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छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिशाएं देखो रंग भरी, चमक भरी उमंग भरी

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिल के चमन को खिलाता है कोई

छिपला जाने के लिए बरम वाला रास्ता चुना था. बरम से पद यात्रा शुरू हुई. दिन दोपहरी चलना हुआ. बरम खूब उमस भरा था. खूब पसीना बहा. सूरज ढलने लगता तो हवा एकदम सर्द हो गई और रात को तो ब्याव-ब्याल तेज हो गई. कान बुजीने लगे. इतनी ठंडी हवा चली कि लगा जैसे पाले की फुहार सी चेहरे पर पड़ रही हो. दिन में जितना ताप रात बिल्कुल ठंडी, इस ठंडे-गरम की हाव-पाणि से, उकाव-हुलार यानी चढ़ने-उतरने से कदम असजिले से लगने लगते हैं. आगे कनार गांव होते चढ़ना था. यह तय था कि छिपला केदार से वापसी बरमकुण्ड, खेला गांव होते तवाघाट उतर पूरी की जाएगी.
(Baram to Bhatiyakhan Article Mrigesh Pande)

बरम से हम भटिया खान को चले.बरम पोस्ट ऑफिस में हमें भगवती बाबू मिल गए. वहाँ एक दुकान में ही पोस्ट ऑफिस चलता था. अपने वाहन से उतरे ही थे कि सोबन का एक दोस्त आ उससे गले लिपट गया. दीप व मुझे प्रणाम कर बोला कि भगवती बाबू तो हम कब जो पहुंचेंगे वाला भाव लिए बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं. 

सोबन के मित्र के साथ चार हमउम्र दगडूए और थे जिन्होंने झट्ट से हम सब का सामान उठा लिया. सोबन ने उनका परिचय देते बताया कि इनका घर कालिका से जौलजीवी इलाके में पड़ता है. सब पिथौरागढ़ डिग्री कॉलेज के छात्र हैं. इधर फसल कटाई का काम भी है और जौलजीबी मेले की तैयारी भी इसलिए गांव आ गये हैं.

पोस्ट ऑफिस वाली दुकान में में भगवती बाबू सर-फर करते दिखे. बड़ी चिंता में थे कि हम लेट होते जा रहे. बरम से आगे रात काटने के इंतज़ाम सब भगवती बाबू की ही जिम्मेदारी में था. उन्होंने इसका दारोमदार अपने जिगरी यार को सौंपा था जो अब आराम से तखत पर बैठा हमसे बतिया रहा था और फिर ऐसा लगने लगा कि इन्हें तो हम बरसों से जानते हैं. भगवती बाबू के हमउम्र पर स्वभाव से बिल्कुल भिन्न उनके अभिन्न मित्र दीवान सिंह बनकोटी जी रेंजर साब थे. अपनी वन विभाग की खाकी हरे पन वाली ड्रेस, चमकते बूट और सिर पर टोप में अधबुढ़ पर सजीले एकदम टिच्च. गोल चेहरा गोरफरांग सा साहिब बीबी और गुलाम के गुरुदत्त की अनवार वाला. हंसमुख, मिलनसार और इतने मशिण कि भेट-घाट के बाद से ही वह हम सबके अभिन्न हो गए.

भगवती बाबू पिथौरागढ़ में इस यात्रा का कार्यक्रम तय होते समय उनके बारे में बता चुके थे कि उस जंगल से गहरी यारी तो बनकोटी जी की है जो इस इलाके के रेंज ऑफिसर थे. अब जंगलात की सारी जड़-कंजड़ उनकी चुटिली जुबान के जरिये हमें इस लम्बी यात्रा में किस्त-दर-किस्त प्राप्त होती जा रही थी.लखीमपुर और सहसपुर में अपने उच्च अधिकारियों की वन सम्पदा लूट में सहयोग न करने पर उनके कई प्रमोशन गलते रहे. सांच को आंच कहाँ वाली तर्ज पर जोशी जी डीएफओ साब उनकी रग रग से वाकिफ थे.इसलिए उन पर कोई आंच न आई और बौल बुत, मजुरी पाणि चलती रही. पहाड़ प्रेमी बनकोटी जी अपनी पसंदीदा जगह यानी अपने ही मोल आ गए. बनकोटी जी योग और भोग के संतुलन को साध उस प्राध्यापक रजनीश के लेखन से अपने कर्म सार्थक और लॉजिकल बनाने की कला सीखे हुए थे, जिसने अपने नाम के आगे आचार्य जोड़ा, दाढ़ी बाल बढ़ाये और ओशो बन गया. वह हिप्पी कल्चर के बड़े हिमायती थे. मन आजाद तो जिंदगी मस्त. मन बिगड़ा तो कचकचाट, मन उलझा तो फुड़फुड़ाट, मन भागा तो फटफटाट, काबू में न रहे तो बौल्याट -छौल्याट, सो ऐसी लटपटाट से अपने को मुक्त रखो बाबू.
(Baram to Bhatiyakhan Article Mrigesh Pande)

बरम की दुकान में वहां के डाक सेवक को सारी हिदायतें दे भगवती बाबू ने बनकोटी जी से हमें मिला दिया था और जोर दे जता भी दिया कि आगे जो भी बोट, हाँग-फांग आप देखोगे वह इन्हीं के कण्ट्रोल में है. तुरंत बनकोटी जी की बायीं आंख टपकी और बड़े चहके भाव से वह बोले,”हो!रे भगवत. एक ही चीज नहीं ठेरी डिअर कण्ट्रोल में. अब कौन सी चीज तो अपना भग्गू बताएगा नहीं. चलो में ही बता देता हूँ जिसे ये अपनी छः पल्ले की जनेऊ से बांध कर रखता है. “

“ऑ रे, रेबा. तू यार हर जगह खिचरोली कर देता है. कॉलेज के प्रोफेसर लोग हैं यार, अब बस हो गया तू चुप ही रौ, अभी कचकचाट न कर, अब मैं क्या खोलूं क्या बांध के रखूँ, ऐसी कड़ कड़ नि कर.”

लो! जैसे मुझे मालूम ही नहीं?क्यों पंत जी. बांध के तू रखता है तो बताने में क्या हरज.

हाँ, ले देख बांध के रखी है. चाबी बांध के रखी है, अपने कैश बॉक्स की ले देख.

तमतमा गए भगवती बाबू ने झल्ला कर जनेऊ से बंधी लम्बी चाबी बंडी के भीतर हाथ डाल दिखा दी.

तो. इतना भभक क्यों रा. मैंने क्या कहा कि बांध के रखता है चाबी, नीचे वाली भी.यह कहते बनकोटी जी की आंख फिर टपकी और बड़े संजीदा हो वो बोले, “अब मेरा गुरू भी यही बोल बचन देता कि बांध के न रखो उसे आजाद रखो. यही मूल मंत्र है रे भगवत. अब आप गुरू लोग हुए. आपको क्या ज्ञान दूं जो रजनीश ने दिया ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ में.सबसे ज्यादा पढ़ी गयी गुनी गई किताब ‘सम्भोग से समाधि की ओर में’.

तुरंत ही उनके हाथ अब अपने कोट की जेब में गए जिससे एक पुडिया निकली जिसे अपने पीछे खड़े एक गोल मटोल लड़के को दे आदेश दिया, “ले रे झपूवा. भीतर डाकबाबू की कितली में डाल इसकी चाई बना. इसमें गुलबंश के फूल हैं. इनको उबाल , और साले वो बकरी का दूध तो बिल्कुल मत खित देना चाई में, चीनी भी नहीं. बस ये डाल और ढक्कन उछलने लगे तो छान गिलास में. गिलास गरम पानी से धोना पहले. सिंगड़ूआ साला, हर बखत ये नाक में अंगुली क्यों डालता है”? अब माफ करना ये नेपाली डोत्यालों की संगत में रह चाय को चाई-चुई कहने की आदत पड़ गयी.अभी चाई चलेगी,फिर आगे चलते ठंडी हौ जब बदन कुड़का देगी तो गरमाने का इंतज़ाम होगआगे. जब शाम ढलेगी तब, ऊपर के खेड़े में.जहां डेरा पड़ेगा. “क्यों रे भगवत! तू मुँह मत फुला यार. ये वन वार करने हैं घाटी पार करनी है. अपने आंग को सजिला चुस्त मुस्त रखना है वो भी मुस जैसी सूरत बना के नहीं. क्यों हो भगवत?”
(Baram to Bhatiyakhan Article Mrigesh Pande)

चाय तो गजब थी गुलबंश की.

आगे बढ़ निकले. बनकोटी जी के चुस्त हाथों के इशारे और हर दिख रहे नज़ारे का वर्णन धारा प्रवाह चला.बरम से ऊपर चढ़ते बांज का घना जंगल फैला था. ठंडा, बिल्कुल शीतल. झपुआ ने मुझे बताया कि इस बांज के जंगल में सबसे बड़ी झशक जोंक की होती है. ये तो खून पीने तक चुप्प और फिर खूब फूल कर टप्प से टपक जातीं हैं. इनका पता तो बस तब चलता है जब खून चूसी जगह में खुजली मचती है. अब आप ध्यान लगा कर देखना बाबशेब कि पत्ती पर खुट धरा नहीं, इनको पता चल जाता है. सूखे सड़े पत्ते के बीच से इनकी पतली सूंड ऊपर हवा में इधर -उधर डोलेगी. टटोलेगी कि शिकार कहाँ पर है.जूते मोज़े बन्दर पैजामे के अभेद कवच को लाँघ कहाँ कहाँ घुस ये खून चूसे इसकी फाम बड़ी मुश्किल. कुण्डल दा ने तो लूण-तेल का मिश्रण रखा है एक अफगान स्नो की शीशी में. जहां बांज का जंगल पड़ा नहीं इसकी मालिश का फरमान जारी हो जाता है. अब झपुवा बड़ा ज़ालिम कहता है, ” मी तो सैबो डियस्लाई पाड़ देता हूँ फुर्र से शाली को भढ़िया देता हूँ”.

बांज के जंगल को बंज्याणी कहते हैं. बांज की खासियत यह कि इसकी जड़ेँ खूब पानी सोखती हैं. इसकी पत्तियाँ जहां गिरती हैं वहाँ बढ़िया मॉव या खाद तैयार होती हैं. इसलिए इसके जंगल में अनेक अन्य पेड़ लता बेल पौधे फले फूले दिखाई देते हैं. इसके गोल शंकुआ कार बीज लंगूर बानर के लिए काजू बादाम सा स्वाद देते होंगे.तभी इसे टीप-टीप खाते दिखते हैं. झपुवा तुरंत बताता है कि बांज के बीज को ‘लखमार’ कहते हैं..बांज के जंगल से गुजरते कई ध्वनियां सुनाई देती हैं. पंछियो का कलरव, सर के ठीक ऊपर किसी पेड़ में होने वाली शाखों का हिलना और फड़फड़ा कर तेज सी आवाज करता कोई पक्षी. अचानक ही टी-टी चीं-चीं का स्वर, कुछ पलों की शांति.हवा फिर सरसराती है, पत्ते फिर फड़फ़ड़ाते हैं.

चलते-चलते सिमार वाली जमीन आ गई है. अगल-बगल गोल-चपटे पत्थर और ऊपर राल से आता बहता हुआ पानी. जहाँ कदम आगे बढ़ रहे हैं उसके इनारे-किनारे कहीं घास है तो कहीं हरियाली से भरी ढाल वाली सतह जिसे चाँट कहते हैं से गुजरना होता है. ऐसे ही उठी सतह पर उगे हैं बोट और कितने किसम की छोटी झाड़ियाँ. रिस्ता हुए पानी कई जगह छोटी-छोटी खाल बना देता है. झपुवा जगह-जगह मुझे रुकता फोटो खींचता देख किनारे की एक दम गीली ऊँची जगह पर कुछ सख्त सी पत्तियों को मोड़ रिस्ती-चूती सतह पर लगा दे रहा है. पत्ती से पानी तुरतुराने लगा है. ओख लगा पानी घुटकने की ये चाख, जैसे मौ की एक-आध बूंद हौले से घुल बदन में सकत,यानी ताकत भर दे रही हो.

“ये बंज्याणी हुई, अभी द्यार का जंगल और उसका पानी पियोगे तो भूख और खुल आएगी. अभी यहां नहीं बहुत दूर चल मिलेगा वह जंगल “.रेंजर साब ने बताया.

“द्यार मतलब देवदार हुआ हाँ, इतना तो आप जानते ही हैं.

ये अभी मिश्रित घूरा हुआ,अब जैसे जैसे ऊपर की ओर चढ़ते जायेंगे रियांज का धीरे -धीरे फैलता जंगल मिलेगा”.
(Baram to Bhatiyakhan Article Mrigesh Pande)

पठारी सतह अब खतम हो रही है और अगला कदम आगे बढ़ाते अब पिण्डलियों में धीमी चसक शुरू हो रही है. सो ठहर कर सुस्ताने और दर्द करती पिण्डलियों को आराम देने का भी पूरा बंदोबस्त मिलता है. बरम से चलते हुए कोई दस मील ऊपर अपने दूर के बिरादर गोधन सिंह जी की चाख में बैठ कुण्डल दा ने बंदर पैजामा समेट घुटनों से ऊपर पिण्डलियों तक फतोड़ा-फतोड़ शुरू कर दी उस तेल की जो हमारे सामने ही बना. बड़ी कटोरी को सग्गड में रख कडुए तेल को तता उसमें धतुरे के बीज वाले कांटेदार गोले थेच कूट कर डाले गये.साथ में डोलू जड़ी के टुकड़े. भगवती बाबू, दीप और मैं आधे घंटे तक चली इस रगड़ -धिस को देख तेल की महक से सरोबार होते रहे.

“बड़े फेयदे का होता है ये तेल. आप खाल्ली देख क्या रे चपड़ लो”.

“द्यार का लिसा मिले तो देखना बनकोटी जी. कपूर के साथ मिला तेल बनाते हैं बाबू. दर्द खींच लेता है बल”. दीप बोला.

हाँ,हाँ जरूर मिलेगा. अभी देवदार की लकड़ी का चूर्ण कह लो या पॉडर, जोड़ दर्द में खाने से बड़ा फायदा करता है. सयाने वैद्य जानते हैं इस औषधि को. ऐसी जानकारी पहले के समय बड़े बूढ़े मुखाग्री बातचीत कर परिवार को देते थे. अब तो पब्लिक स्कूल में बच्चे को भेज अंग्रेजी वाली पोएम सुना की फरमाइश होती है. जमाने की चाल बदल रही है प्रोफेसर साब.

गोधन सिंह जी की घरवाली बड़ी सी थाली में गरमा गरम पुए ले आईं. फिर बड़े गिलास में दूध. “लियो पैली खै लियो. आलु – पुरी लै बणे राखीं.अगिलौsक बाट त बड़ असजिल छ. भली के जैया”. वह बोलीं.

पुए खाए, आलू पूरी का भोग लगा और फिर बड़े गिलास में भर भर दूध. जैसे ही दो चार घुटकी लगा गिलास में दूध कम होता वो पीतल की तौली में गरमाये दूध को बड़ा डाढू डाल भर देती. मैं ना ना कहता रह गया पर वो कहाँ मानी.

“खूब घा पात भै यांपन. गाय बाछ लै सपड़ जानी. आपूं लोग ऐ गोछा त निपट जानों. नंतर घ्यु बनै द्युँ”.
(Baram to Bhatiyakhan Article Mrigesh Pande)

गोधन सिंह जी के यहां से पेट पूजा कर चले कुण्डल ने बताया कि,”ये ढक्क्न वाली बाल्टी में घ्यु भी दे दिया है. उखल में कूटे च्युड़े भी रखे हैं धोती के हंतरे में गांठ मार. बड़े स्वाद होते हैं ये लाल चामल के च्यूड़, जितना चबाओ उत्ते मीठे.आपूं ने तो खाये होंगे पहले?” अंss, मामी कूटती थी, आमा आर्डर देती ऐसे कूट, वैसे धर सुपे में. बरसों पुरानी याद ताजा हो गई.

अब चढ़ाई तेज ढाल वाली हो गई है. इस पूरे तप्पड़ में खिरसू की सघनता है. हवा ठंडी है तभी चढ़ते हुए थकान महसूस नहीं हो रही है.घने वन के बीच में भी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कई घर झोपड़ियाँ दिख रहीं हैं. थोड़ी चहल-पहल भी. दूर से बाहर काम करती औरतों के साथ नानतिनों की उछल कूद और रौनक दिखाई दे रही है. उनकी कुड़ी घर-बार के आगे से निकलो तो सब भीतर लुकी जा रहे.ओने-कोने से झाँकते बच्चे शरम से भर अपना मुँह छुपा रहे. घर के सयाने जरूर पूछते कौन हो कहाँ जाना हो रहा. फिर रेंजर साब को देखते ही पैर तक झुक भेटना और दुआ सलाम शुरू हो जा रही. औरतों के साथ लसने में झपुआ कुशल है. झपुआ पर उनकी नजर पड़ते और फिर हुई राजी कुशल से ,एक आध बात से हम लोगों को देख हुई उनकी असज मिट जाती है. रेंजर साब तो हरेक को उसके नाम से पुकार हालचाल पूछ रहे. हर किसी के गोठ से गुजरते रूक रहे बातचीत कर रहे. हमारा परिचय दे रहे. सब दुख -सुख साझे होने लगते हैं.रैंजर साब को देख कई तरुणियाँ मंद-मंद मुस्का उनके आगे-पीछे लगी भी दिख रहीं.

“जाने क्या मंतर मारता है ये इन छोकरियों को, कि इसे देख बन संवर आतीं हैं छिनाल”. भगवती बाबू भनभनाते हैं.

दीप मेरे कान में फुसफुसाता है,”अब जो आया समझ में कि रेंजर साब जनेऊ से क्या जो बांध रखा कह, क्यों जो चिढ़ाते हैं भगवती बाबू को “.

घरों के आगे लम्बे डंडो से स्थिर लूटे है जिनमें घास अभी काफी कम है. चौमास के बाद फिर असोज तक ये लूटे फिर भर दिए जायेंगे.जलाने को लकड़ी के गिंडे और फड़ी लकड़ी भी बिखरी है. ज्यादातर घरों के वल्ले- पल्ले हरा -पीला निंगाल खूब उगा दिख रहा तो जंगल में भी खूब है.इसे रिंगाल भी कहते हैं. यह खूब घना उगता है और मिट्टी को बांधे रखने की इसकी बड़ी क्षमता है. इसके जंगल के बीच से निकल पाना बड़ा मुश्किल है. रिंगाल के डंडो को दोनों हाथों से इनारे– किनारे कर उनके बीच से जगह निकाल आगे कदम बढ़ाने में जैसे ही हाथ की पकड़ ढीली कर आगे बढ़ो तो हाथ से छूटा पीछे को झपाक मारता है. अब खूब लोचदार हुआ पीछे आने वाले को फिर उतनी ही मशक्कत करनी पड़ती है.

इन्ही निंगाल को देख बचपन की लिखाई पढ़ाई याद आती है जिनकी कलम बनती. जाड़े की छुट्टियों में मामा के यहां गरमपानी के गांव जड़भिल और सिलटूना जाते. मामा ने ही पाटी कलम पर लिखाने का अभ्यास कराया था. लिखने से ज्यादा मुझे पाटी में मोसा लगाने फिर उसमें सीधे तल वाली दवात से घोटा लगाने में बड़ा मजा आता था. एक डब्बे में खड़िया घोल जूट की डोरी से रूल खींचने जैसे कलात्मक काम भी होते. मामा वायु सेना के मेकेनिक हुए सो उनके औजार के डब्बे में कई छोटी-बड़ी धार वाला चाकू रहते. जिससे वह निंगाल छील खुट्ट से उसकी नोक टेढ़ी काटते. फिर शुरू होता लेखन. छोटी बहिन तो बहुत ही साफ सुथरा लिखती और मैं पाटी पर गिरा कमेट अपनी स्वेटर की आस्तीन से साफ कर, पाटी में फिर तवे का मोसा लगा उसे चमकाने में आनंद पाता. और बैठे छोटे भाई बहिनों के मुख में, हाथपाँव कपड़ों में मोसे लगे हाथ लगाने के कौतुक भी चलते जिनकी फाम होने पर अनगिनत चटके भी खाता. मामा को बताता कि अब तो खड़िया पत्थर भी खतम है, जब कुंवर राम को भेजोगे उसे खोदने तो में भी जाऊंगा हाँ खनी तक. “हाँ, तूम ऐसी ही लोफेरौली में मन लगाना. ये देखो बेंणी ने कितना बढ़िया लिखा है”.
(Baram to Bhatiyakhan Article Mrigesh Pande)

अब उसको कुटला चलना थोड़ी आता है. मैं तो सीख गया हूँ. डिग्गी में तैर भी लेता हूँ. इसको तो पानी के नाम से ही टिटाट पड़ते हैं.

“ख़बरदार जो डिग्गी या गाड़ में गए”. मामा नाराजगी दिखाते.जब मैं ऐसे कई उजड़योल वाले काम में लगा होता तो अनदेखा भी करते.

वो तुम ही थे मामा जो मैं तैरना सीखा जिसकी शुरुवात यहीं की डिग्गी से हुई. फिर नीचे की गाड़ जिसमें तैरने से कठिन उन गोल पत्थरों को पार करना होता जिनमें काई जमा होती और पांव धरते ही फिसलने का डॉल होता.आज मेरे राइटिंग इतने सुंदर हैं वह भी मामा की बदौलत. कलम बनी निंगाल की डंडी मेरी उंगलियों में फंसा सजा देते थे और सपाss क से पिछवाड़ा भी नीला करते थे ना.

निंगाल की सरहद पार होती है. अब शुरू होने लगा है मध्यम आकार के पेड़ों के बीच काफल और बुरांश. भगवती बाबू अब हमकदम हैं. उन्होंने पहाड़ में चिट्ठीपत्री वाले अपने काम वाली फसक जारी रखी है.डीडीहाट से धारचूला तक डाक सेवा पर निगरानी उनके जिम्मे है. इधर बरम पोस्ट ऑफिस के वल्ले-पल्ले कितने काम निबटा हमारे साथ चल पाने का जुगाड़ भी मुकम्मल हो गया है.

“बाकी तो ज्यादा फिक्र का काम नहीं हुआ. रजिस्ट्री और पैकेट भी कम ही हुए. बस त्योहारों के मौसम में मनी आर्डर बढ़ जाते हैं, जिसकी धनराशि एरिया वाइज चमड़े के थेलों में रखी जाती है. फिर ये थैले एक और बड़े थैले में. सब गांव गांव में बँटने हुए. गांव के डाक सेवा केंद्र भी किसी न किसी दुकान में हुए. दुकान में लोगों की आवत-जावत रहती है. राशन-रसद भी बिकता रहता है और हरकारा डाक भी बांटता है. बासठ के युद्ध के बाद तो नौकरी के लिए बच्चों को ज्यादा पढ़ाने लिखाने का दौर यहां बॉर्डर डिस्ट्रिक्ट में तेजी से चला. सेना पुलिस और सरकारी नौकरी में जाने की सुविधा मिली तो नौकरी भी लगी. कई लोग दूर-दूर शहरों में प्राइवेट नौकरी पर लगे. खेती-पाती इस इलाके में बरकत वाली हुई. जवान लोग खुद गये कमाने बाहर और बाकी कुनबा यहीं गों पन रहा.तभी से मनीआर्डर भी बढ़े.

भगवती बाबू बता रहे कि,”अब तो लोभ लालच बढ़ रहा. पहले गांव घरों में ताले कहाँ लगते थे? अब तो तमाम किसम के लोग आने लगे हैं. यहां जमीन दुकान भी खरीदने लगे हैं.व्यापार दुकानदारी में खरा हिसाब नहीं रहा. झपटमारी चोरीचकारी बढ़ रही. मेले ठेले प्रसिद्ध हुए यहां. बिक्री बट्टा अच्छा रहता है. कुछ सालों से गुंडागर्दी बढ़ रही है. यहां वारदात कर पुल पार नेपाल भाग जाते हैं. गांव घरों में राजस्व पुलिस हुई. सारी जिम्मेदारी पटवारी की हुई. नीचे सड़क वाले इलाके में चौकी हुई. उधर पुलिस हुई. जौलजीबी में इधर कौन आया कौन गया वाली चेकिंग भी होती है. तो उधर नेपाल में प्रहरी हुए. चोर चकार इतनी लम्बी सीमा से कहीं से घुसें कहीं नदी पार कर भाग जाएं. स्मगलिंग का भी जोर हुआ पार नेपाल से. काली नदी ही सीमा रेखा हुई”.
(Baram to Bhatiyakhan Article Mrigesh Pande)

अरे पंत जी सुन रहे हो. दो एक बार तो ईष्ट ने बचाया. एक बार तो पता नहीं कैसे सुराग लग गया कि हमारे थेलों में रकम बड़ी है. सब माल थेलों में दुकान के भीतर. वोई पोस्ट ऑफिस हुआ. शाम के बखत खाना बना रहे थे. हरकारे भी हुए. अब सांकल कहाँ पड़ती है गों घर में. मैं तो बस आरती करने की तैयारी में था कि तीन चार साले मुख को बंदरटोपी से छोप धाड़ से आ घुसे. अरे ताड़ गया मैं. पकड़ी हाथ में थाली और हवन के सुरुवे से टनटना दी. कहाँ कहाँ से खाप में इतने मन्त्र आ गए और गुस्सा चढ़ा तो नाच भी गया अरे धाल लगा दी गणमेस्वर को, हो रे दयोताल. डाक हरकारा भी दम के सुट्टे मार बैठा था जो हाथ पड़ा उसके उससे ले खींच मारे. सब काणीचेले डर गए, एक तो अपने हाथ की खुकरी भी वहीं छोड़ भागा. ईष्ट ने बचाया. दूसरे दिन ही खुशाल राम दरोगा को रपट लिखाई जौलजीबी थाने. खुशाल भी बड़ा होशियार निकला उसने सुराग लगा लिया कि दो साले सुबे-सुबे पुल खुलने के समय लंगड़क्क लंगडक्क वार जाने के फेर में थे. तैनात सिपाही ने रकम मांगी तो जेब में नेपाली नोट वो भी सिरफ साठ रूपल्ली. इतने सुबे की बोहनी खराब होने पर उसने जमा किया चौकी में. वार खबर भेजी की दावत करो तो छोडें. अब कुछ भी कहो पकड़-घकड़ तो करी दी. माओवादी बता लम्बे भीतर रहेंगे बल डोटियाली जेल में.

और बार भी तो आपके डाक थेलों में ख्यात लगी बल?

अरे कित्ती बार. एक बार तो डाकू बकरियालों के खूंखार कुत्तों ने दबोचे. उन्हें भी जमा किया सीधे जौलजीबी थाने में. अब उनको भी तो टारगेट दिखाना हुआ”.

जंगलात की भी तो चौकी दिख रही यहां. दीप ने रेंजर साब से पूछा.

हाँ हाँ. खूब लकड़ी आती है पुल पार से. उसी से चवन्नी-अठन्नी की कमाई हुई.हेर फेर का बहुत माल हुआ यहां. जड़ी बूटी हुई जिनमें से कुछ तो इतनी खोद दी चोरों ने कि खतम होने की कगार में आ गई. पोचिंग भी चलती है. बड़े ताकतवर गिरोह हैं तो चवन्नी चोर भी. यहां जो रिंगाल निंगाल का पुश्तेनी कारबार हुआ उसमें भी मूत लेते हैं हम.अपना माल हुआ की पछाण”.

“इसके मतलब बांस-निंगाल से काफी बरकत हुई”?

“हाँ! इनसे सूपा-डाला, कंडी-मोस्टा बनता है.. अभी से शुरू कर गर्मियों के मौसम में ये सूख-साख मेलों-ठेलों में बिकने के लिए सही तैयार हो जाते हैं. परेशानी तो सबसे बड़ी ये है कि नीचे बरम और आगे गाड़ी की सड़क तक बोकना पड़ता है. इसमें लोथ निकल जाती है. अब इनकी मांग तो थल-बागेश्वर और इधर पिथौरागढ़ तक हुई”.

आगे चलते अब बुरांश का जंगल शुरू हो गया है जिसके एक्का-दुक्का नहीं बल्कि छोटे बड़े बहुत सारे बोट दिख रहे हैं. भगवती बाबू बता रहे है कि अभी तो मौसम नहीं है. जब ये यहां खिलते हैं तो दूर से ऐसा दिखता है जैसे इन पहाड़ियों ने रंगवाली पिछोड़ा ओढ़ रखा हो. पहले तो पइयां यानी पदम फूलता है सफेद गुलाबी. खूब मौन यानी मधुमक्खी उसका रस लेते हैं. बस उसके बाद बुरांश हुआ. काफल भी होता है पर थोड़ा कम. और इलाकों की बनिस्पत यहां बुरांश के बोट थोड़े छोटे पर गठिले होते हैं. ऊपर की ओर थोड़ा गुलाबी रंगत का बुरांश भी होता है. आगे से वार की तरफ की जो पहाड़ियां दिखती हैं वह नेपाल की हैं. वहाँ भी खूब बुरांश के बोट हैं. लाली चुनर ओढे दिखते हैं वो पहाड़.
(Baram to Bhatiyakhan Article Mrigesh Pande)

आम तौर पर हरे भरे पहाड़ का बिम्ब ही दिमाग़ में उपजता है पर यहां बरम से ऊपर चढ़ते पहाड़ के इस हरे रंग के साथ और भी कई रंग घुले मिले दिख रहे हैं. हवा में अलग सी सुवास है. अब धीरे धीरे लम्बी लम्बी घास, कांटे दार घास कम होती जा रही है झाड़ियाँ और पेड़ और घने और सघन होते जाते हैं. दोपहरी की तेज धूप के बावजूद सर के ऊपर छा गए पेड़ों से रोशनी छन -छन कर आ रही है. ऐसे ही कितने तप्पड़ पार कर गए और पेड़ों की छाया और गहरी होती गयी. भरी दोपहरी में गोधूलि बेला सा माहौल. पेड़ों से ढका बीच बीच से झाँकता आसमान. बस रस्ता कहीं नहीं है सब अनुमान से आगे बढ़ा जा रहा. अपने रसिक पथ प्रदर्शक वनकोटी जी हुए और उनका असिस्टेंट झपुवा दिखने में ग्याँजू पर खोपड़ी से चंट है. आगे बढ़ने के लिए उन्होंने कहीं धार से दिखती टेड़ी चट्टान, कहीं बड़े उडयार, कहीं भेड़ बकरियों की मैंगनी और कहीं ऊपर को चढ़ते पत्थरों के टीले के लैंडमार्क का सहारा लिया है. बीच में पड़े कुछ मवासों के झोपड़ों में अब रुक जाते हैं कह उसका नेपाली संवाद वहां की औरतों से शुरू होता. हमारे लिए चाई की व्यवस्था भी होती. उन झोपड़ियों के कुकुरे भी उन्हें देखते ही दुम हिलाते और यही नहीं जब हम आगे को रस्ता पकड़ते तो सबके आगे बढ़ते चलते दिखते.

बुरांश के साथ अन्य मिश्रित जंगल अब आगे की चढ़ाई चढ़ते सिमटते जा रहे हैं. घने पेड़ों को लपेटती बेलें, उनके हाँग-फांग उनमें तरह तरह का शोर मचाती चिड़िया,कठ फोड़वे और भी टक- ठक, चीं-चयां, चिर्र-चुर्र करते कीट पतंगों का शोर भी कम होता है रहा है. कान तो चढ़ाई चढ़ते बुजी गये हैं. ऐसे में कुण्डल दा का मंत्र कि नाक उँगलियों से बंद कर मुँह में हवा भरो, कान के रास्ते खुल जायेगी. सांसों में घुसती हवा ठंडी होती जा रही है. बीच बीच में मुँह से सांस लो और हवा छोड़ो तो वाष्प सी उड़ रही. झुकी गर्दन उठाओ तो चारों ओर से घिरे पहाड़ के ऊपर बिल्कुल साफ नीला आसमान दिख रहा. कुछ कुछ झिलमिलाता-मचलता.आसमान के कोनों में कुछ छितराया सा दूधियापन दिख रहा है. देखते ही देखते वह पश्चिम की ओर फैली चोटी पर बिखर गया है. सब ओर बसंती सा प्रकाश फैला हुआ दिखने लगा है.

“नेचर के बराबर के डिमर और कहीं नहीं.” आज सुबह से ही चुप्पी साधे दीप अचानक रुक एक सजिले से पत्थर पर बैठ हाथों से आसमान की ओर इशारा कर अपनी भीगी-भीगी सी आँखों से मुझे तकते कह रहा. वह हमारे तमाम नाटकों का लाइट व साउंड व्यवस्थापक हुआ. प्रयोगोँ में माहिर. उसके साथ ही नैनीताल में कॉलेज का विद्यार्थी और साथ ही माल रोड बाटा शो रूम का सेल्स अभिकर्ता रहा विनय कक्कड़. इन दोनों की आँखे अक्सर उदास भी दिखती पर जैसे ही लाइट माइक के स्विच इनके बनाए सर्किट से खटकते तो ऐसी तरंग कि ध्वनि व प्रकाश के अनगिनत रूप मचलते. 

नीचे की तरफ से हमारे आगे चलता बब्बर कुत्ता अब तेजी से भोंक उछल कूद करता ऊपर पहाड़ी की तरफ सरपट भागा. गोपिया ने बताया वहाँ सूजन और कलम दा के खेड़े हुए. वहां अराम कर लेना हो सैबो. थोड़ी दम भी लगा लेना.

“दम? तू चरस की बात कर रहा, चल हट मुझे नहीं चलानी अपने दिमाग में चकरघिन्नी”. दीप भन्नाया.
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“न्न हो! ये नहीं ठेरे अतर वाले” कुण्डल दा बोले. ओह्हो त चखती तो पि हि लेना.

चल बे साले चुप हो. खाल्ली पकास मत कर. एक से एक दमची पियक्कड़ पलित्तर जमा हो गए हैं”. भगवती बाबू ने घुड़की दी तो झपुआ की खाप में ताला लगा. 

अभी तक छितराया हौला अब हम सब को ढकने लगा है. बस आगे-पीछे, अगल-बगल पांच छः फिट की दूरी तक ही नजर टिक रही है, बाकी तो सब धुंधला गया है. सबसे ज्यादा परेशान करता है चश्मा जिसमें मुँह से निकली भाप जमा होती जाती है.

ऊपर चढ़ाई पर अब जंगल घना नहीं है. बनकोटी जी मुझसे ठीक आगे हैं. वह बताते हैं कि ये जो आगे छितराया हुआ सा जंगल है यह भोज पत्र का है. एक पेड़ के पास ठहर वह मुझसे कहते हैं.”ये देखिये, छुईये इसे” हाँ ये तो बहुत चिकना सा मुलायम गुदगुदा भी.

“बड़ा कोमल है नारी देह सा. इसका स्पर्श महसूस कीजिये. असली चीज ही स्पर्श है जिसकी प्रतीति होते विद्युत सा प्रवाह महसूस होता है. इससे लिपट जाइये तो अपनी तरंग में यह आपको समाहित कर लेगा”. उनके भीतर दबा रजनीश काव्य मय ज्ञान से सिक्त हो छलकने लगा.

“भोज पत्र के साथ यहां कई किसम की झाड़ियाँ हैं. इनकी पत्तियाँ भी छोटी और कठोर. अलग किसम की खुशबू अलग सी महक. यहां गन्धरिंगल है, कुंजा, किमकुकड़िया है. चिमुला है जिसे रोडोड़ेन ड्रोन कैंपेनुलेटुम कहते हैं. कुनकुन और कांजुल भी दिखेगा. छिपड़ी, घिया, जानिला, भिलोका ये सारी प्रजाति इस ऊंचाई से मिलने वाली प्रेमिकाऐं हैं. बस इनसे लिपट जाओ तो मदमस्त कर देंगी. चमलिया सुगंधबाला, नीलम सोमलता, झिरना, कोकली, बंदपाखी सकीना. सब साल भर बिछी रहती हैं इन चढ़ाई भरी राहों में. अब ये भगवत क्या जाने? इसको तो अपामार, लीचा कुटा, कॉन्च और शिशुण ही चुभेंगे. तभी तो कहता हूँ प्रोफेसर साब लोगो, बांध के न रखो.

आगे जो पर्वत शिखर यहां से एक दिख रहा है वह ऊपर जाते कई -कई पर्त को समेटे है. जूतों के नीचे अब मिट्टी पत्थर की फिसलन नहीं,यहां बिछे पेड़ों की जड़ों के जाल से हुए उबड़ खाबड़ स्पर्श का अनुभव दे रहा. जैसे ही यह परत पार होती है तो फिर गुदगुदी सतह. घास के मोटे कालीन सा मखमली अनुभव.
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चढ़ाई अब पिरामिड सी हो रही ऊपर बहुत ऊपर तक जाना पर जाते-जाते आगे फिर कुछ ऊपर का शीर्ष. अपनी सांस की आवाज अपने दिल की धड़कन साफ सुनाई दे रही है. ढाल बहुत तीखे,हर कदम आगे उठते पिण्डलियों में दबाव महसूस कराने लगा है. थोड़ी-थोड़ी देर में प्यास से गला खुष्क हो रहा है. बनकोटी जी संतरे की फांक वाली खट्टी मीठी गोलियां हाथ में पकड़ा देते हैं.

अब फिर बुग्याल का इलाका शुरू हो गया है. अणवालों का इलाका. धुंधलाई रोशनी और धुँध के बावजूद घास के बीच से फूटते उभरते कई कई रंगों के फूल. हम ऊपर को बढ़ते जा रहे हैं और हवा का वेग तेज हो रहा है. इस तेज हवा से कोहरा देखते ही देखते गायब हो गया है. नीचे अभी तक पहाड़ियां दिख रहीं थीं जिनको अब उनकी तीन चौथाई ऊंचाई तक कोहरे ने छुपा दिया है. पर्वत श्रृंखलाओं की वह अलग-अलग पट्टी क्रमशः हरे नीले काले रंग के शेड दिखा रही है.

सभी थक गये थे. रेंजर साब का हुकुम हुआ थोड़ी देर सुस्ता लो. बैठ जाओ.

“किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ और देखो, जो भी तुम्हारी दृष्टि में आए, उसके पार जाओ, पार जाओ, कहीं भी रुको मत. बस यह सोचो कि यह वृक्ष कहाँ समाप्त हो रहा है. यह वृक्ष क्या तुम्हारे बगीचे में लगा एक पौधा पूरा अस्तित्व अपने में समाहित किये हुए है. हर क्षण यह अस्तित्व में विलीन हो रहा है”.

“जिस छिपला केदार की ओर हम बढ़ रहे हैं प्रोफेसर साब उसकी धरती में है डाव-डाल, डाव-बोट. डाव हुआ छोटा पौधा, डाव बोट हुआ मध्यम आकार का पेड़. यहां घास के तिनड़े हुए तो आसानी से मुड़ने वाली टहनी भी जिसे कहते हैं ‘त्वर’. पेड़ के चौड़े पात तो मुलायम ‘पान’यानी कच्ची कली. किसी जड़ के तने से निकली कोंपल दिखेगी जिसे ‘पुङ’ कहते हैं.पेड़ की टहनी हुई ‘फाङ’. छोटा पौधा देखो ये ‘बोट’हुआ. इसी में लगा फूल जब फल में बदलेगा तो कहलाएगा,’फुल्यूड़’. कहते हैं ”चैत बैसाग रुख-डाव पल्यूं है जाणी”. ये पेड़ ही ‘रुख’ हुआ. इसपे जो खट्ट से चढ़ गया वो कहलाया ‘रुखयाव’ जैसे अपना ये झपुआ”.

“क्यों रे झपुवा? अब देखना है छिपला तक चढ़ते कैसा लोथ निकलता है तेरा. कैलास जाने वाले रस्ते मालपा से आगे गांव हुआ इसका. सब खेती पाती, ढोर जानवर, पूरा परिवार सब उजड़ गया. ऐसा बादल फटा कि हिल गई धरती. हो गया भू स्खलन. इस साले की किस्मत! अपनी बेणी से भेटने आया था यहीं कालिका. इसका भिनज्यू अपने ही फारेस्ट डिपार्टमेंट वाला हुआ वन दरोगा. इस पर दया आ गई मुझे प्रोफेसर साब. गबरू गठिला हुआ ही, सात दर्जा पास भी. अपने यहां रख लिया. साला दिखता ग्याँजू है पर लौंडियो से खूब मलक्योंण है. म्याच-म्याच खूब हुई.नाक में उंगली डाले रखता है सिंगडुवा. मेरा खाना पीना यही बनाता है. अपने सामने हाथ धुलवाता हूँ इससे. क्यों रे वो बड़े थर्मस में चाई लाना कहा था तुझसे, लाया है”?

“अंss सैबो.

तो अं ss क्या कर रहा. बढ़िया ‘घुर’ जंगव है यहां. ला पिला. पहले हाथ धोना अपने”
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“अरे सर. पेहली बार जब घर लाया इसको तो घर भर में इसने फैला दी ऐसी चुरेंन कि मैं सोचूँ मुतभरी गया है. इसके लिए कार्बोलिक साबुन लाया, सारे इसके लुकडे-खतड़े धुलवाए. यूरिक एसिड दूर करने की गोली दी इसे तब जा इसके पसीने की बदबू दूर हुई. दिखने में भ्यास, भसोरण में भिसूण पूरा भसम रोगी. चूहे की मैंगनी खा गया होगा ये गलती से”.

बड़े कायदे से झपुआ ने सबको स्टील के गिलास में चाय दी भर भर के. चाय देने से पहले धारे में जा उसने गिलास धोये. दीप ने अपने झोले से बड़े डब्बे में धरे खजूरे और फिर शकरपारे निकाले. झपुआ ने प्लेट में रख सबको दिए.

“ओह्हो. मेरा तो बर्त हुआ आज. बस खुशक चाय देना हो. ईजा ने बनाए होंगे ये?” भगवती बाबू बोले.

“बाबू ने आटा गूंथा गुड़ की चाशनी में. बेले भी काटे भी. शकरपारे भी बेले काटे बाबू ने ही. इनके लिए चीनी की चाशनी बनी, उसमें नीबू का रस भी डाला.तलने का काम ईजा ने किया”.दीप बोला 

“बड़े स्वाद हैं ये”. बनकोटी जी ने तारीफ की.

“अब डिअर भगवत. क्या यार इतनी चढ़ाई चढ़ने में बर्त क्या रखने हुए. आज क्या एकादशी हुई”?

“हँ ss”
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“तो भात भी नहीं खाओगे आज, सापड़ी- चाप वाले हुए नहीं ये. चखने वाले -दारू वाले भी नहीं. पर बरंडी तो पीते हो तुम.

जराss. सर्दी जुकाम में कभी घुटुक लेते ही हो. तो फिर बाकी बिरादरी से कैसा बैर?”बनकोटी जी और खिंचाई करते कि सामने खूब सारे रामबांस देख मैं उनकी फोटो खींचने लगा.

“ये हुआ रामबांस. इसके काँटों को ‘भुति’कहते हैं. एक बात बताऊँ. रामबांस की भुति और छिलका निकाल इसका गूदा निकाल लो,बस घी क्वार य घृत कुमारी की तरह और महिने भर आधा कटोरी खा लो तो बुड़ भी ज्वान हो जाए. आप दोंनो की अभी शादी हुई नहीं,बस कर दो एक्सपेरिमेंट. तू साले झपुआ, बड़े ध्यान से सुन रहा. मालूम है मुझे तू जरूर खायेगा कैसी फुराणी याट हो रही देखो तो”.

“कोंची के हलवे से भी आती है ताकत, मिरे भिंजू बनाते हैं”. झपूवा ने मुख खोला.

“हाँ!हाँ!, इथके-उथके जंगल में डोटयालिनों की प्वाक खूब सूंघता है वो भी. कभी मिल गई न कोई धाधड़ी, खट्ट से दातुली चला काट देगी फांग”. आंख की पलक दबा बनकोटी जी खितखिताऐ.

“अब हर जगह खिचरोली मत करो हो. चलो फिर अबेर हो जाएगी. वो ऊपर भीमण की गुफा भटिया खान तक जाना है. दूर ही हुआ”. भगवती बाबू खट्ट से उठे.
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पास के धारे में मिट्टी लगा गिलासों को धो-धा झपुवा आ गया. सब आगे बढ़े. रस्ता संकरा था. सब एक के पीछे एक बनकोटी जी के पीछे.

“कुछ ही बड़े अफसर होते हैं प्रोफेसर साब जो इन वादियों में पैदल चल दौरा करते हैं बाकियों को तो बस जीप से आ बगल ही में फारेस्ट रेस्ट हाउस चाहिए. ओल्ड मोंक चाहिए घूरड़-काकड़ का मीट चाबेंगे बस. गरम गोस्त की फरमाइश वाले भी देखे जब में खीरी रेंज में था, घाटमपुर हमीरपुर था.पहाड़ में आये कुछ बड़े अफसर साले ये समझते हैं कि इनकी धौंस से इनके मकानों के लिए यहीं की लकड़ी के तखते-बल्ली चिरेंगे. बड़ा नाश मारा है साब. कितना कटान हुआ देखादेखी. वो तो चिपको ने पत रखी. ये उन्नीससौ अस्सी वाली वन नीति से सख्ती आई. दोष दिया गांव वाले को कि वह उजाड़ता है जंगल. अरे जलावन के लिए सूखे गिरे ठूँठ चाहिए उसे. आगे यहां सब वनवासी हुए. यही वन है यहीं उनका भोजन भी जुटता है. अब घास काटने, लकड़ी जुटाने में तो धौंस नहीं होनी चाहिए न. ठेकेदार इनके ही हैं इन्हीं के कहने से इनके ट्रक जाते हैं माल-भाबर. लीसा जाता है. कितनी वन उपज कितनी भेषज. यही रेवेन्यू इनकी जेब में. गाली मिलती है पतरोल को, रैंजर को”.

बनकोटी जी अपने कई आला अफसरों की करनी से गुस्साए लगे. कारवां बढ़ता गया. अब रस्ता कठिन और असजिला भी था. बीच -बीच में सबसे आगे चलते रेंजर साब इस पूरी वादी के अलग -अलग हिस्सों की बाबत समझाते जा रहे थे.

इस रास्ते में तमाम छोटे खेत जिन्हें ‘हांग’कहते हैं. कई जगह इन्हीं की मेढ़ से हो कर गुजरना होता जिनसे पार पाना बड़ा ही घिचपिच भरा होता.पगडंडी नहीं दिखती और न ही लोगों और ढोर जानवरों के चलने से दब गई पीली पड़ गयी घास जिसके सहारे आगे बढ़ा जाए.कई जगह घुड़व यानी लकड़ी और घास की ढ़ेरी रखी दिखतीं. घापात से भरी जमीन जिनका ढाल इतना तीखा कि घुरीने की नौबत आ जाए. भरोसा तो बस उन्हीं मवासों का जो अंदाजे अनुमान के भरोसे आगे बढ़ते और खुद भी कहीं भबरी न जाएं इसलिए कहीं किसी टेढ़ी शिला को दिशा सूचक बना देते. पत्थर भी नुकीले जिन्हें घंतर कहते हैं.

“चौबाटे पै पत्थर के ढेर जमा हैं देखो. आगे बहुत आगे कई जगह बीर खम्ब दिखेंगे. लम्बे पत्थर जमीन में गढ़े. अंदाज लग जाता है कि अब किधर कदम धरने हैं.फूल पत्ती टहनी जो मिले उस पर चढ़ा दो. कुछ न मिले तो पत्थर का टुकड़ा ही चढ़ा दो, आगे यही रक्षा करते हैं”. भगवती बाबू की आवाज सुनाई दी.

“हाँ. सब पूजनीय हुआ यहां” रेंजर साब ने दोनों कान उँगलियों से छू हाथ जोड़े और सामने हाथ का इशारा कर बोलना शुरू किया, “अब घास के मैदान हुए, चरागाह हुए बिल्कुल नेचुरल तो अल्पाइन चरागाह भी, वन गोचर, खेती के लायक की बंजर और खेती न हो सकने वाली परती जमीन. सबका दर्शन करेंगे आप. ये देखिये घास, वो दूर तक बुग्याल, चारे के पेड़, झाड़ी, शाखों में रहती बस्ती की बड़ी कम आबादी. ये सब छः हजार से ग्यारा-बारा हजार फिट की ऊंचाई तक साथ चलेगा. बाइस साल की नौकरी हो गयी है जंगलात की, जितना इसे देखता हूँ तो लगता है अरे ये तो पहले देखा ही नहीं. नैनीताल मनोरा रेंज से नौकरी शुरू की मैंने.

अरे. मैंने भी नैनीताल चीना रेंज में बचपन गुजारा.. वहीं से मन मचला की पहाड़ चढ़ जाऊं लड़ियाकांटा की चोटी तक मेरे चाचा रेंज ऑफिसर थे तब वहीं. “अरेss! क्या नाम हुआ साब का”?

“मथुरा दत्त पांडे, अब हमीरपुर हैं. डीअफओ”.
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“अरे. बड़े काबिल ऑफिसर. मैं तो कहाँ पहले दिहाड़ी पै लगा. पढ़ो-पढ़ो प्राइवेट पढ़ो कह उन्होंने और स्वीनरी साब ने कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया. बन दरोगा भी रहा. प्रमोशन भी हुए मिर्जापुर, लखीमपुर, गोरखपुर पर लौट-लौट पहाड़ ही फरका. सहसपुर भी रहा वो विकासनगर के पास देहरादून. बड़े चोर अफसर थे वहां. मैं तो इधर आ गया. काटने वाले की तो औलाद तक से बदला लेता है जंगल. और हमारे साब”?

“लखनऊ मकान बना लिया है अब दो एक साल में रिटायरमेंट हुआ. उनका बड़ा लड़का मेरे ही साथ रहता है प्रमोद. पिथौरागढ़ से ही इंटर कर रहा है”.

“सही किया उन्होंने. पहाड़ भेज दिया. हमारी तो जड़ ही यहीं हुई, क्यों साब?

“हाँ. वो धन सिंह याद होगा उनका अर्दली अब रिटायर हो पिथौरागढ़ वापस आ गया भुरमुणी”.

“हाँ! ससुराल हुई उसकी. खूब खेत पानी का मालिक हो गया वो एकलकटुवा जवाईँ. लो यहां ऐसे आपसे जो मिलना होगा. आपके बाबू ने पढ़ने लिखने में बड़ी मदद की थी. महेश दा ने दिनेश दा ने और वो चपरासी हरकिशन, जिसका नाम ही गुरू जी पड़ गया था”. बात कहते वह रुके और आगे हाथ का इशारा कर बोले, “देखिये आप लोग ये जंगल,जहाँ चारे के खूब पेड़ और इनकी कई किस्में हैं. ये कबसी का पेड़ है बकरी खूब खाती है इसका चारा. इसके अगल बगल ही है ये कंदेल और सौंड जिसे भेड़ खूब पसंद करती है. बाकी में उतीस हुआ, खड़ीक हुआ, चमखडिक, अंगू, लोध और चमड़मोवा ये भी जानवरों के लिए अच्छे पाचक होते हैं यही उग रहे खरसू, स्यान, कीमू और बांज बढ़िया चारे के बोट हुए.

बोट हांग के किनारे केड़ी यानी झाड़ियों के ढेर जिनको कुनव कहते हैं, भी दिखने लगे हैं. कहीं कहीं आड़ लगी दिखती है. आड़ मतलब लकड़ी के मोटे डंडे. लाकड़े के हार यानी चट्टे इकट्ठा दिखते हैं जहाँ कहीं भी थोड़ी समतल जगह हो, मौ यानी मवासों की घर कुड़ि के नजदीक. यहां ज्यादातर स्वाट यानी जानवर हकाने वाले मवासे रहते हैं.ऊपर की ओर जाते घास के उबड़ खाबड़ मैदान फिर शुरू हो गए हैं.. ये घास भी कितनी विविधता लिए है अभी मुट्ठी में पकड़ लो तो बिल्कुल मुलायम रेशम सी तो कहीं पतली धार दार हाथ पैर में खरोंच कर दे.रंग भी ऐसा जैसे हरियाली सुर्ख हो पीली – भूरी पड़ गई हो. जिस उबड़-खाबड़ जमीन पर हम चल रहे हैं उसमें भी कितने किसम की घास उगी हुई है. बीच-बीच में नई-नई सी दिख रही अलग-अलग किसम की घास.. उनमें छुटपुट नन्हें पुष्प लताओं में बेलों में. धरती की सतह अब कठोर होती महसूस हो रही है. पत्थर तो हैं ही नुकीले, ऐसे भी कुछ ठूँठ जो जूता पहने के बावजूद चुभ रहे हैं. मेरा सामान गले और पीठ पर लटकाये झपुआ चल रहा है. हवाई चप्पल पहने, वो भी घिसी और पांव से बड़ी. “इतनी बड़ी हवाई चप्पल जो क्या पहनी तूने? “कह टोका तो बोला,”मुझे इसमें ही सज आती है”.

“ये कैसी सज हुई यार, काणे-माणे, घंतर नहीं बुड़ते?”दीप ने पूछा. “मुलेम घास भी लगती है. पैर में हौ लगे तो चला भी तेज जाता है” उसने खट्ट जवाब दिया. वैसे जूता भी है उसके पास फौजी बूट टाइप. “अब जोता पैन ही लेता हूँ. नंतर भटिया खान चढ़ने तक पैर लकड़ी जायेंगे.
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कुण्डल दा कह रहे कि सैबो अभी जहाँ से गुजर गए तो जोरदार झमाझम बर्ख के बाद वो रस्ता फिर चिताया ही नहीं जायेगा. इन चाँटो को देख, पत्थर के चौथार देख, दूर की छानियों से,छीण से जांचण कर अंदाज लगा अपना रस्ता बनाना हुआ. स्यार वाली दलदली जगह आ गयी है. इसको ‘स्याव’ कहते हैं. किनारे पहाड़ी की तरफ कई जगह खोड़ हैं जहाँ वक़्त बेवक्त भेड़-बकरी आश्रय पा लेती हैं. ऐसी जगहों से गुजरते खातड़ेन बास और दूर तक बकरी की मैंगनी से पटा रस्ता. जूता कई जगह चिफलेन में फिसलता हुआ भी. बकरियों को कोई परवाह नहीं, बारिश पड़े या धूप बस मुँह चलाने को जहाँ लाङ के पात दिखे, घास दिखी या काणे-माणों में एक आध पत्ती फ़ल तो उनको मस्तानी चढ़ जाती है.सबसे ज्यादा फुर्ती खसिया यानी लाख में चढ़ी होती है. झपुवा बता रहा इन्नके आंडू थेच देते यानी बघिया कर देते. अब जौलजीबी मेले तक यहां की घास फूस खा ये खूब सकत हो जायेंगे तो बढ़िय्या दाम मिलेंगे.

भटिया खान पहुँच ही जाते हैं आज. बनकोटी जी बता रहे कि इसी रफ्तार से चले तो साँझ से पहले हम ग्यारह हजार फिट की ऊंचाई पर पहुँच जायेंगे हैं. यही वह जगह है जहां भेड़ बकरियों की कई सौ-हजार की तादाद यहां चराई के लिए अणवाल ले के आते हैं. यहीं टिकते हैं. वो देखिये इनकी झोपड़ियाँ दिखाई देने लगीं हैं. ऐसी घास-फूस, हांग-फांग से बनी कि इनके भीतर यहां की तेज ठंडी हवा का भी असर नहीं होता. इधर मौसम ठीक रहा है तो खूब रौनक है. अब इतना चढ़ गए पता चला आपको? ना. ऐसा बहुत कठिन तो नहीं लगा.

अरे सर!ये है आबोहवा का असर. यहां की जमीन, घास-पात बोट-पेड़ों का प्रताप. यहीं से बुलाती है नन्दा देवी. यहीं से आकर्षित करता है केदार-छिपला केदार.
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प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

इसे भी पढ़ें : “चांचरी” की रचनाओं के साथ कहानीकार जीवन पंत

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