काफल ट्री में नियमित कॉलम लिखने वाले लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ का जन्म 25 अप्रैल 1946 को अल्मोड़ा के छानागाँव में हुआ था. अब तक अनेक कहानी संग्रह, उपन्यास व लघु उपन्यास लिख चुके बटरोही समकालीन हिन्दी के बेहद जरूरी लेखक हैं. उनके रचनाकर्म के केंद्र में पहाड़ और उस पर रहने वाला मनुष्य सर्वोपरि रहा है. आजीविका के लिए कुमाऊँ विश्वविद्यालय में अध्यापन कर चुके बटरोही फिलहाल सेवानिवृत्त हो कर हल्द्वानी/ नैनीताल में रहते हैं. बटरोही की यह कहानी कहानी ‘बंपुलिस’ ‘नया ज्ञानोदय’ के अप्रैल, 2019 अंक में प्रकाशित हो चुकी है.
इस कहानी का संबंध मेरे दो नैनीताली पुरखों – उन्नीस सौ अस्सी के दशक में नैनीताल पधारे ‘कसप’ उपन्यास के लेखक मनोहरश्याम जोशी और 1895 में नैनीताल में नियुक्त हुए ब्रिटिश लेफ्टिनेंट गवर्नर ऐंथनी मेकडोनाल्ड के साथ है. खास बात यह है कि मेरे ये दोनों पुरखे एक छोटी-सी अवधि के लिए नैनीताल आए थे मगर दुनिया के सामने इस शहर की ऐसी छवि पेश कर गए कि सारा नैनीताल आज उन्हें इसी नयी छवि के साथ याद करना पसंद करता है. जरूर, इनमें से एक, कहने के लिए तो भारतीय पहाड़ी है यानी अल्मोड़िया, मगर उनका जन्म सुदूर रेगिस्तानी शहर अजमेर में हुआ था जहाँ उनके दादा कभी राजा की शरण में गए और फिर वहीं बस गए. मगर संवेदनशील पौत्र मनोहरश्याम के पहाड़ी गुणसूत्रों ने उसे अपनी जड़ों के साथ जुड़ने के लिए विवश किया और वह अपने पैतृक गाँव गंगोलीहाट तक ‘धराशायी गू और गर्वोन्नत हिम’ की प्राणदायी गंध को एक साथ समेटने की विवशता के संस्कार से वशीभूत होकर एक पारिवारिक विवाह समारोह के बहाने नैनीताल पहुँच ही गए.
इसके उलट, ऐंथनी मेकडोनाल्ड का किस्सा सरकारी स्तर का है जिसने ब्रिटिश उपनिवेश के प्रतिनिधि के रूप में भारतीय पहाड़ों में मल-निस्तारण और सीवर प्रणाली बिछाकर नया इतिहास रच डाला और गू जैसी तुच्छ ‘धराशायी चीज’ को ‘गर्वोन्नत हिम’ की-सी महिमा प्रदान कर दी. यह सब तो ठीक, मगर ये बात किसी को कैसे हजम हो सकती है कि पहाड़ों की शुद्ध जीवन-प्रदायिनी हवा-पानी और सदा पूजनीया देवी-माँ के आध्यात्मिक माहौल के बीच धराशायी गू और गर्वोन्नत हिम का कॉकटेल भला कैसे परोसा जा सकता है!… फिर भी, नैनीताली समाज को प्रदान किए गए पुरखों के इस अवदान को नकारा भी नहीं जा सकता, इसलिए अपनी कहानी में से इन्हें मैं हटा भी नहीं सकता.
अपने इन विशिष्ट पूर्वजों की मंशा के अंतर्विरोध को समझने के लिए मैं पहले आपको अपनी जिंदगी के शुरुआती दिनों में लिए चलता हूँ ताकि बात साफ हो सके. ‘कसप’ के नायक के पैतृक गाँव गंगोलीहाट के पास ही मेरा पैतृक गाँव भी है जिसे ‘गुम देश’ के नाम से पुकारा जाता है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है, यह उत्तराखंड का आदिवासी इलाका है इसलिए यहाँ उन परम्पराओं को आज भी देखा जा सकता है, जिन्हें अन्यत्र लोग भूल चुके हैं. यही कारण है कि ‘कसप’ के पौटी-प्रसंग (गूएन यानि गू-गंध) को पढ़ते ही मेरे मन में अपने बचपन का एक जीवंत बिम्ब उभर आया था.
हमारे छुटपन में बच्चा जब दो-तीन साल का हो जाता था, उसे पौटी करने के लिए एक सार्वजनिक पगडंडी के पास भेजा जाता था. मुख्य पगडंडी का ही करीब सौ मीटर का यह टुकड़ा गाँव के बीच से ही गुजरने वाला रास्ता होता था, जिसकी बनावट कुछ ऐसी होती थी मानो अनेक गुसल-पौटों को एक क्रम में सजाया गया हो. यह सारा तामझाम बच्चों की अपनी जरूरत के अनुसार उनके द्वारा खुद ही बनाया जाता था जिसे हम अपनी भाषा में ‘गौन’ कहते थे. कोई भी बच्चा पौटी के लिए गौन के अलावा अन्यत्र नहीं जा सकता था; अगर गलती से चला गया तो उसे इसकी सजा मिलती थी. खास बात यह थी कि इसका निर्माण बच्चे अपनी सुविधा से, अपने औज़ार एकत्र करके खुद ही करते थे. घर के अभिभावकों को यह बताने की जरूरत नहीं होती थी कि पौटी की जरूरत होने पर उसे कहाँ जाना है और वहाँ किस तरह बैठना है. पगडंडी के किनारे दो समानान्तर पत्थर रखे जाते थे, जिनके आकार का अनुमान बच्चा खुद अपने शरीर के वजन के आधार पर तय करता था. पहाड़ी ढलान पर मौजूद होने के कारण पाखाना नीचे के खेत पर गिरता, कभी खेत की दीवार पर भी अटक सकता था, जो अगली बरसात तक वैसा ही पड़ा रहता. पूरे साल पाखाना अपनी शाश्वत दुर्गंध (गुएन) के साथ ‘गौन’ की पहचान बना रहता और एक दिन मिट्टी के ढेलों की शक्ल लेकर खेतों की खाद-मिट्टी के साथ एकाकार हो जाता.
गौन का उपयोग करने के लिए कोई नियम नहीं बने थे. दो साल की उम्र के बाद गाँव का हर बच्चा, लड़का हो या लड़की, जरूरत होने पर इसका प्रयोग करता, अमूमन दस-बारह साल की उम्र के बाद वह गौन के बदले जंगल या झाड़ी की ओट का चुनाव कर लेता. दस साल से कम उम्र के बच्चे एक-दूसरे के अगल-बगल बैठे, एक-दूसरे के साथ झगड़ते, शरारत करते हुए सुबह का बड़ा हिस्सा वहाँ बिताते और पौटी करने के बाद चौड़े पत्ते वाले किसी कोमल पत्ते से अपना पिछवाड़ा पौंछकर घरों की ओर नाश्ता करने के लिए दौड़ पड़ते. कोई उन्हें बताता नहीं था कि उन्हें किस उम्र में गौन का उपयोग करना है और कब तक! और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता; अलबत्ता ‘पौटी’ से ‘जंगल’ का स्थानांतरण इस बात का अलार्म होता था कि बच्चे जवान होने वाले हैं और इसकी जानकारी भी गाँव के अभिभावक उन्हें नहीं देते थे. जरूरत पड़ने पर हर कोई अपना एकांत तलाश लेता था.
दसवाँ साल पूरा होते ही मैंने भी अपना गाँव और ‘गौन’ छोड़ दिये और आगे पढ़ने के लिए नैनीताल चला गया. नैनीताल में खेत नहीं थे, गौन नहीं थे और लड़के-लड़कियों के द्वारा पौटी करते हुए की जाने वाली शरारतें नहीं थीं. हालांकि वो बातें हमारे लिए शरारतें नहीं, आने वाली जिंदगी के नैतिक पाठ की तरह थे. उनमें अजीब-सी जिज्ञासाएँ होती थीं, मसलन ये कि पेशाब आने वाली जगहें हम दोनों में अलग शक्ल की क्यों होती हैं और लड़के तो खड़े-खड़े ही अपना काम कर लेते हैं, जब कि लड़कियों को झुककर बैठना पड़ता है. जल्दी ही हम समझ गए कि ऐसे सवाल पूछने पर बड़े लोग पिटाई करते हैं जब कि सारी जिज्ञासाओं के समाधान हम बच्चों को आपसी बातचीत में मिल जाया करते हैं. उन्हीं दिनों हमें मालूम हुआ कि बड़े लोगों के साथ बच्चे दोस्ती नहीं कर सकते जब कि बच्चों की एक-दूसरे के साथ दोस्ती को बड़े लोग सहन नहीं कर सकते.
नैनीताल शहर की भौगोलिक संरचना इस किस्म की है कि लगभग चारों ओर ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरे इस शहर की सारी गंदगी बहकर तालाब में जाती रही है और उसी पानी का प्रयोग लोग पेयजल के रूप में करते रहे हैं. 1841 में अंग्रेजों के प्रवेश से पहले आँख के आकार के तालाब की पहचान इस इलाके के राजा की बहिन ‘नैना देवी’ के रूप में थी. लोक विश्वासों के अनुसार अत्रि, पुलस्त्य और पुलह नामक पौराणिक ऋषियों की इस साधना-स्थली में किसी भी व्यक्ति को रात भर ठहरने की इजाजत नहीं थी और दिन में भी वहाँ केवल नंगे पैर जाकर पूजा की जा सकती थी. संभव है, यह विधान इसलिए रचा गया हो ताकि आदमी की गंदगी तालाब के पानी में घुलने न पाए.
मगर आदमी जाएगा तो अपने साथ अपशिष्ट भी ले ही जाएगा. अंग्रेजों की बसासत के साथ उनकी चाकरी के लिए स्थानीय लोगों का भी तालाब किनारे प्रवेश हुआ और धीरे-धीरे नैनीताल शहर यूरोपीय शहर के रूप में विकसित होने लगा. ऊँची पहाड़ियों के मध्य भाग पर अंग्रेज़ और नीचे घाटी में भारतीय बसते चले गए. साहब लोगों के लिए चर्च शैली में विशाल लौन और टैनिसकोर्ट वाले बंगले बनने लगे… लंदन, आयरलैंड, स्कॉटलैंड और यूरोप के चुनिन्दा शहरों से खूबसूरत पहाड़ी वनस्पतियाँ और फूल-पौंधे आयात किये गए और देखते-देखते नैनीताल मिनी यूरोप का आकार लेता चला गया.
ऐसे में नैनीताल को हिल-स्टेशन और भारतीयों का हनीमून सेंटर बनना ही था; ‘कसप’ के डीडी तिवारी और उसकी सदाबहार चुलबुली प्रेमिका मैत्रेयी उर्फ बेबी की नए जमाने की प्रेमकथा का क्रीड़ास्थल होना ही था. सो वह हुआ.
नैनीताल की खूबसूरत वादियों में बुनी गयी इस कथा का संबंध नायक-नायिका और शादी में आमंत्रित अतिथियों के लिए बनाए गए अस्थायी पौटी-घर के साथ है और यही वो बिन्दु है जहां पर से पूरी कहानी का वितान फैलाया गया है. नायक देवीदत्त, जो नायिका का दूर का रिश्तेदार भी है, इसी अस्थायी पौटी-घर में निबटने के बाद उठंग है और घुटनों तक खिसक आई उसकी पाजामा के इज़ारबंद में दोहरी गाँठ लग गयी है जिसे कुमाऊनी मे ‘मारगाँठ’ कहते हैं. नायक को ऐसी गाँठ को खोलना नहीं आता. इसी ऊहापोह में खड़ा नायक पाता है कि अधखुले दरवाजे पर नायिका उसके लिए चाय का गिलास लिए खड़ी है. नायक का संकट है कि वो अपना पाजामा सम्हाले या धराशायी गू को; नायिका का संकट यह है कि इस विचित्र परिस्थिति के बीच वो अपने हाथ में थामे हुए चाय के गिलास का क्या करे?… खुद उपन्यासकर भी इस दृश्य को लेकर पसोपेश में है कि क्या प्रेम कथा का आरंभ करने के लिए यह दृश्य पाठक में कलात्मक अभिरुचि जगा सकने में समर्थ हो सकेगा?
ऐंथनी मेकडोनाल्ड को ब्रिटिश हुकूमत ने 1895 में नैनीताल इसलिए भेजा था ताकि वह आदमी और पौटी के रिश्ते से पैदा होने वाली विकट समस्या के समाधान खोज सके. निश्चय ही वह समस्या ‘कसप’ उपन्यास के नायक और नायिका की नहीं रही होगी क्योंकि वे दोनों ऐंथनी के नैनीताल आगमन के लगभग एक सदी के बाद उस समस्या से जूझ रहे थे. समस्या ब्रिटिश और आइरिश व्यापारियों से जुड़ी थी, जो 1841 में नैनीताल आ चुके थे. अगर ऐंथनी मेकडोनाल्ड बच गया होता तो हालत कुछ और होते. या अगर उसके दुर्भाग्य से उसके आने के साल भर बाद ही 1896 में नैनीताल में हैजा न फैला होता. एक यूरोपवासी के लिए इससे बड़ा संकट नहीं हो सकता कि शून्य के इर्दगिर्द तापमान वाली जगह में ऐसी संक्रामक बीमारी घर कर ले. यह भी अच्छा ही हुआ कि ऐंथनी ने चुटकी में भांप लिया कि इस बीमारी का संबंध तालाब के पानी में घुलती जा रही गंदगी के साथ है, इसलिए उसने पाखाना सफाई के लिए अपने देश में अपनाया जाने वाला तरीका ‘बंपुलिस’ नैनीताल में लागू करने की सोची. खास बात यह थी कि खुद ऐंथनी लंदन के ऐसे सबर्ब से था जिसमें चीड़ के घने जंगल थे और वे लोग ऐसे संक्रमण से निबटना जानते थे.
सबसे पहले ऐंथनी ने प्रशासन से मिलकर यह आदेश निकाला कि नैनीताल में कहीं भी कोई खुले में शौच नहीं करेगा. विदेशियों के बंगलों और भारतीयों के मुहल्लों में आदमी का मल एक ही जगह पर एकत्र किया जाएगा. आवादी से दूर के कुछ स्थानों पर उसे जलाने के लिए बंपुलिस बनाए गए जहां इस काम के लिए नियुक्त कर्मचारी मैले को ढोकर ले जाते. लीसायुक्त चीड़ के पत्तों से उसे जला दिया जाता था. मगर कुछ समय के बाद ऐंथनी मेकडोनाल्ड के सुझाव से ही नैनीताल में सीवर लाइन बिछाई गयी. तालाब के पानी की सफाई के साथ ही पेयजल के रूप में जंगल के जल-स्रोतों को जोड़ा गया. इसके साथ ही ऐंथनी ने ढालू पहाड़ियों पर जगह-जगह पानी के निकास के लिए नालियाँ बनवाईं और इससे नैनीताल के तालाब को चारों ओर से घेरे हुए चट्टानों में मजबूती आई. लोगों को आवास के लिए मजबूत सहारा मिला और पीने के लिए स्वास्थ्यवर्धक पानी.
ऐंथनी मेकडोनाल्ड ने पहाड़ों में मल-निस्तारण के लिए भले अनेक योजनाएँ बनायीं, वे मुख्य रूप से अपनी बंपुलिस परियोजना के लिए ही जाने गए. इस प्रणाली में मल को चीड़ की पत्तियों से जलाया जाता था, इसलिए इससे दूसरी तरह के प्रदूषण का रास्ता खुल गया. साफ और प्राणदायक वायु के बीच मल और चीड़ की पत्तियों को जलाने से फेफड़ों में अलग तरह के संक्रमण का रास्ता खुला. इस खतरे की ओर जब ध्यान आकर्षित किया गया तो बंपुलिस के अपने फायदे गिनाए जाने लगे. अंग्रेज़ अपने साथ क्षयरोग लाये थे, जिसकी पहचान भारत में अमीरों की बीमारी के रूप में थी. कहा गया कि चीड़ की हवा फेफड़ों को सुरक्षा प्रदान करती है, इसलिए इसके धुएँ से कोई खतरा नहीं है. 1896 में एंथनी की अध्यक्षता में सेनेटरी कमेटी का गठन किया गया जिसने नैनीताल की सेहत से जुड़ी समस्याओं का विस्तार से अध्ययन किया; यही नहीं, अनेक स्थायी समाधान प्रस्तुत किए. अपने प्रयासों में ऐंथनी मेकडोनाल्ड इतने लोकप्रिय हुए कि 1901 में जब उन्हौने नैनीताल छोड़ा, नैनीताल के लोगों ने उन्हें भावुकता भरा एक लंबा विदाई-पत्र भैंट किया, जिसमें इस बात को लेकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी कि उन्हौने जो प्रयास किए हैं, उससे नैनीताल वासियों को नयी जिंदगी प्राप्त हुई है. इसी क्रम में मल-निस्तारण संबंधी उनकी विधि को भारत के दूसरे पहाड़ी शहरों में भी अपनाया गया. विदाई समारोह में नैनीताल के निवासी फूट-फूट कर रोये थे.
इसी क्रम में मेकडोनाल्ड के भारत आगमन की लगभग एक सदी के बाद हिन्दी कथाकार मनोहरश्याम जोशी ने गंगोलीहट के गौनों (पाखाना भरी गलियों) का जिक्र किया और उस गू-गंध की तुलना शिखरों में बिछे ‘गर्वोन्नत हिम-शिखरों’ की आध्यात्मिक गंध से की.
क्या हमारा हिन्दी समाज जोशीजी की इस अजीबोगरीब गंध-स्थापना को कभी स्वीकार करेगा?
कहाँ हिन्दी लेखकों की जन्मभूमि गंगोलीहाट और गुम देश के गौनों से फूटने वाली गू-गंध और कहाँ आयरलैंड, स्कॉटलैंड और सारे संसार में एकछत्र राज्य करने वाली ब्रिटिश हुकूमत की बंपुलिस-गंध. क्या सचमुच इनकी तुलना की जा सकती है?
चीड़ तो दुनिया में सभी स्थानों पर क्षयरोग नाशक ही होता है चाहे वह चेकोस्लावाकिया के प्राग में रहने वाले काफ्का के फेफड़ों के लिए हो, कृष्णा सोबती के ‘बादलों के घेरे’ के मन्नू के, या रुद्रप्रयाग के कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल के लिए! आज भी चीड़ हर देश में एक औषधीय-वनस्पति ही है मगर भाषाओं में उसका अर्थ और आशय कितना बदल गया है.
जैसे हिन्दी ‘गू’, पहाड़ी ‘गुएन’ और एंग्लो-इंडियन ‘पौटी’.… यह हिन्दी वालों के विवेक पर है कि वे किस अर्थ और आशय को अपनाते हैं.
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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