उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता)
(पिछली क़िस्त से आगे)
विचारों को आने-जाने दें
22 जुलाई को जब मैं पहली दफा योगा (पहले होता था योग जब से इसके साथ `होगा… होगा… करने से होगा’ लगा है तब से ये योगा ही है) क्लास में मय हमराह कम्बल पहुंचा तो लोग योगियों की सी मुद्रा में ध्यान मग्न मिले. सामने से 26 इंची सीने वाला एक महायोगी प्रवचन जैसा कुछ दे रहा था. `विचारों का रास्ता नहीं रोकना है.. उसे आने दें…’ मुझे लगा कहीं ये मेरे लिए तो नहीं कह रहे क्योंकि उस वक्त मैं दरवाजे से लगकर जूते उतार रहा था और दरवाजे में मुह डालकर अंदर का सीन देख रहा था. ये हठयोगी से लगने वाले एटीआई के योग शलाका पुरुष रतूड़ी जी थे जिन्हें देखकर (गौर से देखकर, क्योंकि अगर हल्के-फुल्के अंदाज में देखें तो लगता था कि किसी परित्यक्त बिजली के पोल को मुहल्ले के शैतान बच्चों ने चौड़ी मोहरी वाली पैंट पहना दी हो) ऐसा लगता था कि इन्होने वास्तव में योग को अपना तन दे दिया हो. मन तो उनका बैडमिंटन में भी बहुत लगता था और धन के बारे में संविदा कर्मियों के सचिवालय कूच और धरना प्रदर्शनों से रू-ब-रू होने के बाद भी नो कमेंट्स.
मैं सबसे पीछे अपना आसन बिछाकर एकमात्र ज्ञात योग मुद्रा में बैठ गया. जिसे हम बचपन में आलती-पालथी कहते थे उसी का संशोधित-परिष्कृत रूप जिसमे टखनों को अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है और पंजे मुह बाए आसमान निहारने लगते हैं.
-`तो हम पहले करेंगे सूर्य नमस्कार’…
-`अब क्या बाहर जाना पड़ेगा सूरज तो आज वैसे भी नहीं निकला…’
मेरा दिमाग फास्ट ट्रैक पर था कि रतूड़ी जी ने फिर कहा
-`सीधे खड़े हो जाएँ… दोनों हाथ नमस्ते की मुद्रा में छाती के पास… अब सांस लेते हुए दोनों हाथों को सीधा करते हुए सर के ऊपर से होते हुए जितना पीछे ले जा सकते हैं ले जाएँ…’
मेरे सामने तीन ऑप्शन्स थे. पहला रतूड़ी जी के शब्दों को सुनता जाऊं और उसके अनुसार करूँ, दूसरा उन्हें देख देख कर करूँ क्योंकि actions speak louder than words. और तीसरा साथी योगी कलाकारों के अनुरूप करूँ. पहले के अनुसार करना तो बड़ा ही जटिल था क्योंकि जिस तरह की आदर्श काया इन मुद्राओं के लिए बताई जा रही थी वो बचपन से ही मेज-कुर्सी के बे-मेल कॉम्बिनेशन और खाट पर लोट-लोट कर की गयी पढ़ाई ने असंभव बना दी थी.
दूसरे की भी कमोबेश यही स्थिति बनती थी क्योंकि रतूड़ी जी को आसन करते देखना और करना आपको उस जगह लाकर छोड़ता है जहां आप मात्र एक किंकर्तव्यविमूढ़ दर्शक रह जाते हैं.
तीसरा ऑप्शन तो और भी कठिन लगने लगा क्योंकि सूर्य नमस्कार की तीसरी मुद्रा में जब दोनों हाथ आगे जमीन पर टिकाकर एक पैर पीछे कर सर को ऊपर उठाना होता है तब लगभग सारे साथी स्कूटर की शेप ले चुके थे, बस स्टार्ट करना बाकी था. मैंने चौथा ऑप्शन चुना और चुपचाप ध्यान में बैठ गया. silence jesticulates louder than words. काश कि कोई उस समय भी कहने वाला होता कि `होगा…होगा… करने से होगा’.
फिर धीरे-धीरे शरीर (और दमाग की भी) मांसपेशियां ढीली पड़ रही थीं, गांठें खुल रही थीं. पहली बार मेरा शरीर दाहिने-बाएँ-आगे-पीछे 60-60-40-22 डिग्री कोणों में मुड़ रहा था. कह दूं कि शुरुआती झिझक के बाद अब अच्छा लग रहा था. योगा की और कोई उपलब्धि हो या नहीं इतनी जरूर है कि आपको अपने शरीर की लोच के बारे में जानकारी हो जाती है और ये जानकारी भी कि जहाज बनाते वक्त कागज़ को जब जगह-जगह से मोड़ते हैं तो उसे कैसा फील होता होगा.
वृक्षासन में मेरी नजर आनंद अमृतराज दत्त शुक्ल पर गयी. बहुतों की गयी होगी. आ.अ.द.शु. को वृक्षासन करते देखना अपने आप में विचित्र अनुभव था. एक टांग पर उठे हुए आनंद पंखे की कड़ी से दो-चार मिमी ही नीचे छूटते थे और इस मुद्रा को देखकर लगता था कि अगर इसका नाम बदलकर उष्ट्रासन कर दिया जाए तो किसी को एतराज नहीं होगा.
एक था उत्तानासन. एक था प्रकाश. वैसे उस दौरान प्रकाश को आधा ही कहें तो बेहतर. इस आसन के दौरान जब प्रकाश आगे को झुक कर अपने पैर के अंगूठे की गोलाई नाप रहा था मेरी नजर पड़ी क्योंकि तब ही वो पहली बार मुझे चौड़ाई में दिखाई दिया. मुझे लगा दुष्यंत कुमार ने कभी प्रकाश को इस आसन में देखकर ही कहा होगा-
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा
अंत में हुआ शवासन. बेहिसो बेजान हो जाना क्या होता है जानना हो, तो एटीआई के भागीरथी 4 में आएं और प्रशिक्षुओं को शवासन में देखें. यही एकमात्र आसन था जिसे बड़ी शिद्दत से करते थे लोग. जो मांसपेशियों को ढीला छोड़ने से शुरू होता था और अक्सर खर्राटों पर खत्म होता था.
(जारी)
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