उस कमरे में रामलीला का साजो सामान पड़ा रहता था. शाम के वक्त वह कमरा मोहल्ले के लड़कों के अड्डेबाजी के काम आता था. उसका नाम रामलीला क्लब पड़ गया जो कि बाद में घिसकर मात्र क्लब रह गया.
लड़के शाम को वहां बैठ कर कुछ देर हंसी ठठ्ठा कर लेते, सिगरेट के कश लगा लेते, ताश खेल लेते और चोरी छिपे कभी पीना-पिलाना भी कर लेते. वह जगह मोहल्ले से जरा फासले पर थी तो काफी हद तक उसे एकांत कहा जा सकता था. रामलीला कमेटी से जुड़े लड़कों और उनके दोस्तों के अलावा वहां आमतौर पर कोई आता जाता नहीं था. वहां बिजली पानी की भी व्यवस्था थी और दो चार जनों के लायक काम चलाऊ सा बिस्तरा भी. कभी किसी के घर में मेहमानदारी के चलते जगह कम पड़ जाए तो घर का एकाध सदस्य वहीं जाकर सो जाता. अकेले वहां सोने की हिम्मत विरले ही कर पाते थे क्योंकि लोगों में चर्चा थी कि वहां आसपास या उसी कमरे में एक भूत रहता है जो रात को झाड़ू लगाता है.
एक शाम हुआ यूं कि दो तीन लोगों का पीने का कार्यक्रम बना. वह लोग खाना पीना लेकर क्लब में जा बैठे. दो-तीन लोग और आ गए अड्डेबाजी के लिए. पीने वाले पीते रहे गपशप चलती रही कि तभी मोहल्ले का एक लड़का अचानक वहां आ गया. उसके किराए के घर में गांव से एक मरीज और उसके तीमारदार आ टपके थे. उसे किसी से पता चला कि आज क्लब में दो एक जन दारू पीकर वही सोने वाले हैं. उन्हीं के भरोसे वह भी चला आया.
धीरे धीरे खाना पीना संपन्न हुआ. सभी लोग फर्श पर बिछे गद्दों में बैठे लेटे अधलेटे गपियाने लगे. छत से लटका पंखा मध्यम गति से घूम रहा था. गप्पों में कब समय गुजरा पता ही नहीं चला. जिन लड़कों ने नहीं पी थी उनमें से एक ने घड़ी देखी तो समय का एहसास हुआ. उसने कहा – चलो यार चला जाए. घरवाले खाने पर इंतजार कर रहे होंगे. इन्हें तो आज रात यहीं सोना है. चलो. ज्यूँ ही वे उठे कि बिजली गुल हो गई. जाने वालों ने कहा कि तुम लोग भी सो जाओ. दरवाजा भेड़कर हम बाहर चैनल गेट में अंदर की ओर से ताला लगाकर चाबी अंदर बरामदे में उछाल देंगे, सुबह खोल लेना. तुम लेटे रहो. लो बत्ती भी बुझा देते हैं. अंधेरे में नींद नहीं आएगी. ठीक है आराम करो. गुड नाइट.
वे लोग ताला लगा कर चले गए. सोने वाले सो गए. जिन के पेट में दारू थी वे जल्दी ही गहरी नींद में चले गए. घर में मेहमान आ जाने के कारण जो लड़का वहां सोने चला आया था, वह पीता नहीं था. उसे सामान्य आदमी की तरह एकाएक नींद नहीं आई. वह चादर ओढ़े नींद का इंतजार करने लगा. रात धीरे-धीरे गहरा रही थी और सन्नाटा पसरा हुआ था. तभी एकाएक उसने झाड़ू लगने की आवाज सुनी. पहले उसे लगा यह उसका भ्रम है, उसका डर है. उसने बगल में सोए तीन पियक्कड़ों की मौजूदगी के सहारे थोड़ी सी हिम्मत की और तकिए से जरा सर उठाकर ध्यान से आवाज को सुना. नहीं, वह भ्रम नहीं था. वह न पिए था न नींद में था. वाकई कोई लगातार झाड़ू लगाए जा रहा था. जहां उसका सर था वहां से कोई पांच-एक फीट पीछे की ओर. उसकी घिग्गी बंध गई. उसने हौले से घुटने मोड़कर पेट से सटा लिए और चादर को यूं लपेट लिया मानो वह कोई रक्षा कवच हो.
वह रात उसके लिए एक सदी बराबर लंबी थी. नींद आने का सवाल था ही नहीं. अभी तक सांसे चल रही थी यही गनीमत थी. हद से लंबी उस रात भर वह एक करवट खुद की खैर मनाता रहा और मेहमान को कोसता पड़ा रहा.
आखिर हर रात की सुबह होती है. उस काली भयानक लंबी मनहूस की भी सुबह हो ही गई. पास से गुजरने वाले रास्ते पर लोगों के चलने फिरने बोलने की आवाजें आने लगी पर उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह चादर से सर बाहर निकाल ले. तभी किसी तारणहार की तरह एक पियक्कड़ उबासियाँ लेता हुआ उठा. उसने टटोल कर बत्ती जलाई और चप्पल घसीटता हुआ गुसलखाने की ओर चला गया. तब कहीं उसकी हिम्मत हुई कि मुंह से चादर हटाए और उठ बैठे. मगर झाड़ू, मुसलसल अब भी लगाया जा रहा था जबकि भूतों का कार्यकाल पौ फटते ही समाप्त हो जाता है. उसने चादर हटाई और उठ बैठा और बड़ी हिम्मत से मुड़कर पीछे की ओर देखा तो जी चाहा कि कोई उसे कसकर जुतिया दे.
हुआ यूं की रात को जाने वाले बत्ती बुझा गए मगर पंखा खुला रहा. ज्यों ही बिजली आई वह फिर घूमने लगा और हवा से दीवार में टंगा कैलेंडर रात भर झाड़ू लगाता रहा. और यूँ एक भूत ने एक जवान आदमी की एक रात की नींद पर तबीयत से झाडू फेर दिया.
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
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