पिथौरागढ़ शहर से लगे देवकटिया के जंगल की ऊंचाई ज्यादा नहीं है पर चढ़ने लगो तो थोड़ी साँस फूलती ही है. और अब तो अंधेरा भी हो चुका था. मैं अपने भाई सैंडी के जोश और एक हेड लैंप की रौशनी के सहारे उस घास भरे रास्ते पर आगे बढ़ा जा रहा था. सांसों को सुस्ताने की कोशिश में हम चीड़ के पेड़ से लगी एक छोटी सी चट्टान के पास कुछ देर रुके और फिर आगे बढ़ चले. मैं यहाँ अक्सर अकेले या दोस्तों संग कैम्पिंग करने आता रहा हूँ तो पता था कि ये रास्ता एक संकरी जगह से होता हुआ आगे के खुले मैदानों में खुलेगा.
(Bagh Memoir by Manu Dafaali)
तभी मेरे हेड लैंप की रौशनी दूर खड़े उस जीव की चमकती आँखों से टकरा पड़ी जो ठीक उसी संकरे रास्ते के पास एक पत्थर की दीवार के ऊपर खड़ा था. मैं जब भी उस दिशा की ओर फिर से देखता, घुप्प अँधेरे को चीरती वो आंखें फिर से चमचमा उठती.
मैंने सधे इशारों से यह बात सैंडी को बताई और उसने भी उन आँखों को देख लिया. अब वह जीव हमारी ओर उचक-उचक कर देखने लगा. शायद वह हमारा जायजा ले रहा होगा. हमारे बीच आंख मिचौली और कौतुहल से भरा एक खेल शुरु हो चुका था. उसने जितनी बार मुंडी उठायी मेरे मन में उतनी ही बार एक नए जानवर ने जन्म लिया. कभी लगा कोई खरहरा (जंगली खरगोश) है फिर लगा शायद पनोद (आटर), मार्टेन या सिवेट कैट होगा. जब लगा कि उसकी एक जोड़ी आँखों की बीच की दूरी कुछ ज्यादा है तो लगा शायद यह सियार या लोमड़ी होगा.
इस खेल को खेलते-खेलते हम धीरे-धीरे आगे बड़े. अब उस जानवर और हमारे बीच की दूरी मुश्किल से बीस मीटर भी नहीं बची थी. सैंडी और मैंने अब फुसफुसाना भी बंद कर दिया था. पर सबसे अजीब बात यह लगी कि वो जो भी जीव था वह अपनी जगह से बिलकुल भी हटने को तैयार नहीं था. इसी बात ने हमारे कौतुहल को घबराहट में बदल दिया. हम इतने डरे हुए थे कि एक दुसरे कि धड़कनें सुन सकते थे. अब बस दो-चार हाथ भर की दूरी बची होगी मैंने हिम्मत कर अपना कैमरा संभाला पर घबराहट ने भुला दिया कि बैटरी तो डाली ही नहीं, कैमरा ऑन कैसे हो? गहरा अँधेरा हेड लैंप की मद्दम रौशनी को खा चुका था और हमें कुछ भी साफ़ नहीं दिख रहा था.
(Bagh Memoir by Manu Dafaali)
डर के उस माहौल में मेरी उँगलियों ने न जाने किसी तरह से हेडलैंप के मोड बटन को ढूंढ़ लिया जिससे रौशनी की तीव्रता को कई गुना तेज़ कर दिया. और सैंडी उछल पड़ा – दा ये तो बाघ (तेन्दुआ) है.
साँसों ने कुछ सेकेंड्स का विराम लिया. पसीना वापस चमड़ी मे जज्ब हो गया. दिमाग ने तुरंत भागने का जो आदेश पैरों को दिया था वह पैरों ने मानने से मना कर दिया. आँखों की झपक जाम हो गयी, थूक गले में अटक गया. हम दोनों को बग्यात पड़ चुकी थी. (बाग्यात – तेंदुए के डर से सुन्न पड़ जाना)
फिर वह हिला और पत्थर की उस दीवार के पीछे की ओर कूदा जिससे हमारे सुन्न पड़े शरीर में भी कुछ हरकत आई और हमको एक मौका जैसा महसूस हुआ. वन्यजीवन का विद्यार्थी होने के नाते पढ़ा था कि ऐसे में हाथ उठा कर जोर से चिल्लाओ, खुद को बड़ा दिखाने की कोशिश करो. कुछ हिम्मत कर सैंडी और मैंने यही किया और धीरे-धीरे पीछे हटते रहे और जब हम कुछ दूरी बना चुके थे, तब हमने तेज कदमों से वहां से जितनी जल्दी हो सके निकल जाने की कोशिश की. यहाँ मैं तेज कदम लिख रहा हूँ लेकिन मुझे लगता है हमने पक्का ही दौड़ लगा रखी होगी. हम बारी-बारी से पीछे देखते कि कहीं वो पीछे तो नहीं आ रहा.
(Bagh Memoir by Manu Dafaali)
कुछ देर बाद हम, पहाड़ी ढलानों पर पसरे उन खुले मैदानों में पहुच चुके थे. अभी-अभी हमारे साथ क्या हुआ? ये सपना है या कोई कल्पना? इन सब चीज़ों के बीच हमने खुद को संभाला और फिर टेंट गाड़ दिया. ठीक उस जगह से 100-200 मीटर दूर जहां हमें वो तेंदुआ मिला था. अब इसे बेवकूफी कहो या कुछ और पर ऐसा हमने क्यूँ किया होगा यह समझ पाना और समझा पाना दोनों ही मुश्किल है.
हमने खाना बनाया, खाया पर रात भर हम सो नहीं पाए. कभी-कभी अगर एक झपकी आती भी तो वो आंखें फिर से चमक उठती और हमारी नीद टूट जाती. यह हमें पड़ी बग्यात की उत्तेजना का चरम था.
(Bagh Memoir by Manu Dafaali)
पिथौरागढ़ के रहने वाले मनु डफाली पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रही संस्था हरेला सोसायटी के संस्थापक सदस्य हैं. वर्तमान में मनु फ्रीलान्स कंसलटेंट – कन्सेर्वेसन एंड लाइवलीहुड प्रोग्राम्स, स्पीकर कम मेंटर के रूप में विश्व की के विभिन्न पर्यावरण संस्थाओं से जुड़े हैं.
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बहुत ही सुंदर सुंदर रचनाएँ है. अब तक मैं समान्य कहानी समझ रहा था. लेकिन ये बहुत सुंदर हैं.