आधुनिक चिकित्सा पद्धति एलोपैथी की शुरूआत तो उन्नीसवीं शताब्दी में हुई और देश में तो इसकी पहुंच आमजन तक स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद तक भी बहुत सीमित थी. उस दौर में शुद्ध खान-पान, स्वच्छ पर्यावरण व समुचित शारीरिक श्रम एवं शुद्ध आचार-विचार से प्रायः बीमारियां भी कम थी और छोटी मोटी बीमारियां स्वतः ही शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली से ठीक हो जाया करती. जो गम्भीर बीमारियां हुआ करती, उनका उपचार देश की पुरातन आयुर्वेदिक पद्धति से किया जाता था.
(Article by Bhuwan Chandra Pant)
इसके अलावा समाज में झाड़-फूंक, टोना-टोटका तथा परम्परागत अपनाये गये नुस्खे ही रोगोपचार के लिए एकमात्र विकल्प थे. जैसे छोटे बच्चों को जुक लगने पर राख से पेट को अभिमंत्रित करना, दांत दर्द में घुन्ते के मंत्र से झाडना, सिरदर्द, पेटदर्द अथवा गले के टांसिल में त्रिमुखी लोहे के तार (ताव्) को आंग में लाल कर दर्द वाली जगह पर डामना (गरम किये गये लाल तार से शरीर के हिस्से को दागना) आदि-आदि.
इसी तरह एक उपचार विधि पहाड़ों पर काफी प्रचलित थी – लङण. मुझे नहीं पता कि दूसरे हिस्सों में इसे अपनाया जाता या नहीं अथवा इसे क्या बोला जाता है. लेकिन पहाड़ों में गम्भीर बीमारियों से लड़ने के लिए रोगी को लङण दिये जाते थे. रोग की गम्भीरता और रोगी की शारीरिक क्षमता को देखते हुए लङण देने की अवधि एक सप्ताह, दो सप्ताह अथवा कभी-कभी तीन सप्ताह तक हो जाया करती. इस अवधि में रोगी को उबले हुए पानी के सिवाय कुछ भी खाने को नहीं दिया जाता था. निश्चित अवधि पर जब लगता कि रोगी रोगमुक्त हो चुका है, तो उसे पथ (पथ्य) दिया जाता. ऐसा भोजन जो सुपाच्य हो, जिसमें लौकी का पानी, मॅूग दाल का पानी अथवा मॅूग खिचड़ी प्रमुख थी. कभी-कभी रोटी के फुलकों के नर्म छिलकों के साथ राख में पकाये गये आलू के भुत्र्ते में जीरे का नमक मिलाकर साथ में भी दिया जाता था. धीरे-धीरे रोगी स्वस्थ होकर सामान्य आहार लेने की स्थिति में आ जाता.
दरअसल जिसे लोकभाषा में लङण कहा जाता है, विशुद्ध लोकभाषा का शब्द नहीं बल्कि यह शब्द संस्कृत के लंघन शब्द का ही अपभ्रंश है, जिसका अर्थ होता है – निराहार रहना. आयुर्वेद में भी लंघन शब्द प्रयोग किया जाता है, जो निराहार रहकर उपचार करने की एक पद्धति है. लङण उपचार विधि मुख्यरूप से टाइफाइड जैसी बीमारियों के उपचार में अमल में लायी जाती रही है.
(Article by Bhuwan Chandra Pant)
आइये जानते हैं कैसे लङण उपचार विधि आज की एन्टीबायोटिक (प्रतिजैविक) दवाओं की विकल्प की तरह काम करती थी. तब आज की तरह रोगों अथवा विषाणु से लड़ने के लिए एन्टीबायोटिक दवाऐं नहीं थी और यदि थी भी तो उनका प्रसार दूर देहातों तक नहीं के बराबर था. चिकित्सा सेवाऐं बड़े शहरों तक सीमित थी. जैसा कि आप जानते हैं कि टायफाइड को हिन्दी में आन्त्रशोथ के नाम से भी जाना जाता है, जो आंतों में विषाणु विशेष के संक्रमण से होता है. विशेष रूप से बरसात के मौसम में दूषित जल इसका प्रमुख कारण है. यह विषाणु आंतों में संक्रमण से पाचन तंत्र को प्रभावित करता है तथा रोग की तीव्रता के साथ तीव्र ज्वर (उतार-चढ़ाव के साथ), सिरदर्द तथा पाचन क्रिया को बुरी तरह प्रभावित करता है और रोगी को अशक्त कर देता है. समय पर उचित उपचार के अभाव में प्राणघातक भी साबित होता है.
हमारे शरीर में भोजन को पचाने के लिए असंख्य जीवाणु होते हैं, जिनका आहार भी हमारे द्वारा ग्रहण किये जाने वाले भोजन का एक हिस्सा होता है. इसी तरह संक्रमण से जो विषाणु आंतों में रोग का कारण बनते हैं, वे भी हमारे भोजन से ही पोषित होते हैं. यदि हम भोजन लेना एकदम बन्द कर दें तो हमारे आंतों में पाये जाने वाले शरीर के लिए अनुकूल जीवाणुओं को भी आहार मिलना बन्द हो जायेगा. तब ये जीवाणु अपने अस्तित्व के लिए बाहर से आये विषाणुओं को अपना भोजन बनाना शुरू कर देंगे और विषाणुओं के खत्म होने से शरीर रोगमुक्त होने लगेगा. इस प्रकार यह उपचार विधि ठीक उसी प्रकार विषाणुओं को खत्म करने का काम करेगी, जिस प्रकार वर्तमान चिकित्सा पद्धति में एन्टीबायोटिक काम करते हैं.
वर्तमान चिकित्सा विज्ञान में जब वैक्टीरिया को नष्ट करने के लिए एक से बढ़कर एक बेहतरीन दवाऐं उपलब्ध हैं, तब पुरानी चिकित्सा पद्धति लङण से उपचार करना बुद्धिमानी नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि इसे सिरे से खारिज कर नकारा भी नहीं जा सकता. आज भी दूरस्थ क्षेत्रों में जहां वर्तमान चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार नहीं है, ऐसे रोगियों के लिए ये भी आशा की किरण है.
(Article by Bhuwan Chandra Pant)
वर्तमान में भवाली निवासी भुवन चन्द्र पन्त 2014 में भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृति के बाद विभिन्न विषयों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं.
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