बढ़ा. रास्ते उसे मिला एक किसान.
“कहाँ जा रहे हो?” भीम सिंह ने उस किसान से पूछा.
“सुना है कल दानू कुमेरा के वहां पनुवा पक्षी की बलि दी जाने वाली है. वहां कुछ अंतड़ियाँ मिल जाएँगी. इसीलिए उधर जा रहा हूँ.”
भीमसिंह ने उसके भी हाथ-पांव काटकर उसके मुँह में ठूँस दिए और कहा, “रांड के बच्चे, ले खा पांव.”
वहां से भीमसिंह आगे बढ़ा. रास्ते में उसे मिला एक ढोली.
“कहाँ जा रहे हो?” भीमसिंह ने उस ढोली से पूछा.
“सुना है कि कल दानू कुमेरा के वहां पनुवा पक्षी की बलि दी जाने वाली है. इसलिए वहां जा रहा हूँ.”
भीमसिंह ने उसके भी हाथ-पांव काट दिए.
वहां से भीमसिंह आगे बढ़ा और एक बगीचे में पहुँचा. बगीचे में एक बुढ़िया फूल तोड़ रही थी.
“फूल क्यों तोड़ रही हो?” भीमसिंह ने उस बुढ़िया से पूछा.
बुढ़िया बोली, “आज दानू कुमेरा के वहां तीन पहलवानों (पैकों) की बलि दी जाने वाली है. उसी के वास्ते फूल चुन रही हूँ. इन फूलों को तोलकर चढ़ाया जाएगा. जो फूल सबसे भारी होगा उसे तांबे के बर्तन में आग के सामने रखा जाएगा.”
यह सुनकर भीम सिंह सबसे भारी फूल के अन्दर जाकर छिप गया.
बुढ़िया अपने फूलों को लेकर दानू कुमेरा के पास पहुंची. दानू कुमेरा ने फूलों को देवी पर चढ़ा दिया.
“दरवाजे बंद कर दो.” कहीं से आवाज सुनाई दी.
दानू कुमेरा ने दरवाजे बंद कर दिए.
“खिड़की से प्रसाद पकडाओ.”
दानू कुमेरा ने वैसा ही किया.
फूल में छिपे भीम सिंह ने सारा प्रसाद खा लिया.
फिर पानी मांगने की आवाज सुनाई दी. उस आवाज ने एक हजार घड़े (फौंले) पानी पिया और दो हजार घड़े वापस किए.
यह देखकर ने दानू कुमेरा ने अपने लोगों से कहा, “हमारी देवी के पास से नदी निकल पड़ी है. सब लोग उसमें स्नान कर लो.”
सब-के-सब नदी में स्नान करने लगे. तभी भीम सिंह को अचानक हिचकी आ गयी. दानू कुमेरा डर गया.
उसी समय भीम सिंह फूल के अन्दर से बाहर निकल आया. उसने सबको मार दिया और कैद हुए भाइयों को छुड़ाकर घर वापस ले आया.
–लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ की पुरानी फेसबुक पोस्ट से साभार
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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