मैं बुकिल हॅू, कुछ लोग मुझे बकौल भी बोलते हैं. वह बकौल नहीं, जो अरबी भाषा का शब्द होते हुए भी आम बोलचाल में कथनानुसार के अर्थ में खूब प्रयुक्त होता है. बल्कि वह बकौल का पौधा, जो उत्तराखंड के बीहड़ जंगलों व बंजर भूमि पर बेखौफ उग आता है. मुझे कोई इन्सानी परवरिश की कभी जरूरत महसूस नहीं हुई लेकिन इन्सान है कि मुझे दुत्कारता रहा है, तिरस्कृत करता रहा है.
(Bakol or Bukil Flower Uttarakhnd)
इन्सान ही क्या मेरे सहचर जंगली पशु-पक्षी ने भी कब मुझे तरजीह दी. बरसात शुरू होते ही मैं जंगलों में खुद-ब-खुद अपने अस्तित्व का अहसास कराने लगता हॅू. सावन-भादो में जब जगलों की हरियाली लौटती है तो मैं भी अपना जलवा बिखेरने में तनिक भी संकोच नहीं करता, यह जानते हुए भी मेरा अस्तित्व होते हुए भी मैं अस्तित्वहीन का जीवन जीता हॅू.
सावन-भादों के महीने में, मैं अपनी भरपूर तरुणाई में रहता हॅू, लेकिन इन्सान तो छोड़िये, पशु-पक्षी तक मेरे गदराये यौवन पर मुंह मारना तो छोड़िये, मेरी ओर नजर घुमाना भी मुनासिंब नहीं समझते. यों ही अपने कद्रदानों की उम्मीद लगाये हुए आश्विन (असौज) माह के आते-आते गुच्छों के रूप में सफेद फूलों का गुलदस्ता अपने सिर पर सजा लेता हॅू और वे गदराये पत्ते जमीन पर न गिरकर मेरे ही तन पर सूखकर मेरी देह से चिपके रहते हैं.
मेरा दुर्भाग्य देखिये कि इन सुन्दर (मेरी दृष्टि में) पुष्प गुच्छों को देवताओं के शीश पर अर्पण किये जाने का सौभाग्य तो छोड़िये, अपनी तारीफ में इन्सानी जज्बातों का भी मोहताज ही रहा हूं. फिर भी मैं खिलता हॅू, पूरी शिद्दत से खिलता हॅू, और सूखी देह पर अपनी एक भी पंखुड़ी को तब तक खुद से अलग नहीं करता, जब तक सशरीर जमींदोज न हो जाऊं.
(Bakol or Bukil Flower Uttarakhnd)
इन्सानों को मुझसे प्यार न सही, लेकिन मुझे खुद से बेपनाह मुहब्बत है. तभी तो किसी को लम्बी उम्र की दुआ देने के लिए बकौल या बुकिल जैसे फूलने का मुहावरा गढ़ा गया होगा. गैर उत्तराखंडियों को बताना उचित होगा कि पूरी उम्र जीकर जब में पूरा श्वेत हो जाता हॅू, ऐसे ही आप भी पूरे केश सफेद होने तक लम्बी उम्र जीयें और में इसी में इतराने लगता हॅू कि कम से कम मेरा लाक्षणिक उपयोग तो हुआ. लेकिन ये लाक्षणिक प्रयोग सकारात्मक के साथ नकारात्मक सन्दर्भ में अधिक हुआ है, यही विडंबना है. अब देखिये ना – ’’त्यार हांगन बकौल फुलि जो” (तेरे खेतों में बकौल या बुकिल फूल जाये) का आशय है, तेरे खेत बंजर हो जायें. इस तिरस्कार को भी मैं सहन कर लूं. लेकिन जब किसी गांव की आमा से कोई बात पूछी जाय और उसका उत्तर हो – ’’द बुकिल’’ अथवा ’’बुकिलक जौड़’’. इसका आशय हुआ – कुछ भी नहीं, अस्तित्वहीन , शून्य या कहें नगण्य, निरर्थक. स्वयं के अस्तित्व की चुनौती का यह जहर आखिर कब तक पीता रहॅूगा मैं?
क्या तुम भूल गये? मैंने कितने घरों के चिरागों को जलाया था, कितने घरों के चूल्हों की आग से तुम्हें भोजन कराया था, तब जब हम विकास व आधुनिकता की चकाचौध से कोसों दूर सहज व सरल जीवन जिया करते थे. याद करो उस दौर को जब दियासलाई जैसी वस्तु नहीं आयी थी. मेरे तने की नरम रेसों की लुग्धी बनाई जाती और डांसी पत्थर और लोहे के ठिनके के घर्षण के बीच मुझे रखा जाता. पत्थर और लोहे के घर्षण के बीच मुझे रखकर घर्षण से उत्पन्न चिंगारी को सुलगाना मेरा ही काम होता. जब दोनों के बीच टकराव की चिंगारी उपजे तो मध्यस्थ का काम उस चिंगारी को शान्त करना होना चाहिये था, लेकिन मैंने उसको बुझाने के बजाय सुलगाने का काम किया. शायद इसी कारण मैं आज तिरस्कृत जीवन जीने के लिए अभिशप्त तो नही हॅू?
(Bakol or Bukil Flower Uttarakhnd)
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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1 Comments
Sunita dhyani
बुकिल को गढ़वाली में बुगुलु भी कहा जाता है हमारे क्षेत्र में ।
इसके फूल पित्रों को चढ़ाएं जाते हैं,, श्राद्ध में जब तर्पण देते हैं ।