रतखाल की दुकानों से लौटे हरकराम गुमसुम से बैठे हैं. वहाँ से आते वक्त ही पैर टूटने लगे थे. दो मील का सफर ही अंतहीन हो गया था, जबकि सारा रास्ता ढलान का था. चढ़ाई होती तो घर पहुँचना मुश्किल ही हो जाता.
(Bhavishy Story by Kshitij Sharma)
गाँव की सरहद में आकर पैरों में कुछ तेजी जरूर आ गई थी. अब वह घर पहुँचने की हड़बड़ाहट में था. एक तो दिन बिलकुल ही ढल गया था, अंधेरे के कारण कुछ स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था. दूसरे, वह किसी का सामना किए बगैर जल्दी से अपने घर में घुसना चाहता था.
अपने घर पहुँचने के लिए उसे मल्ली बाखली से हीत बाखली तक पूरा गाँव पार करना पड़ता है. ठाकुर-ब्राह्मणों के गाँव में वह अकेला लोहार है. इसलिए उसका घर गाँव के चार-पाँच खेत छोड़कर सबसे नीचे है. वहीं पर है उसका ऑफर (लोहार का वर्कशाप).
वह पूरे गाँव को पार करने की बजाय बगल से नीचे उतर गया और खेतों और भिड़ों (ऊपर-नीचे के खेतों के बीच की ऊँचाई) को लाँघता घर पहुंचा.
रतखाल की दुकानों में दो बातें एक साथ सुनाई पड़ गई थीं. जाते ही सुन लिया – घनकोट के उम्मेदी ने आज दोपहर में फाँस खा ली है. उसके दिल में तभी धक् हो गई थी. दूसरे, हयातसिंह ने उधार देने से साफ मना कर दिया था. वह भड़का हुआ था, “उधार देना मैंने आज से बंद कर दिया है. तुम लोगों पर अब मुझे भरोसा भी नहीं रहा. उम्मेदी साला मर गया, मैं किससे वसूल करूँ? तेरा भी क्या है, तू भी कल को मर जाएगा या अँगूठा दिखा देगा.”
हरकराम के पैर फिर अगली दुकानों की ओर नहीं बढ़ पाए थे. थोड़ी देर हयातसिंह की दुकान के आगे बैठा रहा. सोचता रहा. फिर लौट आया.
चालीस पूरे हो गए हैं उसे. बहुत छोटेपन की अब कुछ याद नहीं. पर होश सँभालने के बाद का काफी कुछ याद है. होश सँभालने का समय भी वह से निश्चित नहीं कर पाता है. दस-ग्यारह का रहा होगा. शायद बारह भी हो गए हों, क्योंकि माँ इसी के आसपास चल बसी थी और पिता की स्मृति में ऐसी कोई विशेष घटना याद नहीं रही थी, जिससे उसके जन्म का सही अनुमान मिल सकता. आज भी वह अपनी आयु का अनुमान माँ की मौत के दिनों से ही लगाता.
होश सँभालने का प्रमाण वह इस बात से दे सकता है कि माँ की मृत्यु के बाद उसे पिता के पुश्तैनी लोहार के काम में हाथ बँटाना पड़ा था. बल्कि लोहा पीटने के काम को छोड़कर सारा काम उसी के कंधों पर आ गया था. जंगल से चीड़ के पेड़ों की ‘बक्खल’ लाना, ऑफर की लिपाई-पुताई करना, भट्ठी को जलाना, एक हाथ से चर्खी घुमाना और दूसरे हाथ से चिमटे की सहायता से बारबार बिखर जाते कोयले के कणों को ठीक से तपते लोहे के ऊपर या आसपास रखना और साल में दो बार फसलों के समय पिता के साथ घर-घर जाकर काम के बदले मिलने वाले अनाज को इकट्ठा करना.
हरकराम के पिता के पास अपनी खेती नहीं थी. खेती ही क्या, उसके पास अपना कुछ नहीं था. जो दो-चार खेत वह जोत लेता है, वे भी मालिक लोगों ने अपना पुश्तैनी कारिंदा समझकर कमाने-खाने को दे रखे हैं. ऑफर की जगह गोपालसिंह प्रधान की है. यहाँ तक कि घर और ऑफर की छत में लगे सपाट पत्थर भी उसके नहीं हैं.
(Bhavishy Story by Kshitij Sharma)
अपने परिवार का पूरा इतिहास उसे नहीं मालूम. बस, इतना जानता है कि उसके पिता गिवाड़ या द्वाराहाट की तरफ से यहाँ आए थे. इस गाँव में एक लोहार की जरूरत थी, सो गोपालसिंह प्रधान के पिताजी ने उसके पिता को रख लिया था और ऑफर लगाने की जगह दे दी थी. धीरे-धीरे उन्होंने दो और गाँवों का काम भी संभाल लिया था.
लोग, कुदाल, दराँती, वसूली, कुल्हाड़ी और हल की फाल बनाने के लिए लोहा रख जाते थे या पुरानों को धार लगाने के लिए दे जाते थे. वे काम करने के बाद घर-घर लोगों का माल पहुँचा आते थे और फसल के समय अनाज इकट्ठा कर लाते थे.
बस, यही ऑफर उसका घर है और यही दो-तीन गाँव उसका संसार.
(Bhavishy Story by Kshitij Sharma)
आज भी उसकी नियति में कोई अंतर नहीं आया है. घर-बाहर सब जगह परिस्थितियाँ वैसी ही हैं. वही लोहा इकट्ठा करना, उसे पीटना और अंत में अनाज इकट्ठा कर परिवार की सुरक्षा का संतोष कर लेना, उसके पुरुखों की तरह उसके जीवन के साथ भी बँध गया है. लोहा पीटते, उसे एक खास शक्ल देते हुए उसने सोचा जरूर है कि उसके जीवन में भी मोड़ आना चाहिए – जीवन की शक्ल होनी चाहिए. पर, वह कर कुछ नहीं कर सका है, बस सोचता ही है. अब उसकी सोच का दायरा विस्तृत होने की बजाय पेट और तन के आसपास अटक गया है.
इधर उम्मेदी की मौत ने उसे बिलकुल हिला दिया है. जब से वह घर में घुसा है, किसी से बोला नहीं है. लोहारिन को भी उसने कुछ नहीं बताया. बस इतना ही कहा था कि तबियत ढीली है और दुकान में आजकल राशन नहीं था.
उसका ध्यान उम्मेदी पर ही टिका हुआ है. उम्मेदी का चेहरा बार-बार आँखों में तैर जाता है. उसको लटका हुआ तो हरकराम ने नहीं देखा था, कल्पना से अनुमान लगा लिया है कि क्या-क्या सोचकर वह घर से निकला होगा. कैसे पेड़ पर रस्सी बाँधकर लटक गया होगा. कितनी बड़ी विपत होगी उसे!
लोग चाहे कुछ भी कहें, हरकराम का मन नहीं मानता कि लोहारिन से झगड़ा होने पर उसने फाँस खाई होगी. दो ही दिन पहले मिला था. लड़की की ससुराल जा रहा था. हरकराम के पास एक चिलम तंबाकू पीने बैठ गया था. बड़ा परेशान था. रोनी-सी सूरत लिए कह रहा था – अब नहीं होती. दाज्यू दरगुजर. कैसे कटेंगे अब दिन!
यही दु:ख खा गया उसे. ठीक कह रहा था उम्मेदी.
जिनकी लंबी-चौड़ी खेती है, उन तक का गुजारा नहीं हो रहा. हर घर में से एक-दो परदेश में बसे हैं, तब बाल-बच्चे पल रहे हैं. इन माँगे हुए दो खेतों से हमारा क्या होगा?
जो लोग काम के बदले अनाज देते हैं, उनमें भी पहलेवाली बात नहीं रही. पहले देनेवाले दो-चार मुट्ठी फालतू ही रख देते थे, अब शुरू में ही सुना देते हैं – खेती पर तो पड़ गया है बज्जर. सारी खेती कमाकर चार कंटर (कनिस्टर) नहीं भरे. क्या तुझे दें और क्या हम रखें?
अक्सर पाँच-सात रुपए पकड़ाते हुए कहते हैं – होना न होना तो हमारे भाग का है, तेरा हक तो है ही. रख ले इतना ही, कभी अच्छा समय आ गया तो आगे-पीछे की कसर पूरी कर देंगे. सताव करके जा. कामी का नाराज होना असगुन होता है.
तकरार करने की गुंजाइश होती नहीं. कामी है वह. जो खुशासन गया, उसी से संतोष करना है.
कई बार सोचा है उसने, कहीं देश-परदेश निकल जाए. पहाड़ सार खाली हो गया है. पर हिम्मत नहीं बाँध पाता वह. हिम्मत बांधने की कोई चीज है भी नहीं उसके पास.
बाल-बच्चों को कहाँ छोड़ जाए? ये घर-द्वार और दो-चार खेत तभी तक हैं, जब तक वह लोहा पीट सकता है. जिस दिन भी लोगों ने सुना कि गया हरकराम, उसी दिन अपने खेत वापस ले लेंगे. कोई लड़का बड़ा होता तो उसी को किसी के साथ भेज देता. ऐसा भी न हुआ. तकदीर सभी तरफ से खोटी निकली. पहला बच्चा रह गया होता तो आज बराबर का होता. इतनी चिंता नहीं रहती. महीने के सौ-पचास भी भेज देता, तो काम निकाल लेता. वह नहीं रहा, उसका दुःख झेला. इसके बाद लगातार तीन लड़कियाँ हो गईं. इनका क्या ठहरा, पराए घर की अमानत ठहरी. अब यह एक लड़का है, इस पर क्या कमर बाँधूं. इसके सँभलने और कमाने तक जाने बनूंगा भी या नहीं.
(Bhavishy Story by Kshitij Sharma)
दूसरे दिन सवेरे वह जल्दी उठ गया था. जल्दी उठ क्या गया था, रात नींद आई ही नहीं, आधी रात में ही उठ बैठा. उसे तंबाकू की तलब महसूस हुई. बिस्तर से उठकर बरसे (तसलानुमा अँगीठी) की तरफ आया.
उसने चिमटे से बरसे की राख को उधेड़कर आग की चिंगारियों को इकट्ठा किया. बुझे कोयलों को चिंगारियों की तरफ बटोरकर फूंकने लगा. तंबाकू भरकर, अधजले कोयलों को फूंकता हुआ फिर से बिस्तर पर आ गया. तंबाकू उसे बड़ा बेस्वाद लगा. रह-रहकर उसे अखर रहा था कि उसने एक पिंडी बाजारी तंबाकू पहले ही क्यों नहीं रख लिया? इस मरचोड़िया तंबाकू (मिर्च के खेत में होनेवाला तंबाकू) में यही ऐब है. बिना बाजारी तंबाकू मिलाए न खिलता है न टिकता है. ऐसा बेमजा तंबाकू पीने से तो बीड़ी के दो-चार सुट्टे मार लेना अच्छा है. कुछ तो तमन्ना भर जाती है.
उसने चार-पाँच सुट्टे जल्दी-जल्दी खींचकर हुक्के को रख दिया और दीवार के सहारे पसर गया. ऊपर छत की तरफ ताका, तो अचानक कुछ गड़बड़ा गया. विश्वास ही हिल गया. आँखों को दो-चार बार झपकाने के बाद फिर ध्यान से देखा. उसे छत की सबसे बीच की बल्ली कुछ टेढ़ी नजर आई. बल्ली और उसके ऊपर बिछी चादर के बीच काफी जगह दिखाई दी. उसे आश्चर्य हुआ. राज ही जो देखता है, आज ही वह टेढ़ी नजर क्यों आ रही है. जल्दी में नजर घुमाकर सारे घर को ही देख डाला. हर चीज बदली हुई लगी. लगा, सामने की दावार के कुछ पत्थर चिनाई की रेखा से बाहर हैं और बीच के पार्टीशन के तख्तों में काफी दरार है. हाथ-चक्की के पास रखा घड़ा गोल कम चपटा अधिक है.
(Bhavishy Story by Kshitij Sharma)
उसे घबराहट-सी होने लगी. उसने अपने को सँभालने की कोशिश की और अपने में ही बुदबुदाया, “सब वैसे ही तो है, मैं बेकार में परेशान हूँ. चीजें अपने आप कैसे बदल सकती है भला?”
उसे थोड़ी-सी राहत मिली. घबराहट कुछ कम हुई. पर अंदर काफी कमजोर हो गया था.
दिन खुलने से काफी पहले उसने पत्नी को आवाज दे दी – दिन निकलने को है, उठ. कुछ है तो उत्तमा को पीसने के लिए कह. तू पानी ले आ.
पत्नी ने सबको उठाकर अपने-अपने काम की जिम्मेदारी सौंप दी. घर थोड़ी-सी हलचल हुई. वह भी उठकर बैठ गया. लड़के को भट्ठी जलाने को कहकर वह दिशा-जंगल को निकल गया.
दिशा-जंगल से आने के बाद वह सीधा भट्ठी की तरफ चला गया. शरीर में काफी कमजोरी महसूस हो रही थी. आधे मन से जाते हुए, थोड़ी देर आँगन में ही ठहर गया. खाँस-खंखारकर, थोड़ा-सा ताजा होकर ही उस तरफ बढ़ा. लड़के ने भट्ठी जला दी थी. ऊँघता हुआ चर्खी घुमा रहा था. लड़के को देखकर उसे दया आ गई. अपराध-भावना से वह गड़-सा गया. कैसा फजीता हो रहा है इसका भी. उसने उंघते लड़के को आराम से बैठा दिया. लड़का जाग-सा गया. हरकराम खुद सुलगते कोयलों पर चीड़ के बक्खलों को रखने लगा.
हाथ उसके काम में जरूर लगे हुए थे, पर मन कहीं भी ठहर नहीं रहा था. एक तो रात नींद पूरी न होने के कारण दिमाग ठीक से काम नहीं कर रहा था, दूसरे, उम्मेदी की मौत का आतंक अभी भी उसे अपनी गिरफ्त में लिए हुए था. वह अपनी स्थिति को उम्मेदी से भिन्न नहीं कर पा रहा था. बार-बार उसका लटका चेहरा आँखों में आ जाता था. जैसे कह रहा हो – दाज्यू, यही एक रास्ता बचा है.
(Bhavishy Story by Kshitij Sharma)
उसके बदन में सुरसुरी-सी फैल गई. रात जैसी घबराहट फिर उभरने लगी. फिर उसने अपने को संतुलित किया. चौकस होकर बैठ गया. उसे लगा, बक्खलों में से धुआँ कुछ ज्यादा ही आ रहा है. देखा तो चर्खी घूम ही नहीं रही थी. लड़का चर्खी के हत्थे को पकड़े फिर ऊँघने लगा था.
वह जिस तरह हत्थे पर लटका हुआ था, उसे देखकर वह चौंका. लपककर लड़के को पकड़ लिया. आराम से बोरी पर सुला दिया. हाथ से उसक पैरों को सीधा कर थपथपा भी दिया. अपनी जगह आकर थोड़ी देर तक उस देखता रहा. उसके चुसे आम जैसे मुँह, धंसी हुई आँखों और सूखी हुई टाँगों को देखकर उसके अंदर फिर दहशत पैदा हो गई. लगा, कहीं भविष्य के धुंधले छोर को पकड़ी हुई महीन डोर भी हाथ से छूट न जाए. “तब उसके पास क्या रास्ता रह जायेगा.
कुछ ऐसी हालत में उम्मेदी ने भी. उसे कंपकंपी छूटने लगी. वह लपककर फिर लड़के की ओर बढ़ना चाहता था, तभी लोहारिन हड़बड़ाती हुई वहाँ आ पहुँची. उसके चेहरे पर घबराहट साफ झलक रही थी. घबराहट में ही बोली, “सुना तुमने, उम्मेदी ने फाँस खाली है बल.”
हाँ… आँ… आँ… किसी तरह अपने सूखे होंठों से आवाज को साधा. घबराहट छिपाते हुए, गर्दन झुकाए, आग के कणों पर बक्खलों की ढेर लगाता रहा.
“मैं तो पानी लेकर आ रही थी, हीत बाखली में कोई कह रहा था. सुनकर मुझे तो झस हो गई.” वह लड़के की बगल में बैठ गई. धोती के साबुत किनारे को सिर की तरफ खिसकाते हुए चर्खी घुमाने लगी.
यह चुप रहा.
“अच्छा नहीं किया हो उम्मेदी ने, छह बच्चों को लावारिस कर गया. कैसे पालेगी गोपुली उन्हें. छोटे-छोटे हैं, कोई सयाना भी नहीं जो हाथ बँटा देता. कैसी कुमति आई उसे.”
“नहीं देख पाया होगा बाल-बच्चों का दुःख दर्द.” उसने उसी तरह गर्दन झुकाए, ठंडे स्वर में कहा.
“अब तो मिट जाएगा सब दुःख-दर्द ! उसकी तरफ से तो मिट ही गया. कैसी-कैसी विपत्ति भोगी है लोगों ने. ऐसे ही सब अपना जीवन घात करने लगे तो हो गया फिर. आदमी में थोड़ा सबर तो होना चाहिए. सब अपना-अपना भाग पूछकर आए हैं. दो-चार साल ऐसे ही और काट लेता. बच्चे बड़े हो जाते, कोई तो सहारा देता.”
उसकी गर्दन उठी. उसने पत्नी की तरफ ध्यान से देखा. उसके चेहरे पर कुछ था. वह ठीक से अनुमान नहीं लगा सका कि वह सिर्फ उम्मेदी के किए पर रोष प्रकट कर रही है या उसको भी चेता रही है.
कुछ देर वह पत्नी को देखता रहा. फिर लोहे टुकड़ों को जलते बक्खलों के बीच दबाने लगा.
पत्नी की बात देर तक दिमाग में गूंजती रही, जैसे घंटी बजने पर देर तक गूंज उठती रहती है- अब तो मिट जाएगा सब दुःख-दर्द. ठीक है, दुःख-दर्द तो नहीं मिटेगा. फिर भी. पर उम्मेदी अकेला नहीं मरा है, छह बच्चे और गोपुली भी मर गए समझो. क्या खाएँगे वे? किस काम के बदले अनाज देंगे लोग? खाली माँगने से इतनों का पेट भर सकता है?
(Bhavishy Story by Kshitij Sharma)
“हुआ तो बहुत बुरा. किसी के साथ ऐसा न हो. अगर मुझे ही कुछ हो जाए तो?” एकाएक उसकी नजर पालीऔर लड़के पर पड़ गई. उसे लगा, उनके चेहरे पर चीत्कार और आतंक की रेखाएँ उभर आई हैं. पत्नी का चेहरा अधिक दयनीय और भय से विकराला हो गया है. आँखें आश्रय के लिए भटकने लगी हैं.
उनकी तरफ अधिक नहीं देख पाया वह. अंदर तक कॉप गया. उसका मन हुआ, लपककर पत्नी और बच्चे को गले से लगा ले. तीनों लड़कियों को भी आवाज देकर बुला ले. कहे, ‘घबराओ नहीं, मैं हूँ. देखो, तुम्हारे पास है. जब तक जिंदा हूँ तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होने दूंगा? बल्कि जब तक तुम अपने-अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते, मैं जिंदा रहूँगा. कुछ नहीं होगा मुझे.’
उसकी साँस कुछ तेज चलने लगी. पसीने में वह नहा सा गया.
लोहारिन ने उसके भावावेग को नहीं देखा था शायद. वह उसी सहजता से बोली, “एक-आध दिन में जरा गोपुली के पास तो हो आते.”
“जाऊँगा. काम खत्म हो गया तो आज शाम को ही चला जाऊँगा.”
स्वप्न-लोक से लौट आया जैसे वह. दिमाग में छाई हुई काई छंट-सी गई. उसने फिर अपने को संयमित किया और इधर-उधर देखा. लगा, कहीं कुछ बदला है. पत्नी लड़के के सिर को अपनी गोद में रखकर निर्विकार भाव से चर्खी घुमा रही थी. चेहरे पर थोड़ी-सी उदासीनता थी जो शायद उम्मेदी की मौत के कारण कम, गोपुली के भविष्य को लेकर अधिक थी. वह अपने को समझाने लगा-ऐसे कहीं कुछ बदलता नहीं है. उम्मेदी के मर जाने से उसके घर में सुख की बरखा नहीं हो जाएगी. उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था. अनाथों की तरह कहाँ-कहाँ भटकेंगे उसके बच्चे.
(Bhavishy Story by Kshitij Sharma)
पत्नी ने फिर उसकी तंद्रा को तोड़ दिया, “गोपुली के पास जरूर ही हो आना. वैसे अब जाकर भी क्या होता है और न जाकर भी. फिर भी.” थोड़ा रुककर चिंता के स्वर में कहने लगी वह, “बखत तो खराब आ ही गया है, पर हिम्मत तोड़ने से भी क्या होगा? दिन तो सबके एक जैसे ही ठहरे. कौन-सा सब गेहूँ की रोटी और धान का भात खा रहे हैं.” क्षण-भर रुकी वह, “पर एक बात और है, लोहा कूटने से गुजारा होनेवाला जमाना नहीं रहा अब. खाली हड्डीयों की तुड़ाई ही रह गई है.”
उसे लगा, पत्नी ने उसके मन को पकड़कर सहानुभूति व्यक्त की है. उसके स्वर में उसे उतनी ही आद्रता लगी, जितनी वह अपने मन में महसूस कर रहा था. वह फिर पसीज गया. पत्नी के आगे सब कुछ उँडेल देने को मन हुआ. इच्छा हुई कहे, ‘ठीक कह रही है तू, मैं कल से इसी मुक्ति के लिए छटपटा रहा हूँ. दुकान में राशन था, पर उधार नहीं मिला. उम्मेदी की खबर सुनकर मैं भी अपने गले में फंदा फँसा महसूस कर रहा हूँ. उसकी मौत ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं हमारे सामने. अपने लिए हम खुद नहीं सोचेंगे तो औरों को क्या पड़ी है.
पर बात को उसी आवेश में नहीं कहा उसने. रोक लिया अपने को. इतना कमजोर पाने पर इन लोगों का साहस कैसे बँधेगा? अपनी आवाज को थोड़ा साधकर बोला, “कह तो तू ठीक रही है, खाली हड्डियों की तुड़ाई ही है इसमें. पर दूसरा काम भी तो नहीं सीखा हमने . बाप-दादा यही करते आए, यही देखा. आगे भी .” अटक गया वह, “नहीं, आगे नहीं, इसे नहीं लगाना है इस काम पर. और पाँच-सात साल किसी तरह धकेल जाते तो किसी के साथ देश-परदेश भेज देता. अपनी तो जैसे भी हो कटनी ही हो, पर इसे जरूर.”
लोहारिन की समझ में भी बात आ गई थी शायद. लड़के पर उसे अतिरिक्त प्यार उमड़ आया. उसने उसके सिर पर हाथ फेर दिया. भौंहों को छू रहे बालों को दाएँ-बाएँ मोड़ दिया.
(Bhavishy Story by Kshitij Sharma)
उसने भी लड़के को ध्यान से देखकर पत्नी को समझा दिया, “इसे जौमड़ए के लहोट-महोट मत दिया कर. जौ-मडुवा हम खा लेंगे. ज्यादा काम पर भी नहीं घिसना है इसे. कुछ दिन बेफिकरी में खा-पी लेगा तो देह उठ जाएगी.”
थोड़ी देर फिर मौन छाया रहा. दोनों अपने-अपने घरों में कैद, मुक्ति के नजदीक पहुँचने की राह देख रहे थे जैसे. खामोशी को उसी ने तोड़ा, “इसकी नींद पूरी नहीं हुई है शायद, अंदर सुला दे.” पत्नी ने बड़े जतन से उसे उठाया. उसकी गर्दन को अपने कंधे पर रखकर छाती के सहारे जैसे ही खड़ा करना चाहती थी, डगमगा गई. वह लपकता हुआ उठा. पत्नी को सहारा देकर लड़के को पकड़ लिया. दोनों के हाथ उसके इर्द-गिर्द ऐसे फैल गए जैसे वह काँच की कोई नाजुक चीज हो, अगर गिर गई तो सब कुछ टूट-बिखर जाएगा, हमेशा के लिए. वह उनके हारे-थके वर्तमान की बाहों में सिमटा हुआ एक सुंदर भविष्य था- भविष्य, जिसकी रक्षा करना उनका दायित्व था.
(Bhavishy Story by Kshitij Sharma)
15 मार्च 1950 को अल्मोड़ा के मानिला गाँव में जन्मे क्षितिज शर्मा की कहानी ‘किसी को तो रहना है यहाँ’ उनकी किताब ‘उत्तरांचल की कहानियां‘ से ली गयी है. भवानी के गाँव का बाघ, ताला बंद है, उकाव, समय कम है, पामू का घर, क्षितिज शर्मा की कुछ अन्य कृतियां हैं.
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बहुत सुंदर कहानी।