उत्तराखण्ड के प्रयाग तथा काशी के नाम से विख्यात सरयू नदी के संगम पर अवस्थित बाघनाथ मन्दिर पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थल है. इस स्थल को मार्कण्डेय मुनि की तपस्थली अथवा तपोभूमि माना जाता हैं. यह भी कहा जाता है कि जिस प्रकार सगर ऋषि के पुत्र भागीरथ ने अपने पूर्वजों के तर्पण हेतु गंगा का अवतरण किया, उसी प्रकार महर्षि वशिष्ठ द्वारा सरयू लायी गयी थी. मार्कण्डेय ऋषि की तपोभूमि में प्रवेश करते ही वेगवती, बलखाती लहराती सरयू ठिठक कर रह गयी. वशिष्ठ जी ने नदी के मार्ग में नील पर्वत की एक विशाल शिला पर मार्कण्डेय मुनि को ध्यान मुद्रा में समाधिस्त देखा और नदी के आगे न बढ़ने का कारण भी जान गये.
(Bagnath Mandir Bageshwar Uttarakhand)
वशिष्ठ जी ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश सहित अनेक देवी-देवताओं की स्तुति की अन्ततः शिव द्वारा इस समस्या का समाधान सुझाया गया. पार्वती ने गाय का रूप धारण कर मार्कण्डेय मुनि के सामने घास चरने का उपक्रम करने लगी. तदुपरान्त शिव द्वारा बाघ का रूप धारण कर घोर गर्जन करते हुए गाय रूपी पार्वती पर झपटे. गाय जोर-जोर से रम्भाती हुई मुनि की शिला की ओर दौड़ी. इससे मार्कण्डेय मुनि की समाधि भंग हो गयी और बाघ से गाय को बचाने के लिए मुनिवर अपनी शिला छोड़कर गाय की ओर दौड़े. इसी अन्तराल में सरयू नदी मार्कण्डेय शिला को स्पर्श करती हुई आगे बढ़ गयी. बाघ एवं गाय रूपी शिव और पार्वती भी मुनि के समक्ष अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गये.
इसी घटना के साक्ष्य के रूप में मुनि की प्रार्थना पर ‘व्याघ्रेश्वर’ नाम से शिव इस स्थल पर निवास करने के लिए सहमत हो गये. सम्पूर्ण घटना की पुष्टि के लिए आकाशवाणी हुई जिसमें उमा-महेश की स्तुति की गयी. इसी वाणी के फलस्वरूप वाणेश्वर मन्दिर का निर्माण किया गया. इस तरह सरयू के बहने से आज भी आम जनता में यह धारणा छायी है कि ‘गंग नान बागश्वर और देवता देखन जागश्वर’ अर्थात गंगा स्नान के लिए बागेश्वर और देवताओं के दर्शन के लिए जागेश्वर जाना चाहिए.
कार्तिकेयपुर के अनेक राजाओं द्वारा व्याघ्रेश्वर मन्दिर के रख-रखाव एवं पूजा-पाठ के लिए भूमिदान की गयी थी. इनमें लगभग 9वीं शती ई. के दौरान कार्तिकेयपुर से निर्गत भूदेव का एक प्रस्तर अभिलेख बाघनाथ मन्दिर बागेश्वर से प्राप्त होने का उल्लेख प्राप्त होता है. सर्वप्रथम उक्त शिलालेख जनरल ऑफ द एशियाटिक ऑफ बंगाल भाग एक में प्रकाशित हुआ था. मि. ट्रेल द्वारा इस लेख की प्रतिलिपि ई. टी. एटकिंसन को उपलब्ध करायी गयी. उन्होंने इसका अंग्रेजी रुपान्तर हिमालियन गजेटियर खण्ड एक में प्रकाशित किया है. इसके उपरान्त श्री बद्री दत्त पाण्डे द्वारा कुमाऊँ के इतिहास नामक पुस्तक में उल्लेख किया गया है. डी.सी. सरकार द्वारा भी बागेश्वर मन्दिर के शिलालेख का संक्षिप्त उल्लेख एपिग्राफिका इण्डिका, भाग ग्यारह में किया गया है. यह उल्लेख उन्होंने पाण्डुकेश्वर की तीन ताम्रपत्रों के विषय एवं मूल पाठ की तुलना करने के लिए किया. राजा भू-देव के नवी शती के अभिलेख में आठ राजाओं के नामों का उल्लेख किया गया है.
भूदेव के बागेश्वर शिलालेख में बाघनाथ मन्दिर को ‘ व्याघ्रेश्वर’ के नाम से सम्बोधित किया गया है. कार्तिकेयपुर में राजा भूदेव का शासन काल नवीं शती ई. के मध्य अनुमानित किया जाता है. इससे यह संभावित है कि व्याघेश्वर मन्दिर का निर्माण भदेव तथा इसके पूर्वजों से बहुत पहले हो चुका था. दो नदियों गोमती और सरयू के संगम पर स्थित व्याघेश्वर नामक स्थल धार्मिकता के साथ-साथ व्यापारिक केन्द्र के रूप में भी प्रसिद्ध रहा हैं. इस स्थल पर प्रतिवर्ष कार्तिक माह में उत्तरायणी मेले के दिन का आयोजन प्राचीन काल से होता रहा है. इसका उल्लेख कत्यूरी राजा ललितसूरदेव तथा पदमटदेव के ताम्रपत्रों में भी किया गया है. इस मेले के अवसर पर पूर्व में नेपाल, भोट क्षेत्र एवं तिब्बत देश से अनेक व्यापारी अपने परिवार के साथ उस क्षेत्र की सामग्रियों को निकर करने के लिए लाते थे. इनमें ऊन से निर्मित सामग्री दन, चुटका, थुलमा, आसन, पशमीना, शॉल, बनियान आदि और निंगाल से निर्मित वस्तुएं सबसे अधिक होती थी. यहाँ तक कि कुत्ते, घोड़े तक इस मेले में विक्रय हेतु लाते थे.
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उत्तरायणी मेले के दौरान क्रय-विक्रय क अतिरिक्त साँस्कृतिक कार्यक्रमों के अन्तर्गत लोक गीत-संगीत एवं लोक नृत्यों झोड़ा चाँचरी, ढोस्को आदि की धूम मची रहती थी. इसी के साथ व्याघेश्वर की पूजा-अर्चना तथा आशीर्वाद प्राप्त करते हुए भविष्य में पुनः बाघनाथ के दर्शन करने की कामना के साथ अपने अपने देश को वापस लौट जाते थे. इस प्रकार व्याघ्रेश्वर मन्दिर की आस्था प्राचीन काल से सम्पूर्ण उत्तराखण्ड तथा तिब्बत, नेपाल के देशों तक फैली हुई बागेश्वर बाघनाथ की धूम धार्मिक, आर्थिक व्यापारिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में स्थापित हो चुका था.
औपनिवेशिक काल में कुली बेगार प्रथा को समाप्त करने के लिए बद्री दत्त पाण्डे जी के नेतृत्व में उत्तरायणी बेगार प्रथा का जोरदार विरोध किया गया. इस विरोध का फल आम जनता को मिला. आज भी इस दिन विभिन्न जनप्रतिनिधि इस स्थल में आकर अपनी राजनैतिक भूमिका की रस्म निभाते हैं. तत्कालीन समय से आयोजित मेला सदियों से चला आ रहा है. बुजर्गवार जनों का कथन है कि पहले तो यह मेला एक महिना, पन्द्रह दिन तक चलता था. कुछ समय पश्चात सात दिन अब तो तीन दिन में छटनी शुरू हो जाती है. कोई रूकना ही नहीं चाहता. लोग मोल-भाव से ही खरीददारी करते हैं.
लक्ष्मीचन्द ने अल्मोडा में लक्ष्मेश्वर मन्दिर के निर्माण के बाद बागेश्वर में बाघनाथ मंदिर बनाने का निर्णय लिया. कहा जाता है कि जब बागेश्वर में बागनाथ मन्दिर का निर्माण हो रहा था उस समय एक वर्ष तक अपने ही देख-रेख में कार्य करवाते रहे, बीच में कभी अल्मोड़ा भी आया जाया करते थे. राजा बाजबहादुर चंद ने शाके 1593 एवं 1597 में बागेश्वर मन्दिर को गूँठ दी थी. इसी तरह राजा मोहन चन्द्र ने शाके 1708, 1709 एवं 1710 के शासन से ज्ञात होता है कि दूरस्थ क्षेत्र जोहार और मुनस्यार से लेकर इस मन्दिर हेतु चढ़ावा आता था जिससे कि मन्दिर की व्यवस्था यथावत बनी रहे. यही नहीं भैरव मन्दिर के लिए भी राजा मोहन चन्द्र ने शाके 1710 में ताम्रनाली भेंट स्वरुप दी जिससे कि निर्धारित माप के अनुसार क्षेत्रीय जनता मन्दिर की व्यवस्था हेतु अपना योगदान करे और सुव्यवस्थित कार्य क्रियान्वित हों.
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बागनाथ मन्दिर परिसर, लघु मूर्तिशैड एवं बागेश्वर के बाबा अखाड़े, भैरव नाथ, ढिकाल भैरव, वाणेश्वर तथा अन्य आधुनिक मन्दिरों में लगभग सातवीं से दशवी शती ई. के दौरान निर्मित देवालयों के अनेक अवशेष तथा प्राचीन प्रस्तर प्रतिमाएं रखी हुई हैं. इनमें चैत्यगवाक्ष, द्वारशाखाएँ तथा विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियाँ – उमा-महेश, सूर्य, विष्णु, पार्वती, महिषसुरमदिनी, दशावतार पट्ट, सप्तमातृका पट्ट, चतुर्मुखी, पंचमुखी शिवलिंग, हरिहर, गणेश, कार्तिकेय सहस्रमुखी शिव लिंग शेषशायी विष्णु, नन्दी, गणेश आदि प्रतिमाएं उल्लेखनीय है. उक्त प्राचीन देवालयों एवं प्रतिमाओं के आधार पर यह अनुमान लगभग सहज हो जाता है कि दोनों नदियों के संगम पर लगभग छठी, सातवी शती ई. के पहले से ही देवालयों का निर्माण होता रहा था.
सर्वविदित है कि पूर्व काल से मध्यकाल से पहले देवालयों के निर्माण में प्रस्तर खण्डों के स्थान पर काष्ठ का प्रयोग किया जाता था जो कालान्तर में नष्ट हो गये. लगभग छठी सातवीं शती ई. से कत्यूर राजाओं के शासन काल के दौरान कुमाऊँ क्षेत्र के अन्य स्थलों की भॉति इस स्थल पर भी पीढ़ा शैली के अनेक देवालय निर्मित किये गये होंगे जो संभवत् कालान्तर में गोमती व सरयू नदी में आयी बाढ़ अथवा आपदा के कारण नष्ट हो गये होंगे. आज जिनके सीमित अवशेष तथा तत्कालीन अधिकतर प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं. इन प्रतिमाओं को पुरातत्व विभाग ने अपने लघु मूर्तिशैड में रखा गया है.
बागनाथ का वर्तमान देवालय चंदवंशीय राजा लक्ष्मीचन्द द्वारा सन् 1602 ईस्वी में निर्मित करवाया था. कुमाऊँ पर लक्ष्मीचन्द का शासनकाल सन 1597 से सन् 1621 तक माना जाता है. बागनाथ मंदिर के प्रांगण में निर्मित लघु देवकुलिकाऐं परवर्ती काल की हैं. इसके निकट विद्यमान वाणेश्वर मंदिर वास्तु कला की दृष्टि से बाघनाथ मंदिर के समकालीन प्रतीत होता है किन्तु भैरवनाथ मंदिर आधुनिक निर्मित है.
बागनाथ मन्दिर का पुरातात्विक दृष्टि के अन्तर्गत चहारदीवारी के मध्य निर्मित बागनाथ मंदिर के तलविन्यास के अन्तर्गत गर्भगृह, अन्तराल तथा गूढ मण्डप का निर्माण किया गया है. गर्भगृह की बाहरी माप 7.0 x 6.50 मीटर है. उर्ध्वविन्यास के अन्तर्गत विभिन्न गढ़नों से युक्त वेदीबन्ध, सादा जंघा भाग तथा पंचस्थ रेखा शिखर बनाये गये हैं. सबसे ऊपर विशाल आमलक के ऊपर काष्ठ छत्र में ताम्र छत से विजौरा का निर्माण किया गया है. अन्तराल की कपिली के ऊपर गजसिंह स्थापित किया गया है. गर्भग्रह की वाह्य भित्तियों में तीन ओर देवालय के आकारित रथिका बिम्बों का निर्माण किया गया है इस मन्दिर के पश्चिम पार्श्व में रधिका विम्ब ने जालक का कार्य किया गया है. इन रथिका विम्बों पर आधारित खिड़कियाँ बनायी गई है, जिनमें गर्भगृह में प्रकाश पहुंचने की व्यवस्था है.
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बागनाथ मंदिर के गर्भगृह के मध्य में प्राकृतिक रूप से स्वयं भू शिवलिंग के आधार की एक चट्टान विद्यमान है. (जिसमें शिव पार्वती की कल्पना की गयी है.) शिव को स्वयं भू-रूप मानकर पूजा की जाती है. इसके गर्भगृह में निर्मित ताखीं तथा मण्डप में आठ प्राचीन प्रतिमाएं रखी हुई है| मण्डप के दायें पार्श्व में भोग द्वार तथा मण्डप की छत पर पहुँचने के लिए दो तरफ संकरा सोपान भी निर्मित है. बाघनाथ मंदिर का मुख्य द्वार दक्षिण की ओर है, जिसके सम्मुख नन्दी की अनेक मूर्तियाँ तथा लघु देवकुलिकाएं विद्यमान हैं.
सरयू के दायें तट पर चारदीवारी के भीतर वाणेश्वर मंदिर विद्यमान है. स्थानीय प्रसाधित प्रस्तर खण्डों से निर्मित देवालय के तल विन्यास के अन्तर्गत केवल चार मीटर वर्गाकार गर्भगृह बनाया गया है. तल विन्यास के अन्तर्गत विभिन्न गढ़नों से निर्मित वेदीबंद सादा जंघा भाग तथा ऊपर पंचरथ रेखा शिखर का निर्माण किया गया है. मन्दिर को शीर्ष पीठिका के आधार बनाया गया है जिसके ऊपर विशाल आमलक, कलश तथा विजौरा स्थापित किया गया है. उत्तराभिमुख मन्दिर की शुकनाश के रूप में गजसिंह को एक पाटिया पर स्थापित किया गया है. गर्भगृह की वाह्य भित्तियों के तीन ओर मन्दिर के आकार के स्तम्भों पर आधारित खिड़कियों का निर्माण किया गया हैं.
बाघनाथ मंदिर प्रांगण में चार लघु देवकुलिकाएं विद्यमान है ये सभी देवकलिकाएं त्रिरथ प्रकार की रेखा शिखर युक्त नागर शैली में बनाई गयी. सभी देवकुलिकाओं के शीर्ष पर आमलक के ऊपर आकाश लिंग स्थापित किये गये हैं इनमें से एक देवकुलिका गर्भगृह में स्थानक सूर्य की प्रतिमा स्थापित की गयी है. अन्य देवकुलिकाओं में चतुर्मुखी व एक मुखी शिवलिंग रखे हुए हैं. मूर्तिशैड के सामने एक अन्य चतुर्मुखी शिवलिंग खुले आकाश में पूजा हेतु स्थापित है.
गोमती नदी के बायें तट पर भैरवनाथ मन्दिर स्थापित है. यह पूर्ण रूप से आधुनिक मन्दिर है जो सामान्य बावड़ियों की तरह ढलवा छत युक्त चौपखिया है किन्तु इस मन्दिर के बाहर तथा भीतर अनेक प्राचीन प्रतिमाएं रखी हुई हैं जो पूर्व मध्यकाल में निर्मित देवालयों में स्थापित की गयी थी. भैरव नाथ मन्दिर परिसर एवं गर्भगृह में अनेक प्रतिमाएं रखी गयी हैं. इसके अतिरिक्त अनेक महत्वपूर्ण प्रतिमाएं ढिकाल भैरव नाथ मन्दिर में रखी गयी हैं.
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साँस्कृतिक दृष्टि से इस स्थल का महत्व विशेष है. इस स्थल के मेला-ठेला, पुरातत्व और इतिहास एवं आर्थिक पक्ष को दृष्टिगत रखते हुए इसके साँस्कृतिक व धार्मिक पहलू के अन्तर्गत भी नजर अथवा दृष्टिपात करना आवश्यक है. धार्मिक पक्ष के अन्तर्गत बागनाथ मन्दिर में प्रतिदिन भोग लगाया जाता है. इस भोग को मन्दिर की व्यवस्था हेतु नियुक्त रावल लोगों की प्रति परिवार बारी लगती है जिस परिवार की बारी होगी उसी परिवार का सदस्य ही मन्दिर में भोग लगवाने हेतु सामग्री देते हैं अथवा जाते हैं.
प्रतिदिन भोग में पाँच किलो चावल, एक किलो दाल (उड़द, गहत, राजमा, अरहर आदि, मलका मसूर नहीं देते थे.) नमक, मिर्च, मसाला आदि, धूप-दीप जलाया जाता है. भोग में एक अथवा आधा पाव घी सामर्थ्य के अनुसार साथ में सामर्थ्य के अनुसार 1 किलो से पाव भर तक तेल के साथ बाती भेंट आदि दी जाती है. वर्तमान में भोग लगवाये जाने की व्यवस्था रावल परिवार ने पंडित को रखा गया है जो कि प्रतिदिन भोग लगवा सके. इस दिन कोई भी सदस्य अथवा परिवार का कोई भी बाहरी व्यक्ति भोग लगवा सकता है बशर्ते की उसे रुपया अथवा सामग्री खरीद कर पुजारी को देना पड़ता है. भोग लगाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि उस समय शमशान घाट में कोई चिता न जल रही हो. बिना शव के घाट में पहुँचे अथवा जलने के बाद ही पूजा होती है. अपरिहार्य कारणों से यदि कोई शव शमशान घाट में नहीं पहुँचता है उस समय तक अर्थात दो तीन बजे तक भोग लग पाना संभव नहीं होता है. ऐसा समय वर्ष में कभी ही आता है अन्यथा ऐसा नहीं के बराबर ही होता है. अतः यह भी कहा जा सकता है कि सोमवारी अमावस्या की तरह कभी हो जाता था अथवा है. इस दिन भोग लगने से पहले कम्बल का टुकड़ा जला दिया जाता था, और जलाते थे ऐसी लोक परम्परा थी. यह परम्परा, अब कुछ वर्षों से नहीं चल रही है ऐसा बागनाथ मन्दिर के पुजारी खीमानन्द पंत का कथन है.
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इसी तरह काल भैरव मन्दिर में सवा किलो से सवा पाँच तक स्वेच्छा से अधिक भी कोई भी खिचड़ी (उड़द, चावल मिश्रित) चढ़ाने का प्राविधान है. कम से कम सवा किलो तो चढाना ही है. इसके साथ भेंट, घी, तेल, विभिन्न मसाले आदि यहाँ भी बाघनाथ मान्दर की तरह रोज भोग लगता है.
राजा जगत चन्द शाके 1710 में यहाँ की भोग व्यवस्था हेतु एक ताम्रनाली भी अर्पित की गयी जिसमें कितनी सामग्री गाँव-गाँव से उघानी है इसका व्यौरा भी दिया गया है. यहाँ के पुजारियों की भी रावल परिवार की तरह रोज प्रति परिवार बारी आती है. जैसा कि बागनाथ में चावल का भोग लगता है यहाँ खिचड़ी के साथ-साथ पुड़ी भी बनायी जाती. बलि के दिन यहाँ बकरे का सिर चढ़ाया जाता है साथ में पुजारी की एक सापड़ी निर्धारित की गयी है. कभी-कभी यहाँ भक्त जनों द्वारा लाखा (हिलवाड) बोका, बकरियों की इतनी भीड़ हो जाती है कि क्षेत्र में जगह नहीं हो पाती है.
बागेश्वर में एक परम्परा और भी है कि चिता को जलाने के लिए ढिकाल भैरव मन्दिर की धूनी से आग की मशाल ली जाती है. इसी मशाल से चिता में आग अथवा मुखाग्नि दी जाती है. यह एक प्रकार लेकर रूप में अथवा इस शमशान स्थल में जलाने हेतु सहमति दी जाती है और बदले में इस आग की कीमत पहले दो रूपये से बढ़कर आज बीस अथवा तीस रुपया अथवा स्वेच्छा से जो जितना अधिक दे सके, सम्बन्धित पर निर्भर है. बिना यहाँ से आग लिए चिता को नहीं जला सकते है ऐसी लोक मान्यता है. तत्कालीन समय में चन्द राजाओं ने भी बहुत से गाँव को गूँठ में यह व्यवस्था की गयी है कि उन्हें मृतक व्यक्ति की चिता हेतु कोई पैसा नहीं देना पड़ता. आज भी नहीं देते हैं. उदाहरणार्थ सोमेश्वर के पास भाना राठ बोरा राह आदि लोग आज भी नहीं देते हैं. अतः यह कहा जा सकता है कि यह परम्परा सदियों से राजाओं द्वारा अपनायी गयी एक कर नीति है.
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बागनाथ मन्दिर में प्रतिवर्ष शिवरात्रि में मेला लगता है और इस दिन बम भोले व जय बागनाथ के अलावा कोई दूसरा शब्द नहीं होता है. इसी तरह सावन मास में प्रति सोमवार के अतिरिक्त भी यहाँ भक्तों का स्नान के लिए तांता लगा रहता है. प्रति माह के पर्वों में अमावस्या, पूर्णिमा, पडेवा, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, त्रयोदशी एवं चतुर्दशी को यहाँ भक्तों का स्नान व दर्शन हेतु भीड़ लगी रहती है. इस परिसर स्थल में स्थानीय लोगों के अतिरिक्त बाहर के पर्यटक लोग भी आते हैं. यहाँ प्रतिवर्ष सावन की काल चतुर्दशी के दिन और विभिन्न पदों में स्थानीय लोग गंगा स्नान के लिए आते हैं.
इसी तरह जूना अखाड़े में भी प्रति पर्व और त्यौहारों का पालन किया जाता है. यहाँ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्रति चिता पर धूनी से अग्नि का एक प्रकार से कर लिया जाता है जिससे महन्तों अथवा जूना अखाड़े में पधारने वाले साधु संतों को उचित समय पर भोजन मिल सके. सरयू नदी के तट पर स्थानीय जनों के अतिरिक्त देश-विदेश के लोग भी यहाँ पर विभिन्न पर्वों में अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्ति के लिए श्राद्ध, तर्पण आदि भी किया जाता है. यहाँ पर विभिन्न पदों में पंडित जी अपने-अपने क्षेत्रों, गाँव के लोगों की सुविधा हेतु अपने जजमान की पूजा हवन, तर्पण आदि किया करते है. शहर में गाय भी मिल जाती है ताकि वे गौदान भी कर सके. यहाँ प्रति वर्ष चैत्र, सावन, माघ मास में यज्ञोपवीत संस्कार भी करवाये जाते हैं. बागनाथ मन्दिर में इस प्रकार बागेश्वर के तीर्थ स्थल के विकास के लिए स्थानीय जन प्रतिनिधि, प्रशासन आदि जन एक जुट होकर जुटे हैं.
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डॉ. मदन चन्द्र भट्ट और चन्द्र सिंह चौहान का यह लेख श्री नंदा स्मारिका 2011 से साभार लिया गया है.
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