‘दम मारो दम मिट जाये गम’ गाना तो बीसवीं शताब्दी में बना साहब! जब कि गम मिटाने का ये नुस्खा उतना ही पुराना है, जितने भगवान भोलेनाथ. भोलेनाथ को अर्पित की जाने वाली सामग्री में चरस भी उनकी प्रिय सामग्री में एक है. इसी बूटी का कमाल है, जिससे भगवान शिव हिमालय पर्वत पर भी दुनिया से विरक्त होकर मस्त एवं औढरदानी स्वरूप में दिखते हैं. साधु-सन्यासियों ने यदि भगवान शंकर के स्वरूप की नकल में जटाजूट और भस्मी लेपन के साथ दम लगाने की परम्परा भी अपना ली तो बुरा क्या किया? (Article by Bhuwan Chandra Pant)
साधु सन्तों की आड़ में आम गृहस्थी भी अगर शिवभक्त हैं और उनका अनुकरण करते हैं तो इसमें हर्ज नहीं होना चाहिये. इसीलिए तो भक्तों ने इसका नाम ही रख दिया शिवबूटी. शिवबूटी के नाम पर इन्होंने तो इसे वैधानिकता का ब्राडेण्ड जामा पहनाने का तोड़ निकाल दिया लेकिन नारकोटिक विभाग है कि इस पर भी पाबन्दी लगाने पर तुला है. यदि दूसरे धर्मों के आराध्यों में भी इसका चलन देखा जाता तो क्या मजाल कि कोई इस पर प्रतिबन्ध लगाने का दुस्साहस कर पाये , लेकिन हम सेक्यूलर हैं ना भाई! इसलिए पाबन्दी लगाना उनकी जिम्मेदारी बन जाता है.
कितना सहज व सरल साधन था यह भक्तिलीन होने का. चुपचाप सुट्टा लगाकर बैठ जाओ, अगले को पता भी ना चले कि दम लगाये हो. ये शराब थोड़े ही है जो मुंह की बदबू से अहसास करा दे अथवा दो चार गालियां बककर नशेड़ी होने का दूसरों को आभास करा दे. क्या आपने कभी सुना कि अमुक दमची ने उत्पात मचाया, गाली गलौज की या आपस में ही भिड़ गये? दरअसल ये शरीर का नहीं मन का नशा है, गुमशुम होने का, अन्दर ही अन्दर खोने का, बिना किसी को व्यवधान किये.
एक शराबी बारातों में जाकर उत्पात मचाता है, लेकिन अतरची क्या करता है, इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण मेरे सामने घटा. बात कोई 2-3 साल पुरानी है. नैनीताल के पास खुर्पाताल में एक बारात आई थी, दिनोंदिन की शादी थी. गांव की शादी थी तो सामने के खेत पर शामियाना लगाकर भोज की व्यवस्था की गयी थी. एक कोई 24-25 साल का युवक बारात से अलग होकर खेत में बिना किसी औजार के अपने हाथों से गढ्ढा खोदे जा रहा था, कुछ लोग दूर से उसे देखते रहे. उनकी समझ में कुछ नहीं आया. कुछ देर में वह भीड़े की पत्थर की दीवारों के बीच बने सुराखों को झांकता नजर आया. लोग उत्सुकता वश उसके समीप गये. उन सुराखों की ओर मुंह लगाकर वह बाबू! बाबू! पुकार रहा था. लोग समझ नहीं पाये माजरा क्या है? कुछ लोगों ने शंका जाहिर की कि पागल दिमाग का होगा. किसी ने पूछ ही दिया उससे – ऐसा क्या कह रहे हो. वह बोला मेरे बापू इस सुराख के अन्दर चले गये हैं, उन्हीं को बुला रहा हूं. हम लोग आपस में एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे, हंसी भी थी और विस्मय भी.
इतने में उसके साथ का बाराती आ गया, उसने बताया अरे! कहां लगे हो इसके पीछे ये तो महा अतरची है. इसकी ऐसी ही खुराफातें रहती हैं. दरअसल उसके पिता जी कुछ देर पहले इसी रास्ते से गुजरे थे, वह उनके पीछे चल रहा था, उसका ध्यान भटका, तब तक पिता जी मोड़ से ओझल हो चुके थे. उसे भ्रम हो गया कि आगे नहीं दिख रहे हैं तो यहीं कहीं छुप गये होंगे. इसी भ्रम में वह यह हरकत कर रहा था. जो दमची दीवार के अन्दर पिता जी को ढूँढ सकता है, भला ईश्वर तो सर्वव्यापी हैं, उसको ढूँढ निकालना उसके लिए क्या मुश्किल?
ऐसे ही एक शिकारी थे, आन सिंह, अब नहीं रहे. शिकार करने का बड़ा शौक था. बात पुरानी है, तब शिकार करने पर आज की तरह प्रतिबन्ध भी नहीं था. शिकार के लिए बकायदा दो नाली बन्दूक का लाइसेंस उनके पास था. एक बार अपने साथी को लेकर शिकार के लिए जंगल को निकले. दम के शौकीन तो थे ही. काफी देर तक शिकार की तलाश पर जब शिकार नहीं मिला तो टाइम पास को अतर का एक सुट्टा लगाया और फिर शिकार पर इधर-उधर नजर गढ़ाने लगे. संयोगवश एक हिरन उनके सामने ही आ गया. अब आन सिंह ने बन्दूक तानी और मिनटों तक ताने रहे बजाय ट्रीगर दबाने के. जब धांय की आवाज बन्दूक से हुई, तब तक हिरन पता नहीं कितनी दूर जा चुका होगा. साथी खीझ कर बोला कैसे शिकारी हो यार! हिरन तुम्हारे सामने खड़ा और तुम उस पर लगातार नजर गढ़ाये हो, गोली क्यों नहीं चलायी. आन सिंह बोले – मुझे तो एक पल को वो शेर जैसा नजर आया. मेरी तो घिग्गी बंध गयी थी, जब उसने छलांग मारी. मैंने सोचा हम पर झपटने को आ गया और गोली चला दी. अब सोचिये! जो नशा इन्सान में इतना भय पैदा कर दे, वो भला क्या अपराध पैदा करेगा?
नशेड़ी चाहे शराबी हो, अतरची हो अथवा आज के स्मैक आदि के व्यसनी, उनकी एक खासियत होती है – याराना पक्का होता है. किसी नशेड़ी में कितना ही झगड़ा हो जाय लेकिन अगले ही पल वे एक दूसरे को तलाशने लगते हैं. विद्वानों के बीच आपने कभी घनिष्ठता नहीं देखी होगी, जब कि नशेड़ियों के बीच प्रेमभाव गजब का देखा गया है. कारण प्रतिष्ठा हम अकेले लेना चाहते हैं जब कि बदनामी अकेले भोगने की हमारी फितरत नहीं है. फिर दमची में तो कभी तू-तू, मैं-मैं का सवाल ही नहीं उठता. वहां तो चिलम खींचने की भी स्पर्घा होती देखी गयी है. कौन कितनी ऊंची कल्ली (दम खींचते समय उठने वाली लौ) उठाता है? कल्ली उठाने में शारीरिक सौष्ठव का सवाल भी नहीं होता, कमजोर दमची भी श्वास खींचने और धुंआ अन्दर गटकने की कला में माहिर है, तो अच्छे-अच्छे को परास्त कर दे.
शिकायत मुझे दमची से नहीं बल्कि इस बात से है कि इसका नाम दम रख किसने दिया. दम लेने वाला तो दमदार होना चाहिये लेकिन होता बिल्कुल इसके उलट है. अच्छा दमदार भी दम लगाकर लुंज-पुंज हो जाये तो इसे दम नहीं बेदम कहा जाना चाहिये था.
खैर! इतना तो तय है कि दो शराबी आपस में भिड़ सकते हैं, गाली गलौंच कर सकते हैं, लेकिन दो दमची शान्त भाव से बतियाते रहते हैं. प्रलाप अनर्गल हो सकता है लेकिन अश्लील नहीं. सबसे बड़ी बात हमारे समाज में मुहावरा प्रचलित है – हुक्का पानी बन्द होना. हुक्का पानी उसी के साथ होता है, जो सजातीय अथवा अपने समकक्ष हो, भले साफी अलग-अलग हो लेकिन दमभाइयों में बिना किसी जाति भेदभाव के एक ही चिलम सब पर घूमती है. इसलिए इस बात में सोलह आने दम है- ‘दम भाई निज भाई और भाई घपड़-सपड़’ (Article by Bhuwan Chandra Pant)
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं
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