कुमाऊँ के बागेश्वर और गरुड़ के ठीक बीच में एक छोटी सी बसासत पड़ती है – बमराड़ी. यहाँ से दोनों जगहें बारह-बारह किलोमीटर की दूरी पर हैं. इस जगह को पिछले कुछ समय से एक बेहतरीन ढाबे के कारण खूब प्रसिद्धि मिली है. गौरव नगरकोटी नाम के एक अठ्ठाइस-तीस साल के ऊर्जावान नौजवान इसे चलाते हैं.
यहाँ साल भर एक जैसा परम सुस्वादु ठेठ पहाड़ी मेन्यू मिलता है. थाली में भट के डुबके, झोली, स्थानीय सब्जी, दाल , भांग की चटनी और प्याज-मूली के सलाद के अलावा ताज़ी रोटी और स्थानीय चावल का भात कुल साठ रुपये में परोसा जाता है. खाने की कोई सीमा नहीं.
गौरव के पिता दयाशंकर नगरकोटी बागेश्वर के एक स्कूल में अध्यापक हैं और यह ढाबा दरअसल गौरव के दादाजी ने साल 2006 में रिटायर होने के बाद खोला था. दादाजी यानी श्री किशनसिंह नगरकोटी गाँव के डाकखाने से पोस्टमास्टर होकर रिटायर हुए थे. सड़क से लगी हुई जमीन और वहां पानी की निर्बाध प्राकृतिक सप्लाई से आकर्षित होकर उन्होंने ढाबा खोलने का फैसला किया. बालक गौरव को भी अपने दादाजी के साथ काम करने में मजा आने लगा. फिलहाल ढाबे पर जो सदाबहार मेन्यू मिलता है उसकी उसकी रेसिपीज़ इन्हीं किशनसिंह जी के द्वारा तैयार किये गए हैं.
गौरव ने अपनी पढ़ाई का सिलसिला ग्यारहवीं कक्षा तक बागेश्वर में किया और उसके बाद सितारगंज से पौलीटेक्नीक किया. इसके बाद वे अपनी मर्जी से काम की तलाश में हरियाणा चले गए जहाँ उन्होंने मोटरसाइकिलों के पार्ट्स बनाने वाली एक फैक्ट्री में सुपरवाइजर की नौकरी की. पहाड़ के रहनेवाले इस युवा को मैदान का हवा-पानी रास नहीं आया और वे वापस अपने गाँव आ गए. यह सन 2016 की बात है. तब तक उनके दादाजी का देहांत हुए पांचेक साल बीत चुके थे और उनका बनाया चलता हुआ ढाबा दूसरे कर्मचारियों के सुपुर्द था. व्यापार घाटे में चल रहा था और बचपन में दादाजी से सीखे गए नुस्खों से लैस गौरव ने ढाबे को उसकी पुरानी शान दिलाने का फैसला किया.
गौरव से जब मैंने पूछा कि क्या उनके घरवालों ने उनसे यहाँ आने के लिए मना नहीं किया तो वे बताने लगे कि ऐसी कोई बात नहीं हुई. उन्हें आज भी घर की तरफ से कोई परेशानी नहीं है. घर की अलग से खेती भी है और पिताजी अब भी बागेश्वर में नौकरी करते हैं. इतने में गौरव के ढाबे पर कुछ स्थानीय किशोर क्रिकेट का बैट वगैरह लेकर आ गए और हमारी बातचीत को ध्यान से सुनने लगे. मैंने गौरव से पूछ कि क्या वे गाँव के इन किशोरों को भी ढाबा खोलने की सलाह देंगे तो उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि उन्हें अच्छी पढ़ाई कर के सबसे पहले सरकारी नौकरी खोजने का जतन करना चाहिए. गाँव में करने को कुछ भी नहीं है. खेती का भी हाल ऐसा है कि एक खेत यहाँ है तो दूसरा वहां – कई कई बार तो खेतों के बीच की दूरी एक-एक किलोमीटर तक होती है. सारी जमीन एक जगह हो तो कोई बात बने. बच्चे क्रिकेट खेलने जाने लगे तो गौरव बोले – “अब देखिये इनमें से कोई आर्मी में जाने की तैयारी कर रहा है. कोई कुछ और कर रहा है. अब ये क्रिकेट खेलने जाएंगे. इनके मजे हैं!” पहाड़ की दिक्कतों के बारे में उनसे और अधिक सवाल पूछने का मेरा मन नहीं हुआ.
मैंने पूछा कि जब वे बच्चे थे और ढाबे के काम में दादाजी का हाथ बंटाया करते थे तब क्या उन्हें इन बच्चों की तरह खेलने जाने का मन नहीं होता था! उन्होंने कहा कि वे काम के साथ खेलने का भी खूब समय निकाल लेते थे. दादाजी के साथ रहते हुए एक हुनर सीखा सो अलग. ढाबे में आज एक दिन में पचास से सौ लोग औसतन खाना खाकर जाते हैं. हर ग्राहक के आने पर गौरव ताज़ी रोटी बनाकर खिलाते हैं. ढाबे के परम स्वादिष्ट डुबकों की रेसिपी के बारे में मैंने पूछा तो तनिक मुस्करा कर गौरव बोले – “दादाजी की रेसिपी है. उन्हीं से सीखी हुई. और क्या!”
अगली बार आप बागेश्वर से गरुड़/रानीखेत/अल्मोड़ा की तरफ आ आ रहे हों और भूख लगी हो तो हमारा आग्रह है कि गौरव नगरकोटी के बमराड़ी ढाबे में भात-रोटी के साथ गौरव नगरकोटी के बनाए झोली डुबके के मज़े लेने का मौका हरगिज न गंवाएं. बेकार पछता कर क्या फायदा!
-अशोक पाण्डे/ जयमित्र बिष्ट
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